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The Evolution of Indian Citizenship: Insights from Part 2 of the Constitution

भारतीय संविधान भाग 2: नागरिकता और सामाजिक न्याय की दिशा भारत का संविधान, दुनिया के सबसे विस्तृत और समावेशी संविधानों में से एक है, जो न केवल राज्य की संरचना और प्रशासन के ढांचे को निर्धारित करता है, बल्कि नागरिकों के अधिकारों और कर्तव्यों को भी स्पष्ट रूप से परिभाषित करता है। भारतीय संविधान का भाग 2 भारतीय नागरिकता से संबंधित है, जो एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के मूलभूत ताने-बाने को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। नागरिकता की परिभाषा और महत्व संविधान का भाग 2 भारतीय नागरिकता को परिभाषित करता है, यह स्पष्ट करता है कि एक व्यक्ति को भारतीय नागरिकता कब और कैसे प्राप्त होती है, और किन परिस्थितियों में यह समाप्त हो सकती है। नागरिकता, किसी भी देश में व्यक्ति और राज्य के बीच एक संप्रभु संबंध को स्थापित करती है। यह एक व्यक्ति को अपने अधिकारों का दावा करने का अधिकार देती है और साथ ही राज्य के प्रति उसकी जिम्मेदारियों को भी स्पष्ट करती है। भारतीय संविधान में नागरिकता की प्राप्ति के विभिन्न आधार हैं, जैसे जन्म, वंश, और पंजीकरण के माध्यम से। यह सुनिश्चित करता है कि कोई भी व्यक्ति, जो भारत...

12th राजनीति विज्ञान नोट्स

12th NCERT Political Science Notes In Hindi


अध्याय 2.1 : नए राष्ट्र के सामने चुनौतियाँ

↪14-15 अगस्त 1947 की मध्यरात्रि में भारत ने स्वतंत्रता प्राप्त की। इस ऐतिहासिक क्षण को जवाहरलाल नेहरू के प्रसिद्ध भाषण "नियति से साक्षात्कार" के साथ चिह्नित किया गया। स्वतंत्रता के बाद, भारत को लोकतांत्रिक शासन स्थापित करने और गरीबों व पिछड़े वर्गों के उत्थान का वादा पूरा करने की चुनौती का सामना करना पड़ा। हालाँकि, यह यात्रा विभाजन, हिंसा और विस्थापन की छाया में शुरू हुई।

  • तीन प्रमुख चुनौतियाँ

1. राष्ट्रीय एकता और अखंडता:

भारत की भाषा, संस्कृति और धर्म की विविधता राष्ट्रीय एकता के लिए एक बड़ी चुनौती थी।

विभाजन ने यह आशंका बढ़ा दी थी कि क्या भारत एकीकृत रह पाएगा।

क्षेत्रीय और उप-राष्ट्रीय पहचान को दबाए बिना अखंडता बनाए रखना और भारतीय क्षेत्रों का एकीकरण आवश्यक था। भारतीय राजनेताओं ने 565 देशी रियासतों का भारत संघ में विलीनीकरण करके इस चुनौती को  पूर्ण किया।

2. लोकतंत्र की स्थापना:

भारतीय राजनेताओं के सम्मुख दूसरी सबसे बड़ी चुनौती थी देश में लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था स्थापित करना। इसके लिए संविधान निर्माण, नागरिकों को मौलिक अधिकार, सार्वभौमिक मताधिकार के माध्यम से संसदीय लोकतंत्र प्रदान किया गया।लेकिन संविधान के सिद्धांतों के अनुरूप लोकतांत्रिक प्रथाओं को विकसित करना भी एक बड़ी चुनौती थी।

3. आर्थिक विकास और सामाजिक समानता:

तीसरी चुनौती थी देश का पुनर्निर्माण व विकास करना था और विकास का फायदा समाज के सभी वर्गों तक पहुँचे यह भी सुनिश्चित करना था। इसके लिए संविधान में समानता और सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों के रक्षार्थ प्रावधान किये गए।

राज्य के नीति-निर्देशक तत्वों में कल्याणकारी लक्ष्यों को निर्धारित किया गया, लेकिन गरीबी उन्मूलन और आर्थिक विकास के लिए प्रभावी नीतियाँ बनाना भी जरूरी था।

स्वतंत्र भारत ने इन चुनौतियों का सामना कैसे किया, यह उसकी प्रारंभिक राजनीति की दिशा तय करता है। स्वतंत्रता के बाद राष्ट्र-निर्माण, लोकतंत्र और विकास की यह यात्रा भारत के इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय है।

  • विस्थापन और पुनर्वास

14-15 अगस्त 1947 को ब्रिटिश भारत का विभाजन हुआ, और दो राष्ट्र-राज्य, भारत और पाकिस्तान, अस्तित्व में आए। यह विभाजन मुस्लिम लीग के "दो राष्ट्र सिद्धांत" पर आधारित था, जिसमें हिंदू और मुस्लिम को दो अलग-अलग राष्ट्र माना गया। पाकिस्तान की मांग के खिलाफ कांग्रेस और नेता जैसे खान अब्दुल गफ्फार खान ने विरोध किया, लेकिन राजनीतिक परिस्थितियों और ब्रिटिश हस्तक्षेप ने विभाजन को अनिवार्य बना दिया। विभाजन धार्मिक बहुलता के आधार पर हुआ, जिसमें मुस्लिम बहुल क्षेत्रों को पाकिस्तान और शेष को भारत में शामिल किया गया।

हालांकि, यह प्रक्रिया कठिन और जटिल थी। पूर्व और पश्चिम पाकिस्तान के बीच भौगोलिक दूरी, कुछ मुस्लिम बहुल क्षेत्रों का पाकिस्तान में शामिल होने का विरोध और पंजाब व बंगाल का जिला व तहसील स्तर पर विभाजन गंभीर समस्याएं थीं। विभाजन ने लाखों लोगों को विस्थापित किया।

यह इतिहास की सबसे बड़ी और दुखद जनसंख्या पलायन की घटनाओं में से एक थी। दोनों ओर अल्पसंख्यक समुदायों पर हिंसा, हत्या और जबरन विस्थापन हुआ। लोगों को अपने घर छोड़ने और शरणार्थी शिविरों में शरण लेने को मजबूर होना पड़ा। यात्रा के दौरान कई लोग मारे गए, महिलाओं का अपहरण और बलात्कार हुआ, और परिवार टूट गए। शहर जैसे लाहौर, अमृतसर और कोलकाता में सांप्रदायिक दंगे भी हुए।

विभाजन ने न केवल भौतिक संपत्ति और प्रशासनिक संरचनाओं को विभाजित किया बल्कि समाज और समुदायों को भी तोड़ दिया। लगभग 80 लाख लोग विस्थापित हुए और 5-10 लाख लोग हिंसा में मारे गए।

इस विभाजन ने भारत के धर्मनिरपेक्ष चरित्र पर सवाल खड़ा किया। भारतीय नेताओं ने धार्मिक समानता की वकालत की और संविधान में सभी धर्मों के लिए समानता का आदर्श स्थापित किया गया। विभाजन को अक्सर "दिलों का विभाजन" भी कहा जाता है, जिसने गहरी मानवीय पीड़ा और सांप्रदायिक तनाव को जन्म दिया।


  •  रियासतों का भारतीय संघ में विलय:

ब्रिटिश शासन के दौरान भारत दो भागों में विभाजित था – ब्रिटिश भारतीय प्रांत (जो सीधे ब्रिटिश सरकार के अधीन थे) और रियासतें, जो आंतरिक स्वायत्तता का आनंद लेती थीं लेकिन ब्रिटिश सर्वोच्चता (पैरामाउंटसी) को स्वीकार करती थीं। रियासतें ब्रिटिश भारत के एक-तिहाई भूभाग और कुल जनसंख्या के चौथाई हिस्से को कवर करती थीं।

समस्या

स्वतंत्रता के समय ब्रिटिश सरकार ने घोषणा की कि उनकी सर्वोच्चता खत्म होने के साथ ही रियासतें स्वतंत्र हो जाएंगी। 565 रियासतों को यह अधिकार दिया गया कि वे भारत या पाकिस्तान में से किसी में शामिल हो सकती हैं या स्वतंत्र रह सकती हैं। यह निर्णय शासकों पर छोड़ा गया, जनता पर नहीं। इससे भारत के विखंडन और अलोकतांत्रिक शासन की आशंका पैदा हुई। जैसे, त्रावणकोर और हैदराबाद के शासकों ने स्वतंत्र रहने की घोषणा की, और भोपाल के नवाब जैसे अन्य शासक विलय का विरोध कर रहे थे। यह स्थिति भारत की एकता और लोकतंत्र के लिए खतरा थी।

सरकार का दृष्टिकोण

सरदार वल्लभभाई पटेल के नेतृत्व में भारतीय सरकार ने कूटनीतिक और सख्त रुख अपनाया। सरकार की रणनीति तीन मुख्य बातों पर आधारित थी:

1. अधिकांश जनता भारत में शामिल होना चाहती थी।

2. क्षेत्रीय स्वायत्तता के लिए लचीला रवैया अपनाया गया।

3. विभाजन की पृष्ठभूमि में क्षेत्रीय अखंडता का महत्व बढ़ गया।

15 अगस्त 1947 से पहले अधिकांश रियासतों ने विलय पत्र (इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन) पर हस्ताक्षर कर दिए। हालांकि, जूनागढ़, हैदराबाद, कश्मीर और मणिपुर के मामले चुनौतीपूर्ण रहे।

हैदराबाद

हैदराबाद के निजाम उस्मान अली खान ने स्वतंत्रता की मांग की और 1947 में भारत के साथ स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट पर हस्ताक्षर किए। लेकिन निजाम के खिलाफ जनता का आंदोलन तेज हो गया, विशेष रूप से तेलंगाना क्षेत्र के किसानों ने निजाम के दमनकारी शासन के खिलाफ विद्रोह किया। निजाम ने अपनी रज़ाकार सेना के जरिए जनता पर अत्याचार किए। सितंबर 1948 में भारतीय सेना ने ऑपरेशन पोलो के तहत हस्तक्षेप किया। कुछ दिनों की लड़ाई के बाद निजाम ने आत्मसमर्पण कर दिया और हैदराबाद रियासत को भारत में शामिल कर लिया गया।

मणिपुर

मणिपुर के महाराजा बोधचंद्र सिंह विलय पत्र पर हस्ताक्षर इस शर्त पर किये थे कि राज्य की आंतरिक स्वायत्तता बनी रहेगी। जनता के दबाव के कारण जून 1948 में मणिपुर में सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार पर आधारित विधानसभा के लिए भारत में पहला चुनाव आयोजित किया गया, जिससे मणिपुर संवैधानिक राजतंत्र बन गया। लेकिन 1949 में भारत सरकार के दबाव में महाराजा ने विधान सभा से परामर्श किये बिना मणिपुर को भारत में पूर्णतया विलय कर दिया। इससे जनता में रोष पैदा हुआ, जिसके प्रभाव आज भी महसूस किए जाते हैं।

दृढ़ कूटनीति और सैन्य हस्तक्षेप के माध्यम से अधिकांश रियासतों का भारत में सफलतापूर्वक विलय कर लिया गया, जिससे देश की क्षेत्रीय और राजनीतिक एकता सुनिश्चित हो सकी।

  • राज्य पुनर्गठन की प्रक्रिया

भारत में राज्यों के पुनर्गठन की प्रक्रिया विभाजन और रियासतों के एकीकरण के बाद शुरू हुई। इसका उद्देश्य देश की भाषाई और सांस्कृतिक विविधता को संरक्षित करना था, साथ ही राष्ट्रीय एकता को बनाए रखना था। औपनिवेशिक शासन के दौरान राज्य की सीमाएँ प्रशासनिक सुविधाओं के आधार पर या ब्रिटिश सरकार और रियासतों द्वारा कब्जाए गए क्षेत्रों के अनुसार खींची गई थीं। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन ने इन कृत्रिम सीमाओं को खारिज कर भाषाई आधार पर राज्यों के गठन का समर्थन किया था।

हालांकि, स्वतंत्रता और विभाजन के बाद, नेताओं को लगा कि भाषाई आधार पर राज्यों का गठन देश को अस्थिर कर सकता है। उन्होंने इस मुद्दे को टालने का निर्णय लिया। लेकिन स्थानीय नेताओं और जनता ने इसका विरोध किया। सबसे पहले मद्रास प्रांत के तेलुगु भाषी क्षेत्रों में आंदोलन शुरू हुआ, जिसे "विशालआंध्र आंदोलन" कहा गया। इस आंदोलन ने मद्रास प्रांत से तेलुगु भाषी क्षेत्रों को अलग कर एक अलग आंध्र राज्य की मांग की गयी।

आंदोलन ने तब गति पकड़ी जब गांधीवादी नेता पोट्टी श्रीरामुलु ने अनिश्चितकालीन अनशन शुरू किया। 56 दिनों के बाद उनकी मृत्यु से आंध्र क्षेत्र में भारी असंतोष और हिंसक प्रदर्शन हुए। आखिरकार, 1952 में प्रधानमंत्री ने आंध्र राज्य के गठन की घोषणा की। इसप्रकार 1953 में भाषायी आधार पर गठित आंध्रप्रदेश पहला राज्य बना।

आंध्र प्रदेश के गठन के बाद अन्य क्षेत्रों में भी भाषाई आधार पर राज्यों की मांग उठी। इसके चलते केंद्र सरकार ने 1953 में राज्यों के पुनर्गठन के लिए एक आयोग का गठन किया। आयोग ने अपनी रिपोर्ट (1955) में भाषाई आधार पर राज्य सीमाएँ खींचने की सिफारिश की। 1956 में राज्य पुनर्गठन अधिनियम पारित किया गया, जिससे 14 राज्यों और 6 केंद्र शासित प्रदेशों का गठन हुआ।

प्रारंभ में यह आशंका थी कि भाषाई राज्य अलगाववाद को बढ़ावा देंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इसके विपरीत, यह कदम राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने वाला साबित हुआ। भाषाई राज्यों ने राजनीति और सत्ता तक पहुंच को अंग्रेज़ीभाषी अभिजात वर्ग से आगे बढ़कर आम जनता तक पहुँचाया। इसने भारतीय लोकतंत्र में विविधता और भिन्नताओं को स्वीकार करने के सिद्धांत को रेखांकित किया। इस प्रक्रिया ने न केवल भारतीय लोकतंत्र को मजबूत किया बल्कि इसे विविधता के आधार पर समृद्ध बनाया।

  • महत्वपूर्ण व्यक्तित्व

 सरदार वल्लभभाई पटेल और पोट्टी श्रीरामलु के योगदान का विश्लेषण स्वतंत्रता संग्राम और स्वतंत्र भारत के निर्माण में उनकी भूमिका के दृष्टिकोण से किया जा सकता है।

सरदार वल्लभभाई पटेल का योगदान

1. स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका:

 सरदार पटेल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख नेताओं में से एक थे।

महात्मा गांधी के साथ मिलकर उन्होंने किसानों के अधिकारों के लिए संघर्ष किया, खासकर बारडोली सत्याग्रह (1928) में, जिससे उन्हें 'सरदार' की उपाधि मिली।

2. भारत का एकीकरण:

स्वतंत्रता के बाद, उन्होंने 565 रियासतों को भारत में शांतिपूर्ण तरीके से मिलाने में निर्णायक भूमिका निभाई।

यह उनकी राजनीतिक कौशल और दृढ़ निश्चय का प्रमाण था।

3. संविधान सभा में योगदान:

पटेल ने संविधान सभा की विभिन्न समितियों, जैसे मौलिक अधिकार और अल्पसंख्यक समिति, में योगदान देकर भारतीय संविधान को आकार देने में मदद की।

उनका दृष्टिकोण समावेशी था, जो सभी वर्गों के हितों की रक्षा के लिए समर्पित था।

4. प्रथम गृह मंत्री:

देश की आंतरिक सुरक्षा और शांति बनाए रखने के लिए उन्होंने कड़े कदम उठाए।

पुलिस और प्रशासनिक सुधार में उनका योगदान उल्लेखनीय था।

 पोट्टी श्रीरामलु का योगदान

1. गांधीवादी कार्यकर्ता:

श्रीरामलु ने गांधीजी के सिद्धांतों को अपनाते हुए सामाजिक और राजनीतिक आंदोलनों में भाग लिया।

उन्होंने नमक सत्याग्रह और व्यक्तिगत सत्याग्रह में सक्रिय भागीदारी दिखाई।

2. दलित अधिकारों के लिए संघर्ष:

1946 में मंदिरों को दलितों के लिए खोलने की मांग करते हुए उन्होंने अनशन किया। यह उनके समतावादी दृष्टिकोण को दर्शाता है।

3. भाषाई राज्यों का गठन:

उन्होंने तेलुगु-भाषी लोगों के लिए अलग राज्य की मांग की।

1952 में उनके अनशन और बलिदान ने सरकार को आंध्र प्रदेश के गठन के लिए मजबूर किया।

उनका यह योगदान भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की दिशा में एक निर्णायक कदम था।

विश्लेषण

सरदार पटेल का योगदान राष्ट्र निर्माण के स्तर पर अधिक व्यापक और दीर्घकालिक था। उन्होंने भारत की अखंडता सुनिश्चित की।

पोट्टी श्रीरामलु ने सामाजिक समानता और क्षेत्रीय अधिकारों के लिए संघर्ष किया। उनका बलिदान जनता की आवाज को सरकार तक पहुंचाने का उदाहरण बना।

दोनों नेताओं का दृष्टिकोण गांधीवादी था, लेकिन उनके संघर्ष के क्षेत्र अलग थे—पटेल राष्ट्रीय स्तर पर और श्रीरामलु क्षेत्रीय और सामाजिक मुद्दों पर केंद्रित रहे।

निष्कर्ष

सरदार पटेल और पोट्टी श्रीरामलु दोनों भारतीय इतिहास के ऐसे नायक हैं जिनका योगदान अद्वितीय है। एक ओर जहां पटेल ने राष्ट्रीय एकता और संविधान निर्माण में योगदान दिया, वहीं श्रीरामलु ने सामाजिक न्याय और क्षेत्रीय पहचान के लिए अपनी जान तक दे दी। दोनों के प्रयास स्वतंत्र भारत को मजबूत और समतामूलक बनाने की दिशा में मील का पत्थर साबित हुए।



अध्याय 2.2 : एक दल के प्रभुत्व का दौर


  • स्वतंत्र भारत में लोकतंत्र निर्माण की चुनौती

1. प्रारंभिक चुनौतियाँ और संदर्भ:

स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारत विभाजन, हिंसा और गरीबी जैसी गंभीर चुनौतियों का सामना कर रहा था।

कई नव स्वतंत्र देशों ने अधिनायकवादी शासन को अपनाया, लेकिन भारत के नेताओं ने लोकतंत्र का कठिन मार्ग चुना।

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित था, इसलिए लोकतांत्रिक राजनीति को ही समस्याओं के समाधान का माध्यम स्वीकार किया गया।

2. संविधान का निर्माण और कार्यान्वयन:

26 जनवरी 1950 को लागू भारतीय संविधान ने लोकतांत्रिक शासन की नींव रखी।

पहला लोकतांत्रिक चुनाव कराने के लिए निर्वाचन क्षेत्रों की सीमा-रेखाएँ तय करने और मतदाता सूची तैयार करने की आवश्यकता थी।

3. पहले आम चुनाव की तैयारी:

17 करोड़ मतदाताओं के साथ चुनाव कराना एक अभूतपूर्व कार्य था।

मतदाता सूची बनाने में  भी समस्याएँ थी जैसे काफी संख्या में महिलाओं के कोई नाम ही नहीं थे । इन्हें "किसी की पत्नी" या "किसी की बेटी" के रूप में जाना जाता था अतः इनका नामकरण करके सूचीबद्ध करने का आदेश दिया गया।

उस समय केवल 15% लोग ही साक्षर थे अतः अशिक्षित मतदाताओं के लिए विशेष मतदान पद्धतियाँ अपनाई गईं और तीन लाख से अधिक अधिकारियों को प्रशिक्षित किया गया।

उस समय आलोचकों का मानना था कि लोकतंत्र विकसित और शिक्षित जनसंख्या वाले देशों में ही सफल हो सकता है भारत जैसे देश में नहीं। लेकिन 1952 के प्रथम आम चुनावों में उच्च मतदान प्रतिशत और निष्पक्ष मतदान प्रक्रिया ने आलोचकों को गलत साबित कर दिया।

4. पहले आम चुनाव का परिणाम:

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में 489 में से 364 सीटें जीतीं।

यह चुनाव दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक प्रयोग साबित हुआ, जिससे भारत ने गरीबी और अशिक्षा के बावजूद लोकतंत्र की संभावनाएँ सिद्ध कीं।

5. कांग्रेस का प्रभुत्व (1952-1962):

कांग्रेस ने 1952, 1957 और 1962 के पहले तीन आम चुनावों में लगातार तीन-चौथाई सीटें जीतीं।

हालांकि कांग्रेस को कुल मतों का केवल 45% मिला, लेकिन "फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट" प्रणाली के कारण इसे अधिक सीटें मिलीं।

विपक्षी दल बिखरे हुए थे, जिससे कांग्रेस को स्पष्ट बढ़त मिली।

कुछ अपवादों, जैसे 1957 में केरल में कम्युनिस्ट सरकार के गठन, को छोड़कर कांग्रेस का राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर नियंत्रण रहा।

6. वैश्विक महत्व:

भारत ने लोकतंत्र को गरीबी और अशिक्षा के बीच सफलतापूर्वक लागू कर यह सिद्ध किया कि लोकतंत्र किसी भी परिस्थिति में संभव है।

यह प्रयोग दुनिया भर के लिए प्रेरणा बन गया।

  • कांग्रेस के प्रभुत्व का स्वरूप

1. विश्व स्तर पर तुलना

भारत में कांग्रेस का प्रभुत्व लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत हुआ, जबकि कई देशों में एकदलीय प्रभुत्व तानाशाही या सेना के हस्तक्षेप से सुनिश्चित किया गया।

चीन, क्यूबा और सीरिया जैसे देशों में संविधान ने एक ही पार्टी के शासन की अनुमति दी, जबकि म्यांमार, बेलारूस और मिस्र जैसे देश कानूनी और सैन्य तरीकों से एकदलीय शासन बने।

भारत में, कांग्रेस ने स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों के माध्यम से लगातार जीत हासिल की।

2. स्वतंत्रता संग्राम की विरासत

कांग्रेस को राष्ट्रीय आंदोलन की विरासत के रूप में देखा गया।

स्वतंत्रता संग्राम में अग्रणी भूमिका निभाने वाले नेता अब कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ रहे थे।

पार्टी का संगठनात्मक ढांचा देश के हर कोने तक फैला हुआ था।

3. सामाजिक और वैचारिक गठबंधन के रूप में कांग्रेस

1885 में एक छोटे से समूह के रूप में शुरू हुई कांग्रेस धीरे-धीरे एक जन आंदोलन और फिर एक व्यापक राजनीतिक दल में बदल गई।

कांग्रेस ने विभिन्न सामाजिक और आर्थिक वर्गों जैसे किसानों, उद्योगपतियों, शहरी और ग्रामीण आबादी, उच्च और निम्न वर्गों को साथ लाकर एक "इंद्रधनुष जैसे सामाजिक गठबंधन" का निर्माण किया।

इसमें वैचारिक विविधता थी, जैसे क्रांतिकारी, शांतिवादी, रूढ़िवादी, उदारवादी, और वामपंथी दक्षिणपंथी सभी विचारधाराओं के लोग इससे जुड़े थे इसीलिए कांग्रेस को अम्रेला पार्टी के रूप में भी जाना जाता है।

4. गुटों की सहनशीलता और प्रबंधन

कांग्रेस के गठबंधनात्मक स्वरूप ने इसे विभिन्न गुटों और विचारों को समायोजित करने में सक्षम बनाया।

गुटबंदी को कमजोरी के बजाय ताकत के रूप में देखा गया क्योंकि इससे पार्टी के भीतर प्रतिस्पर्धा बनी रहती थी।

अधिकांश राज्य इकाइयाँ विभिन्न गुटों से बनी थीं, जिससे कांग्रेस एक "मध्यपंथी पार्टी" के रूप में उभरी।

विपक्षी दलों का प्रभाव कांग्रेस के गुटों पर पड़ता था, जो अप्रत्यक्ष रूप से नीतियों को प्रभावित करते थे।

5. विपक्षी दलों का उदय

1950 के दशक में विपक्षी दलों की उपस्थिति सीमित थी, लेकिन उन्होंने लोकतांत्रिक व्यवस्था को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

विपक्षी दलों ने कांग्रेस की नीतियों और कार्यों की सैद्धांतिक आलोचना की, जिससे सत्ता के संतुलन पर प्रभाव पड़ा।

ये दल लोकतांत्रिक विकल्पों को जीवित रखते हुए, असंतोष को तानाशाही में बदलने से रोकने में सहायक रहे।

6. कांग्रेस प्रणाली का अंत

स्वतंत्रता संग्राम के कारण कांग्रेस को शुरुआती बढ़त मिली, लेकिन समय के साथ इसकी समायोजित करने की क्षमता कम होने लगी।

जैसे-जैसे कांग्रेस के भीतर विभिन्न समूहों और हितों को समायोजित करना कठिन हुआ, अन्य दलों का महत्व बढ़ने लगा।

कांग्रेस का प्रभुत्व भारतीय राजनीति का एक चरण था, जो धीरे-धीरे कमजोर हुआ।

निष्कर्ष

कांग्रेस का प्रभुत्व स्वतंत्रता संग्राम की व्यापकता, सामाजिक और वैचारिक विविधता, और गुटों को समायोजित करने की क्षमता पर आधारित था। यह भारत की लोकतांत्रिक प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण चरण था, जिसने अन्य राजनीतिक दलों के विकास का मार्ग प्रशस्त किया।


  • प्रमुख राजनीतिक दल व उनकी विचारधारा


1 - भारतीय जन संघ

भारतीय जन संघ का गठन 1951 में हुआ था, और इसका मुख्य उद्देश्य भारतीय संस्कृति और परंपराओं के आधार पर एक मजबूत, आधुनिक और प्रगतिशील भारत का निर्माण करना था। इसके गठन के पीछे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) और हिंदू महासभा की विचारधारा की स्पष्ट छाप दिखाई देती है। यह पार्टी अन्य दलों से इस मायने में अलग थी कि इसका जोर "एक देश, एक संस्कृति, एक राष्ट्र" की विचारधारा पर था।

विचारधारा और प्राथमिकताएँ:

1. अखंड भारत: पार्टी ने भारत और पाकिस्तान के पुनः एकीकरण (अखंड भारत) की कल्पना की। यह विभाजन के दर्द को मिटाने और सांस्कृतिक एकता को पुनः स्थापित करने की उनकी सोच को दर्शाता है।

2. भाषा नीति: जन संघ ने हिंदी को राष्ट्रीय और आधिकारिक भाषा बनाने का समर्थन किया और अंग्रेज़ी को हटाने की माँग की। इससे स्पष्ट है कि पार्टी भारतीय भाषाओं और संस्कृति को प्राथमिकता देना चाहती थी।

3. अल्पसंख्यकों के प्रति रुख: पार्टी ने धार्मिक और सांस्कृतिक अल्पसंख्यकों को दी जाने वाली रियायतों का विरोध किया। यह उनके "एक संस्कृति" के विचार से प्रेरित था।

4. परमाणु हथियारों का समर्थन: 1964 में चीन के परमाणु परीक्षणों के बाद, पार्टी ने भारत को भी परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र बनाने की जोरदार वकालत की। यह उनकी सुरक्षा और संप्रभुता को प्राथमिकता देने की नीति को दर्शाता है।

चुनावी प्रदर्शन और आधार:

जन संघ का शुरुआती प्रदर्शन चुनावों में बहुत कमजोर रहा। 1952 और 1957 के लोकसभा चुनावों में इसे क्रमशः 3 और 4 सीटें ही मिलीं। इसका समर्थन मुख्यतः हिंदी भाषी राज्यों के शहरी क्षेत्रों तक सीमित था, जैसे राजस्थान, मध्य प्रदेश, दिल्ली और उत्तर प्रदेश।

नेतृत्व:

पार्टी के प्रमुख नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल उपाध्याय और बलराज मधोक थे। इनमें से श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने पार्टी की नींव रखी और एक मजबूत वैचारिक ढांचा तैयार किया। दीनदयाल उपाध्याय ने "एकात्म मानववाद" का सिद्धांत देकर पार्टी की विचारधारा को मजबूत किया।

महत्व और प्रभाव:

भले ही जन संघ का शुरुआती प्रभाव सीमित रहा हो, लेकिन इसने अपनी विचारधारा के आधार पर भारतीय राजनीति में एक मजबूत वैचारिक धारा स्थापित की। यह पार्टी बाद में भारतीय जनता पार्टी (BJP) के रूप में विकसित हुई, जो आज भारत की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी है।

आलोचना:

1. पार्टी पर सांप्रदायिक राजनीति को बढ़ावा देने का आरोप लगता रहा है, क्योंकि इसका झुकाव हिंदूवादी विचारधारा की ओर था।

2. अल्पसंख्यकों के लिए रियायतों का विरोध और "एक संस्कृति" की बात ने इसकी समावेशी छवि को प्रभावित किया।

निष्कर्ष:

भारतीय जन संघ ने भारतीय राजनीति में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की एक नई धारा शुरू की। इसके विचार और नीतियाँ अपने समय से आगे थीं, लेकिन सीमित समर्थन के कारण यह शुरुआती वर्षों में बड़ा प्रभाव नहीं डाल सकी। इसके बावजूद, यह भारतीय जनता पार्टी के रूप में एक प्रभावशाली राजनीतिक ताकत के रूप में उभरी, जिसने भारतीय राजनीति को गहराई से प्रभावित किया।

2- भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी

1920 के दशक में भारत में कम्युनिस्ट समूहों का उदय हुआ, जो रूस की बोल्शेविक क्रांति से प्रेरित थे और देश की समस्याओं का हल समाजवाद में देखते थे। 1935 से कम्युनिस्ट भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अंदर सक्रिय थे, लेकिन दिसंबर 1941 में, जब कम्युनिस्टों ने ब्रिटिश साम्राज्य का साथ दिया और नाज़ी जर्मनी के खिलाफ युद्ध में सहयोग किया, तो उनका कांग्रेस से रास्ता अलग हो गया।

स्वतंत्रता के बाद पार्टी का दृष्टिकोण:

भारत की स्वतंत्रता के बाद कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर एक बड़ा सवाल खड़ा हुआ – क्या भारत सचमुच स्वतंत्र है, या यह स्वतंत्रता एक धोखा है? पार्टी ने यह मानना शुरू किया कि 1947 में सत्ता का हस्तांतरण असली स्वतंत्रता नहीं था, और उसने तेलंगाना में हिंसक विद्रोहों को बढ़ावा दिया। हालांकि, इस संघर्ष को आम जनता का समर्थन नहीं मिला और भारतीय सशस्त्र बलों ने इसे दबा दिया। यह हार पार्टी के लिए एक मोड़ था, जिसने उसके नेतृत्व को पुनः विचार करने पर मजबूर किया।

शांतिपूर्ण राजनीतिक संघर्ष की ओर रुझान:

1951 में, कम्युनिस्ट पार्टी ने हिंसक क्रांति के रास्ते को छोड़ दिया और आम चुनावों में भाग लेने का निर्णय लिया। पहले आम चुनाव में पार्टी ने 16 सीटें जीतीं और विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी बन गई। पार्टी का समर्थन मुख्य रूप से आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार और केरल में था। इसमें प्रमुख नेता ए. के. गोपालन, एस. ए. डांगे, ई. एम. एस. नम्बूदिरिपाद, पी. सी. जोशी, अजय घोष और पी. सुंदरेय्या थे।

आंतरदलीय विभाजन और 1964 का संघर्ष:

1964 में पार्टी में एक बड़ा विभाजन हुआ जब सोवियत संघ और चीन के बीच वैचारिक मतभेद उभरने लगे। सोवियत समर्थक गुट ने कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (CPI) का रूप लिया, जबकि चीन के समर्थक गुट ने कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी) (CPI-M) का गठन किया। यह विभाजन आज भी मौजूद है, और दोनों दल भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।

विश्लेषण:

1. कम्युनिस्टों का संघर्ष: पार्टी का इतिहास भारत में कम्युनिस्ट विचारधारा के प्रसार के संघर्ष को दर्शाता है। स्वतंत्रता संग्राम के बाद, पार्टी ने भारतीय स्वतंत्रता के वास्तविकता पर सवाल उठाए, जो उनके लिए एक निर्णायक मोड़ था। तेलंगाना में हुई हिंसक संघर्ष की असफलता ने पार्टी को शांतिपूर्ण राजनीतिक संघर्ष की दिशा में कदम बढ़ाने को प्रेरित किया।

2. वैचारिक विभाजन: सोवियत संघ और चीन के बीच वैचारिक मतभेदों ने पार्टी में बड़ा विभाजन उत्पन्न किया, जो बाद में CPI और CPI(M) के रूप में दो अलग-अलग दलों के रूप में उभरा। इस विभाजन ने पार्टी की एकता को कमजोर किया, लेकिन दोनों ही दलों ने भारतीय राजनीति में अपने-अपने प्रभाव को बनाए रखा।

3. समर्थन का क्षेत्र: कम्युनिस्टों का समर्थन मुख्य रूप से दक्षिण और पूर्वी भारत के राज्यों में था, विशेष रूप से केरल, पश्चिम बंगाल, बिहार और आंध्र प्रदेश में। इन क्षेत्रों में पार्टी ने जनता से मजबूत समर्थन प्राप्त किया, खासकर श्रमिकों, किसानों और निम्न वर्ग के बीच।

4. धारा का परिवर्तन: हिंसक क्रांति से शांतिपूर्ण चुनावी राजनीति की ओर रुझान, पार्टी के लिए एक महत्वपूर्ण रणनीतिक बदलाव था। इससे पार्टी ने अपनी विचारधारा को स्थिर किया और भारतीय लोकतंत्र के भीतर अपनी पहचान बनाई।

निष्कर्ष:

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का इतिहास संघर्ष, विचारधारा और आंतरिक विभाजन का इतिहास रहा है। स्वतंत्रता के बाद उसके दृष्टिकोण में बदलाव आया और हिंसक संघर्षों से शांतिपूर्ण चुनावी राजनीति की ओर रुख किया। 1964 में वैचारिक मतभेदों के कारण विभाजन ने पार्टी को दो धड़ों में बांट दिया, जो आज भी भारतीय राजनीति में सक्रिय हैं।


3- सोशलिस्ट पार्टी

सोशलिस्ट पार्टी (Socialist Party) का उदय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के भीतर से हुआ था, खासकर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी (CSP) के रूप में, जिसे 1934 में युवा नेताओं के एक समूह ने स्थापित किया था। ये नेता कांग्रेस में एक अधिक क्रांतिकारी और समानतावादी विचारधारा को लाना चाहते थे। स्वतंत्रता के बाद, 1948 में कांग्रेस ने अपने संविधान में संशोधन किया, जिससे पार्टी के सदस्य को दोहरी पार्टी सदस्यता रखने की अनुमति नहीं थी। इस बदलाव के कारण, सोशलिस्टों को एक अलग पार्टी बनाने की आवश्यकता महसूस हुई, और इस प्रकार 1948 में स्वतंत्र सोशलिस्ट पार्टी का गठन हुआ।

सोशलिस्ट पार्टी का विचारधारात्मक आधार:

सोशलिस्ट पार्टी का विचारधारात्मक आधार लोकतांत्रिक समाजवाद था, जो उसे कांग्रेस और कम्युनिस्टों से अलग करता था। समाजवादियों का मानना था कि कांग्रेस ने पूंजीपतियों और जमींदारों के पक्ष में कार्य किया है और श्रमिकों और किसानों की अनदेखी की है। उन्होंने कांग्रेस की नीतियों की आलोचना की, विशेषकर उसकी पूंजीपतियों और जमींदारों को समर्थन देने की प्रवृत्ति को। लेकिन, 1955 में कांग्रेस ने अपने उद्देश्य के रूप में समाजवादी समाज के निर्माण की बात की, जिससे समाजवादियों के लिए कांग्रेस को एक प्रभावी विकल्प के रूप में प्रस्तुत करना कठिन हो गया।

चुनावी प्रदर्शन और संघर्ष:

सोशलिस्ट पार्टी का चुनावी प्रदर्शन अपेक्षाकृत निराशाजनक था। पार्टी का भारत के विभिन्न राज्यों में मौजूदगी थी, लेकिन केवल कुछ ही क्षेत्रों में इसे सफलता मिली। यह दिखाता है कि समाजवादी पार्टी आम जनता से व्यापक समर्थन प्राप्त करने में सफल नहीं हो पाई, और कांग्रेस के समकक्ष एक प्रभावी विकल्प के रूप में उभरने में विफल रही।

विचारधारात्मक संकट और विभाजन:

सोशलिस्ट पार्टी को कांग्रेस के साथ सहयोग करने का या उससे दूरी बनाए रखने का संकट था। राममनोहर लोहिया जैसे नेता कांग्रेस से अपनी दूरी बढ़ाते गए और उसे कड़ी आलोचना करते रहे, जबकि कुछ अन्य नेताओं जैसे अशोक मेहता ने कांग्रेस के साथ सीमित सहयोग की बात की। इसके परिणामस्वरूप पार्टी में कई बार विभाजन और पुनर्मिलन हुए, और कई छोटे समाजवादी दलों का गठन हुआ, जैसे किसान मजदूर प्रजा पार्टी, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और सम्युक्त सोशलिस्ट पार्टी।

नेतृत्व और प्रमुख हस्तियाँ:

सोशलिस्ट पार्टी के प्रमुख नेता जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेंद्र देव, राममनोहर लोहिया, एस. एम. जोशी, अशोक मेहता और अच्युत पटवर्धन थे। इन नेताओं ने समाजवादी विचारधारा को भारतीय राजनीति में सक्रिय रूप से प्रस्तुत किया और भारतीय समाजवाद की दिशा को आकार दिया।

समाजवादी धारा का प्रभाव:

समाजवादी विचारधारा का भारतीय राजनीति पर गहरा प्रभाव पड़ा। समकालीन भारतीय राजनीति में कई प्रमुख दल, जैसे समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल (यूनाइटेड) और जनता दल (सेक्युलर) अपनी जड़ें सोशलिस्ट पार्टी से जोड़ते हैं। ये दल समाजवादी विचारधारा को अपने दृष्टिकोण का हिस्सा मानते हैं और इनका विकास सोशलिस्ट पार्टी के संघर्ष और विचारों पर आधारित है।

विश्लेषण:

1. विचारधारा की संघर्षशीलता: सोशलिस्ट पार्टी का विचारधारात्मक संकट उस समय के राजनीतिक परिदृश्य में स्पष्ट था। कांग्रेस ने समाजवादी लक्ष्यों को अपनाया, जिससे समाजवादियों के लिए कांग्रेस को चुनौती देना कठिन हो गया। इसके अलावा, पार्टी के भीतर के विभाजन और विविध दृष्टिकोणों ने उसे एकजुट होने से रोका।

2. चुनावी असफलता: सोशलिस्ट पार्टी के चुनावी प्रदर्शन में निराशा ने यह साबित किया कि जनता को कांग्रेस से विकल्प प्रदान करना समाजवादियों के लिए एक कठिन कार्य था। हालांकि, कुछ क्षेत्रों में सफलता मिली, लेकिन यह राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी के लिए चुनौती बनी रही।

3. नेताओं का योगदान: सोशलिस्ट नेताओं का भारतीय राजनीति में योगदान अमूल्य है। उनके विचार और संघर्षों ने भारतीय राजनीति को एक अलग दिशा दी, और उनके विचारों के प्रभाव आज भी कई राजनीतिक दलों में देखे जाते हैं।

निष्कर्ष:

सोशलिस्ट पार्टी का इतिहास भारतीय राजनीति में विचारधारा, संघर्ष और विभाजन का एक महत्वपूर्ण अध्याय है। पार्टी ने समाजवाद के सिद्धांतों के आधार पर भारतीय राजनीति में अपनी पहचान बनाने की कोशिश की, लेकिन कांग्रेस और कम्युनिस्टों के प्रभाव में वह एक मजबूत राजनीतिक ताकत के रूप में स्थापित नहीं हो पाई। इसके बावजूद, समाजवादी विचारधारा ने भारतीय राजनीति को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और आज भी कई प्रमुख दलों के रूप में उसका प्रभाव कायम है।


  • मतदान के बदलते तरीके

भारत में चुनावी प्रक्रिया और मतदान पद्धतियों में समय के साथ कई बदलाव आए हैं। इन बदलावों का उद्देश्य चुनावी प्रक्रिया को अधिक पारदर्शी, सटीक और त्वरित बनाना था। यहाँ, पहले सामान्य चुनावों से लेकर इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (EVM) के इस्तेमाल तक के बदलावों का विश्लेषण किया गया है:

प्रारंभिक मतदान पद्धति (पहले चुनाव):

भारत के पहले आम चुनाव में, मतदाताओं को एक खाली बैलेट पेपर दिया जाता था जिसे उन्हें अपने पसंदीदा उम्मीदवार के चुनाव चिह्न वाली पेटी में डालना होता था। इस प्रणाली में लगभग 20 लाख धातु की पेटियों का इस्तेमाल किया गया था, और प्रत्येक पेटी में उम्मीदवार का चुनाव चिह्न, नाम और अन्य जरूरी जानकारी दर्ज की जाती थी। चुनावी पेटियों को तैयार करने के लिए एक विशिष्ट प्रक्रिया थी, जिसमें उन्हें रेत या ईंट से रगड़ना, उम्मीदवार का नाम और चिह्न लगाना, और संबंधित दस्तावेज़ों को संलग्न करना शामिल था। यह प्रक्रिया काफी श्रमसाध्य और समय लेने वाली थी, जैसा कि एक पंजाब के मतदान अधिकारी ने वर्णन किया है, जिसने अपने घर पर यह कार्य करने में कई घंटे लगाए थे।

चुनाव प्रणाली में बदलाव (दूसरी और तीसरी आम चुनाव):

पहली दो चुनावों के बाद, मतदान पद्धति में बदलाव किया गया। अब, बैलेट पेपर पर सभी उम्मीदवारों के नाम और चुनाव चिह्न होते थे, और मतदाता को उस पर मोहर लगानी होती थी। इस प्रणाली ने मतदान की प्रक्रिया को थोड़ा सरल और व्यवस्थित किया, हालांकि फिर भी यह कागज और मैन्युअल श्रम पर निर्भर थी। यह प्रणाली लगभग 40 वर्षों तक चलती रही, यानी 1950 के दशक से लेकर 1990 के दशक के अंत तक।

इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (EVM) का आगमन:

1990 के दशक के अंत में, चुनाव आयोग ने इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों का प्रयोग शुरू किया। ईवीएम ने मतदान प्रक्रिया में एक क्रांतिकारी बदलाव लाया। यह न केवल समय की बचत करता था, बल्कि इसके द्वारा मानव त्रुटियों की संभावना को भी कम किया गया। 2004 तक, पूरे देश में ईवीएम का इस्तेमाल शुरू हो चुका था, जिससे चुनावों की गति, सुरक्षा और पारदर्शिता में सुधार हुआ।

विश्लेषण:

1. समय और संसाधनों की बचत: पहले के मतदान पद्धतियों में जहां 20 लाख धातु की पेटियों का इस्तेमाल होता था और उनमें चुनाव चिह्नों को लगाना, साथ ही पेपर बैलेट्स को संभालना बहुत श्रमसाध्य था, वहीं ईवीएम ने इस प्रक्रिया को स्वचालित और तेज बना दिया है। इससे न केवल समय की बचत हुई, बल्कि चुनावों के आयोजन में भी संसाधनों की बचत हुई।

2. पारदर्शिता और सटीकता: मैन्युअल बैलेट प्रक्रिया में कभी-कभी गड़बड़ियां या गलतियों की संभावना होती थी। उदाहरण के लिए, बैलेट बॉक्स में वोटों की गिनती में त्रुटियां हो सकती थीं। ईवीएम ने इस समस्या को हल किया, क्योंकि वोटिंग और गिनती की प्रक्रिया पूरी तरह से स्वचालित होती है, जिससे पारदर्शिता और सटीकता में वृद्धि हुई।

3. मानव संसाधन की आवश्यकता में कमी: पहले की प्रक्रिया में चुनाव सामग्री को तैयार करने, बैलेट बॉक्स को संभालने, और गिनती में बड़ी संख्या में चुनाव अधिकारियों की आवश्यकता थी। ईवीएम के आने से यह निर्भरता कम हो गई, और अब मतदान प्रक्रिया अधिक स्वचालित हो गई है।

4. कठिनाई और विरोध: हालांकि ईवीएम के प्रयोग से कई फायदे हुए हैं, लेकिन शुरुआत में इसके प्रति कुछ विरोध भी था। कुछ दलों ने इसका विरोध किया और इसे तकनीकी रूप से चुनौतीपूर्ण माना। लेकिन समय के साथ, यह पद्धति व्यापक रूप से स्वीकार की गई और भारत के चुनावी तंत्र का एक अभिन्न हिस्सा बन गई।

निष्कर्ष:

चुनाव प्रक्रिया में बदलाव ने भारतीय लोकतंत्र को अधिक आधुनिक और सशक्त बनाया है। पहले के श्रमसाध्य और मैन्युअल तरीकों से लेकर ईवीएम के प्रयोग तक का सफर यह दर्शाता है कि चुनावी प्रक्रिया में समय, संसाधन और पारदर्शिता के मामले में सुधार हुआ है। ईवीएम ने चुनावी प्रक्रिया को न केवल सरल किया, बल्कि चुनाव परिणामों की जल्दी और सही गिनती भी सुनिश्चित की।


  • केरल में कम्युनिस्टों की जीत

1957 में केरल में हुए विधानसभा चुनावों में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI) ने ऐतिहासिक जीत हासिल की, जिससे कांग्रेस पार्टी को पहली बार हार का सामना करना पड़ा। यह घटना भारतीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण मोड़ थी, क्योंकि इसने लोकतांत्रिक चुनावों के जरिए कम्युनिस्ट सरकार के गठन की शुरुआत की।

विजय का इतिहास और महत्व:

1957 के चुनाव में CPI ने 126 सीटों में से 60 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने में सफलता प्राप्त की, और पांच स्वतंत्र विधायकों का समर्थन प्राप्त किया। इस चुनावी जीत के साथ, E.M.S. नम्बूदिरीपाद, जो CPI के विधायक दल के नेता थे, को केरल राज्य का मुख्यमंत्री बनने का आमंत्रण मिला। यह पहली बार था जब किसी कम्युनिस्ट पार्टी ने लोकतांत्रिक चुनावों के माध्यम से सरकार बनाई, और यह एक ऐतिहासिक घटना थी, जो पूरी दुनिया में एक उदाहरण के रूप में देखी गई।

सांविधानिक संकट और कांग्रेस का विरोध:

जब CPI ने सत्ता संभाली, तो पार्टी ने कई क्रांतिकारी और प्रगति-उन्मुख नीतियाँ अपनाने का वादा किया था। इसका उद्देश्य केरल में सामाजिक और आर्थिक सुधार लाना था। लेकिन कांग्रेस पार्टी के लिए यह हार बेहद कड़वी थी, और उसने इस नतीजे को स्वीकार नहीं किया। कांग्रेस ने "लिबरेशन स्ट्रगल" नामक आंदोलन की शुरुआत की, जो इस लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकार के खिलाफ था। कांग्रेस और अन्य विरोधी दलों ने आरोप लगाया कि कम्युनिस्ट सरकार के कदमों से राज्य में अस्थिरता आ सकती है।

संविधानिक आपातकाल और सरकार का बर्खास्तगी:

1959 में, केंद्रीय कांग्रेस सरकार ने केरल में कम्युनिस्ट सरकार को संविधान के अनुच्छेद 356 के तहत बर्खास्त कर दिया, जो राष्ट्रपति शासन की घोषणा करने का प्रावधान देता है। यह कदम विवादास्पद था और इसे संविधान के आपातकालीन शक्तियों का दुरुपयोग माना गया। यह पहला उदाहरण था जब संविधान के इस प्रावधान का इस्तेमाल लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकार को हटाने के लिए किया गया। इस कदम ने केंद्र-राज्य संबंधों और संघीय संरचना पर गंभीर सवाल उठाए, और यह राजनीतिक इतिहास में एक विवादास्पद मुद्दा बन गया।

विश्लेषण:

1. लोकतांत्रिक प्रक्रिया में संकट: यह घटना भारतीय राजनीति में लोकतांत्रिक प्रक्रिया की स्थिरता और उसे चुनौतियों से निपटने की क्षमता पर सवाल उठाती है। एक ओर जहां कम्युनिस्ट सरकार ने लोकतांत्रिक चुनावों में जीत हासिल की, वहीं दूसरी ओर केंद्र सरकार द्वारा संविधान के आपातकालीन प्रावधान का इस्तेमाल इसे असंवैधानिक रूप से हटाने के लिए किया गया। यह स्पष्ट करता है कि लोकतंत्र के अंदर भी सत्ता के संघर्ष के दौरान संवैधानिक प्रक्रियाओं का दुरुपयोग हो सकता है।

2. राजनीतिक विरोध और नीतिगत संघर्ष: कांग्रेस के विरोध के कारण राज्य में राजनीतिक अस्थिरता का माहौल बन गया। कम्युनिस्ट पार्टी का दावा था कि यह संघर्ष विशेष रूप से धार्मिक संगठनों और हितों के दलों द्वारा प्रायोजित था, जो अपने स्वार्थों की रक्षा करना चाहते थे। यह दर्शाता है कि जब कोई पार्टी कट्टर सामाजिक-आर्थिक बदलाव की दिशा में कदम बढ़ाती है, तो उसे शक्तिशाली विरोध का सामना करना पड़ता है, खासकर जब वह धार्मिक और सांस्कृतिक हितों से टकराती है।

3. संविधान और संघीय ढांचे का मुद्दा: केरल सरकार की बर्खास्तगी ने संविधान के अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग का मुद्दा उठाया। यह भारतीय संघीय ढांचे के लिए एक गंभीर चुनौती था, क्योंकि इसे केंद्र सरकार के हस्तक्षेप के रूप में देखा गया, जो राज्य सरकार की स्वायत्तता का उल्लंघन करता था।

निष्कर्ष:

केरल में 1957 में कम्युनिस्ट पार्टी की जीत और बाद में उसकी बर्खास्तगी ने भारतीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण मोड़ लाया। यह घटना भारतीय लोकतंत्र, संघीय ढांचे और संविधानिक शक्तियों के उपयोग के संदर्भ में आज भी चर्चा का विषय बनी हुई है। इसने यह स्पष्ट किया कि जब सत्ता में परिवर्तन होता है, तो यह न केवल राजनीतिक दलों के लिए बल्कि लोकतांत्रिक संस्थाओं और संवैधानिक प्रावधानों के लिए भी महत्वपूर्ण प्रभाव डालता है।


  • महत्वपूर्ण व्यक्तित्व


निम्नलिखित सूची भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महान नेताओं और उनके योगदानों का विस्तृत परिचय देती है। यहाँ पर कुछ प्रमुख व्यक्तित्वों का संक्षिप्त विश्लेषण किया गया है:

1. Maulana Abul Kalam Azad:

उनका असली नाम "Abul Kalam Mohiyuddin Ahmed" था। वे एक विद्वान, स्वतंत्रता सेनानी, और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेता थे।

उन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता का समर्थन किया और विभाजन के विरोध में थे।

वे स्वतंत्र भारत के पहले शिक्षा मंत्री बने और भारतीय संविधान निर्माण में भी सक्रिय भागीदार थे।

2. Rajkumari Amrit Kaur:

राजकुमारी अमृत कौर एक गांधीवादी स्वतंत्रता सेनानी थीं और कपूरथला के रॉयल परिवार से थीं।

वे स्वतंत्रता संग्राम के दौरान महत्वपूर्ण भूमिका में थीं और स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद स्वास्थ्य मंत्री बनीं।

उन्होंने स्वास्थ्य और सार्वजनिक कल्याण के क्षेत्र में कई सुधार किए।

3. Acharya Narendra Dev:

वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एक प्रमुख नेता और कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापक थे।

उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया और किसानों के आंदोलन में सक्रिय रूप से शामिल हुए।

वे बौद्ध धर्म के विद्वान थे और भारतीय समाज में सामाजिक न्याय की विचारधारा को बढ़ावा देने के पक्षधर थे।

4. Dr. B.R. Ambedkar:

डॉ. भीमराव अंबेडकर एक महान नेता थे जिन्होंने भारतीय समाज में जातिवाद के खिलाफ संघर्ष किया।

वे भारतीय संविधान के प्रमुख निर्माता थे और संविधान निर्माण के दौरान उनका योगदान महत्वपूर्ण था।

उन्होंने भारतीय दलितों के अधिकारों की रक्षा के लिए कई आंदोलन किए और 1956 में बौद्ध धर्म को अपनाया।

5. Rafi Ahmed Kidwai:

रफ़ी अहमद किदवई भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता थे और स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

उन्होंने भारतीय सरकार में संचार मंत्री और खाद्य एवं कृषि मंत्री के रूप में सेवा की।

6. A.K. Gopalan:

वे एक कम्युनिस्ट नेता थे जिन्होंने कांग्रेस के साथ शुरुआत की, लेकिन बाद में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI) और फिर CPI(M) से जुड़ गए।

वे संसद के एक प्रमुख सदस्य रहे और मजदूरों और किसानों के अधिकारों के लिए सक्रिय रूप से काम किया।

7. Deen Dayal Upadhyaya:

वे भारतीय जनता पार्टी के संस्थापक सदस्य थे और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के पूर्णकालिक कार्यकर्ता रहे।

उन्होंने 'इंटीग्रल ह्यूमनिज़म' (Integral Humanism) का सिद्धांत प्रस्तुत किया, जो भारतीय राजनीति और समाज के लिए एक वैकल्पिक दृष्टिकोण था।

8. Shyama Prasad Mukherjee:

वे भारतीय हिंदू महासभा के नेता थे और बाद में भारतीय जनसंघ के संस्थापक सदस्य बने।

वे जम्मू और कश्मीर के स्वायत्तता के खिलाफ थे और अपनी नीतियों को लेकर नेहरू सरकार से मतभेद रखते हुए 1950 में कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया।

इन व्यक्तित्वों का भारतीय राजनीति, समाज और संस्कृति पर गहरा प्रभाव था। उनके योगदानों ने स्वतंत्रता संग्राम के साथ-साथ स्वतंत्र भारत के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।


अध्याय - 2.3 : नियोजित विकास की राजनीति


यहाँ प्रस्तुत मुद्दों और विकास की योजनाओं का विश्लेषण निम्नलिखित बिंदुओं पर आधारित है:

  •  ओडिशा में इस्पात उद्योग से जुड़े हित और विवाद:

विभिन्न हितधारक:

राज्य सरकार: आर्थिक निवेश, रोजगार सृजन और राजस्व बढ़ाने के लिए उत्सुक है।

आदिवासी समुदाय: विस्थापन और आजीविका के नुकसान का डर है।

पर्यावरणविद: पर्यावरणीय प्रदूषण और प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की चिंता है।

केंद्र सरकार: औद्योगिकीकरण को राष्ट्रीय निवेश आकर्षण के लिए आवश्यक मानती है।

उद्योगपति: लाभ के लिए उद्योग स्थापित करना चाहते हैं।

मुख्य विवाद:

विस्थापन बनाम विकास: आदिवासियों के पारंपरिक जीवन और आजीविका पर खतरे का डर।

पर्यावरणीय संरक्षण बनाम औद्योगिक प्रगति: खनन और इस्पात उद्योग के पर्यावरणीय प्रभाव।

स्थानीय बनाम राष्ट्रीय प्राथमिकताएँ: स्थानीय लोगों की जरूरतों को दरकिनार कर राष्ट्रीय स्तर पर निवेश को बढ़ावा देना।

समाधान की संभावना:

सामान्य सहमति: रोजगार के साथ-साथ स्थानीय समुदाय के पुनर्वास और पर्यावरणीय सुरक्षा सुनिश्चित करना।

मध्य मार्ग: खनन और उद्योग को पर्यावरण-अनुकूल तकनीकों के साथ लागू करना, और विस्थापित आदिवासियों को उचित मुआवजा व वैकल्पिक आवास प्रदान करना।

  •  विकास के विचार और अर्थ:

विकास का अर्थ हर समूह के लिए भिन्न हो सकता है:

औद्योगिक दृष्टिकोण: आर्थिक वृद्धि और उद्योगों का विस्तार।

स्थानीय दृष्टिकोण: जीवन और आजीविका की सुरक्षा।

पर्यावरणीय दृष्टिकोण: प्राकृतिक संसाधनों का सतत उपयोग।


ऐतिहासिक संदर्भ:

आजादी के बाद विकास को पश्चिमी मॉडल (पूंजीवादी या समाजवादी) के आधार पर देखा गया।

पूंजीवादी मॉडल: उदारीकरण और निजीकरण पर जोर।

समाजवादी मॉडल: सार्वजनिक क्षेत्र और सरकारी योजना को प्राथमिकता।


  • भारत में नियोजित विकास और विवाद:

पंचवर्षीय योजनाओं की मुख्य विशेषताएँ:

पहली पंचवर्षीय योजना (1951-56): कृषि और सिंचाई पर ध्यान केंद्रित किया गया। भूमि-सुधार प्राथमिकता में रहा। इसके योजनाकार के एन राज थे।

दूसरी पंचवर्षीय योजना (1956-61): भारी उद्योगों और सार्वजनिक क्षेत्र में निवेश को प्राथमिकता दी गई। इसे "महान संरचनात्मक परिवर्तन" का समय माना गया। इसके योजनाकार पी सी महालनोबिस थे।

तीसरी पंचवर्षीय योजना: उद्योग और कृषि के बीच संतुलन की कोशिश, लेकिन आलोचना यह रही कि "शहरी पक्षपात" हावी रहा।


प्रमुख चुनौतियाँ:

कृषि और उद्योग के बीच संसाधन आवंटन।

विदेशी तकनीकी पर निर्भरता।

ग्रामीण और शहरी असमानता का बढ़ना।


  •  राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव:

विकास का हर निर्णय राजनीतिक निर्णय होता है, जिसमें विभिन्न हितों का संतुलन बनाना होता है।

लोकतंत्र में ऐसे निर्णय व्यापक जनभागीदारी और संवाद के माध्यम से लेने चाहिए।

भारत में, स्वतंत्रता के बाद, विकास का मॉडल "सामाजिक और आर्थिक न्याय" के सिद्धांत पर आधारित रहा।


  • आगे का रास्ता:

स्थानीय समुदायों को शामिल करना: नीतियों में आदिवासियों और पर्यावरणविदों की भागीदारी सुनिश्चित करना।

संतुलित दृष्टिकोण: उद्योग और पर्यावरणीय संरक्षण के बीच संतुलन बनाना।

स्थायी विकास: वर्तमान और भविष्य की पीढ़ियों की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए प्राकृतिक संसाधनों का सतत उपयोग करना।

निष्कर्ष: ओडिशा और भारत के विकास से जुड़े सवाल केवल आर्थिक निर्णय नहीं हैं; ये राजनीतिक और सामाजिक दृष्टिकोण से जुड़े हैं। हर हितधारक को ध्यान में रखकर सामूहिक निर्णय लेना लोकतंत्र की सही मिसाल होगी।


अध्याय 2.4 : भारत के विदेश विदेश संबंध


भारत की विदेश नीति का विश्लेषण करने पर हम देख सकते हैं कि यह नीति स्वतंत्रता के बाद के वैश्विक परिप्रेक्ष्य और आंतरिक चुनौतियों के बीच संतुलन साधने की कोशिश करती थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारत को एक ऐसे अंतरराष्ट्रीय माहौल में अपनी विदेश नीति निर्धारित करनी थी, जहां विश्व युद्ध की तबाही के बाद पुनर्निर्माण की प्रक्रिया चल रही थी और नए स्वतंत्र देशों का उदय हो रहा था। भारत को ब्रिटिश शासन से कई अंतरराष्ट्रीय विवादों का सामना करना पड़ा था, और विभाजन ने अपनी अलग समस्याएँ उत्पन्न की थीं। इसके अलावा, गरीबी उन्मूलन का कार्य भी प्राथमिकता में था।

भारत की विदेश नीति के मुख्य सिद्धांत

भारत की विदेश नीति का मुख्य उद्देश्य संप्रभुता का सम्मान करना और शांति के माध्यम से सुरक्षा प्राप्त करना था। यह उद्देश्य राज्य नीति के निदेशक सिद्धांतों में भी परिलक्षित होता है। स्वतंत्र भारत का विदेश नीति इस विचार पर आधारित था कि अन्य देशों की संप्रभुता का सम्मान किया जाए और वैश्विक शांति बनाए रखी जाए। इसके तहत भारत ने असंलग्नता की नीति (Non-Alignment Policy) अपनाई, जिससे भारत दोनों प्रमुख शीत युद्ध के खेमों से दूर रहने का प्रयास कर रहा था।

असंलग्नता की नीति (Non-Alignment)

भारत ने शीत युद्ध के दौरान अमेरिका और सोवियत संघ के खेमों से खुद को अलग रखा। यह नीति न केवल युद्ध से बचने के लिए थी, बल्कि इसका उद्देश्य विकासशील देशों के लिए एक मंच तैयार करना भी था, ताकि वे अपने मामलों में स्वतंत्र रूप से निर्णय ले सकें। नेहरू के नेतृत्व में भारत ने अफ्रीका और एशिया के स्वतंत्र देशों के साथ सहयोग बढ़ाया और उनके संघर्षों का समर्थन किया।

नेहरू का योगदान

पंडित नेहरू ने स्वतंत्र भारत की विदेश नीति का सूत्रपात किया। वे प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री दोनों थे, जिससे उनकी विदेश नीति पर गहरी छाप पड़ी। नेहरू की विदेश नीति का मुख्य उद्देश्य भारत की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता की रक्षा करना, और आर्थिक विकास को बढ़ावा देना था। इसके लिए उन्होंने असंलग्नता या गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाई। हालांकि, भारत में कुछ दल और नेता ऐसे थे जो चाहते थे कि भारत अमेरिकी खेमे से जुड़कर लोकतंत्र की रक्षा करे, लेकिन नेहरू ने अपनी स्वतंत्र विदेश नीति को बनाए रखा।

चीन के साथ भारत के रिश्ते

चीन के साथ भारत का प्रारंभिक संबंध मित्रवत था। 1949 में चीनी क्रांति के बाद भारत ने सबसे पहले चीन की कम्युनिस्ट सरकार को मान्यता दी। दोनों देशों के बीच पंचशील (Five Principles of Peaceful Coexistence) की घोषणा 1954 में हुई, जो उनके अच्छे रिश्तों का प्रतीक था। हालांकि, 1962 में सीमा विवाद के कारण इन रिश्तों में खटास आई और भारत-चीन युद्ध हुआ, जिसने भारत की विदेश नीति में चीन के प्रति संकोच बढ़ा दिया।

आफ्रिकी-एशियाई एकता और बांदुंग सम्मेलन

नेहरू के नेतृत्व में भारत ने एशिया और अफ्रीका के नए स्वतंत्र देशों के साथ संबंध मजबूत करने का प्रयास किया। 1955 में बांदुंग सम्मेलन (Bandung Conference) का आयोजन किया गया, जो एशिया और अफ्रीका के देशों के बीच एकता को बढ़ावा देने वाला महत्वपूर्ण कदम था। यह सम्मेलन भारत के नेतृत्व में हुआ और इसके परिणामस्वरूप गुटनिरपेक्ष आंदोलन की नींव रखी गई।

भारत की विदेश नीति की चुनौतियाँ और विरोधाभास

भारत की विदेश नीति में कई विरोधाभास भी थे। उदाहरण के लिए, 1956 में जब ब्रिटेन ने स्वेज नहर विवाद पर मिस्र पर हमला किया, तो भारत ने इसका विरोध किया, लेकिन उसी वर्ष जब सोवियत संघ ने हंगरी पर आक्रमण किया, तब भारत ने सोवियत संघ की आलोचना नहीं की। इसके बावजूद, भारत ने अपनी स्वतंत्र विदेश नीति बनाए रखी और दोनों सुपरपावरों से सहायता प्राप्त करने में सफल रहा।

निष्कर्ष

भारत की विदेश नीति, विशेष रूप से नेहरू के नेतृत्व में, शांति, संप्रभुता, और विकास के सिद्धांतों पर आधारित थी। गुटनिरपेक्षता, शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व, और आफ्रिकी-एशियाई एकता के विचार ने भारत को वैश्विक मंच पर एक स्वतंत्र भूमिका निभाने की अनुमति दी। हालांकि, शीत युद्ध की वास्तविकताओं, आर्थिक निर्भरता, और क्षेत्रीय विवादों ने भारत की विदेश नीति को चुनौती दी। फिर भी, भारत ने एक संतुलित दृष्टिकोण अपनाते हुए वैश्विक शांति और विकास में योगदान दिया।


1962 का चीन-भारत युद्ध: एक विश्लेषण

चीन-भारत संबंधों में 1962 का युद्ध एक महत्वपूर्ण मोड़ था। इस युद्ध के प्रमुख कारण और घटनाएँ भारत के लिए गंभीर राजनीतिक, रणनीतिक और राष्ट्रीय समस्याएँ लेकर आईं। चीन और भारत के बीच यह संघर्ष सीमा विवाद, तिब्बत पर चीन के कब्जे और दोनों देशों के बीच तनावपूर्ण राजनीतिक वातावरण के परिणामस्वरूप हुआ।

चीन का तिब्बत पर कब्जा और भारत की प्रतिक्रिया

1950 में चीन ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया, जिससे भारत और चीन के बीच एक ऐतिहासिक बफर जोन समाप्त हो गया। भारत ने शुरू में तिब्बत पर चीन के कब्जे का विरोध नहीं किया, लेकिन जैसे-जैसे तिब्बत की सांस्कृतिक स्थिति और दलाई लामा की शरण के बारे में जानकारी बढ़ी, भारत में असुविधा बढ़ने लगी। 1959 में दलाई लामा ने भारत में शरण ली, जिससे भारत-चीन संबंधों में तनाव और बढ़ा। चीन ने आरोप लगाया कि भारत तिब्बत में चीन विरोधी गतिविधियों को बढ़ावा दे रहा है।

सीमा विवाद और संघर्ष

भारत और चीन के बीच सीमा विवाद लंबे समय से चल रहा था। भारत का दावा था कि सीमा निर्धारण ब्रिटिश काल में हुआ था, जबकि चीन का कहना था कि उपनिवेशी निर्णय लागू नहीं होते। मुख्य विवाद पश्चिमी और पूर्वी सीमाओं के बारे में था। चीन ने अक्साई चिन (लद्दाख क्षेत्र) और अरुणाचल प्रदेश (पूर्वी सीमा) के कुछ क्षेत्रों पर दावा किया। 1957 से 1959 तक, चीन ने अक्साई चिन क्षेत्र पर कब्जा कर लिया और वहाँ एक रणनीतिक सड़क का निर्माण किया। इन विवादों को हल करने के लिए कई संवादों के बावजूद कोई समाधान नहीं निकला, और सीमा पर छोटे-छोटे संघर्ष होते रहे।

1962 का युद्ध

1962 के अक्टूबर में चीन ने अचानक और बड़े पैमाने पर आक्रमण किया। पहले हमले में अरुणाचल प्रदेश में कुछ महत्वपूर्ण क्षेत्र चीनी सैनिकों ने कब्जा कर लिए। दूसरे हमले में चीनी सैनिकों ने असम के मैदानों के पास तक बढ़त बना ली, जबकि लद्दाख में भारतीय सैनिकों ने चीनी आक्रमणों को रोकने में सफलता प्राप्त की। हालांकि, चीन ने एकतरफा युद्धविराम की घोषणा की और अपनी सेनाओं को पहले वाली स्थिति में वापस खींच लिया।

युद्ध के परिणाम और प्रभाव

इस युद्ध ने भारत के लिए कई गंभीर परिणाम छोड़े:

1. राष्ट्रीय अपमान: चीन के आक्रमण से भारत की छवि को घर और विदेश दोनों जगह धक्का लगा। यह युद्ध भारतीय नेतृत्व और सैन्य तैयारी की कमियों को उजागर करने वाला था।

2. आर्थिक और सैन्य सहायता: भारत को इस संकट से निपटने के लिए अमेरिका और ब्रिटेन से सैन्य सहायता प्राप्त करनी पड़ी, जबकि सोवियत संघ इस युद्ध के दौरान तटस्थ रहा।

3. नेहरू की आलोचना: युद्ध के बाद प्रधानमंत्री नेहरू को चीन की नीयत का सही आकलन न करने और सैन्य तैयारियों की कमी के लिए कठोर आलोचना का सामना करना पड़ा। इस आलोचना का असर यह हुआ कि कांग्रेस पार्टी के भीतर राजनीति बदलने लगी और नेहरू के प्रभाव में कमी आई।

4. विपक्ष और कम्युनिस्ट पार्टी में फूट: चीन युद्ध के कारण भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में भी गहरे मतभेद उभरे, जिससे पार्टी 1964 में विभाजित हो गई और एक नया गुट, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) (CPI-M) बना। इस समय कई नेताओं को चीन के पक्ष में होने के कारण गिरफ्तार किया गया।

पूर्वोत्तर भारत की स्थिति और राष्ट्रीय एकता

चीन युद्ध ने भारतीय नेतृत्व को पूर्वोत्तर भारत की संवेदनशील स्थिति के बारे में चेतावनी दी। यह क्षेत्र न केवल अतिरक्त रूप से अविकसित था, बल्कि यह राष्ट्रीय एकता और राजनीतिक एकजुटता के लिए भी चुनौती प्रस्तुत कर रहा था। इस युद्ध के बाद, भारतीय सरकार ने पूर्वोत्तर क्षेत्र के पुनर्गठन की प्रक्रिया शुरू की, जिसमें नागालैंड को राज्य का दर्जा दिया गया और मणिपुर और त्रिपुरा को केंद्रीय शासित क्षेत्र के रूप में विधानसभा चुनावों का अधिकार दिया गया।

निष्कर्ष

1962 का चीन-भारत युद्ध न केवल दोनों देशों के संबंधों में एक महत्वपूर्ण मोड़ था, बल्कि इसने भारतीय राजनीति, राष्ट्रीय सुरक्षा और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों पर गहरे प्रभाव छोड़े। यह युद्ध भारत के लिए एक राष्ट्रीय शर्मिंदगी का कारण बना, जिसने भारत को अपनी सैन्य तैयारियों और बाहरी रिश्तों पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर किया। इसके परिणामस्वरूप भारत ने अपने राष्ट्रीय एकता, सुरक्षा और विदेश नीति में कई बड़े बदलाव किए।


भारत-पाकिस्तान के साथ युद्ध और शांति का विश्लेषण

भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध और शांति की प्रक्रिया में कई महत्वपूर्ण घटनाएँ घटित हुईं, जो दोनों देशों के राजनीतिक और सामरिक संबंधों को परिभाषित करती हैं। इन युद्धों के पीछे के कारण, परिणाम और उनकी राजनीति पर पड़ने वाले प्रभावों का विश्लेषण करना महत्वपूर्ण है।

भारत-पाकिस्तान युद्ध, 1965

भारत और पाकिस्तान के बीच 1947 के विभाजन के बाद से जम्मू और कश्मीर का विवाद मुख्य संघर्ष बिंदु रहा है। 1965 में पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण किया। इस युद्ध की शुरुआत पाकिस्तान द्वारा गुजरात के रन्न ऑफ कच्छ में भारतीय सीमा पर हमले से हुई थी, जिसके बाद जम्मू और कश्मीर में भी पाकिस्तानी हमले बढ़े। पाकिस्तान का मानना था कि वहां के स्थानीय लोग उनका समर्थन करेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। भारत ने जवाबी कार्रवाई करते हुए पंजाब सीमा पर भी आक्रमण किया, और भारतीय सेना ने लाहौर के पास तक विजय प्राप्त की। यह युद्ध UN हस्तक्षेप से समाप्त हुआ और 1966 में ताशकंद समझौते पर हस्ताक्षर हुए। इस युद्ध में पाकिस्तान को काफी नुकसान हुआ, लेकिन भारत की स्थिति पहले से ही आर्थिक संकट में थी, और युद्ध ने इस स्थिति को और गंभीर बना दिया।

1971 का बांगलादेश युद्ध

1970 में पाकिस्तान में गंभीर आंतरिक संकट उभरा। पाकिस्तान के पश्चिमी और पूर्वी हिस्से में चुनाव परिणामों के बाद, पूर्वी पाकिस्तान में स्थित अवामी लीग ने बहुमत प्राप्त किया, जबकि पश्चिमी पाकिस्तान में जुल्फिकार अली भुट्टो की पार्टी जीतकर आई। इस विभाजन ने पाकिस्तान के सत्ताधारियों को असमंजस में डाल दिया, और उन्होंने शेख मुजीब-उर-रहमान को गिरफ्तार कर लिया, जिससे पूर्वी पाकिस्तान में हिंसा और संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो गई। इसके परिणामस्वरूप लाखों शरणार्थी भारत में प्रवेश कर गए, और भारत ने बांगलादेश की स्वतंत्रता संग्राम में समर्थन देना शुरू किया।

भारत ने पाकिस्तान के इस आरोप का खंडन किया कि वह बांगलादेश को अलग करने के लिए साजिश कर रहा है। इस संघर्ष में पाकिस्तान को चीन और अमेरिका का समर्थन प्राप्त हुआ, जबकि भारत ने सोवियत संघ के साथ 1971 में एक 20 वर्ष की शांति और मित्रता संधि पर हस्ताक्षर किए। 1971 के अंत में भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध शुरू हो गया। भारत ने पाकिस्तान पर हमला करते हुए 10 दिनों के भीतर ढाका को चारों ओर से घेर लिया और लगभग 90,000 पाकिस्तानी सैनिकों ने आत्मसमर्पण कर दिया। इसके साथ बांगलादेश स्वतंत्र हो गया, और युद्ध का अंत हुआ।

शिमला समझौता और बाद के परिणाम

1971 के युद्ध में भारत की निर्णायक विजय ने भारतीय जनता में राष्ट्रीय गर्व और सैन्य शक्ति की भावना को बढ़ावा दिया। इसके बाद 1972 में शिमला समझौते पर हस्ताक्षर किए गए, जिसमें पाकिस्तान ने कश्मीर मुद्दे पर भारत के साथ शांति स्थापित करने की प्रतिबद्धता जताई। इस युद्ध की विजय ने इंदिरा गांधी की राजनीतिक स्थिति को मजबूत किया, और उनकी लोकप्रियता में वृद्धि हुई।

भारत की रक्षा नीति और संसाधन वितरण

भारत ने सीमित संसाधनों के बावजूद युद्धों के दौरान अपने रक्षा क्षेत्र पर विशेष ध्यान दिया। 1962 के चीन युद्ध के बाद, भारत ने अपनी सैन्य शक्ति को पुनर्गठित किया और रक्षा उत्पादन विभाग की स्थापना की। इसके परिणामस्वरूप रक्षा व्यय में वृद्धि हुई, और भारत को अपनी रक्षा क्षमताओं को आधुनिक बनाने के लिए निरंतर प्रयास करने पड़े। यह संघर्षों के कारण भारत की आर्थिक योजनाओं में भी रुकावट आई, विशेष रूप से तीसरी पंचवर्षीय योजना के बाद।

निष्कर्ष

भारत और पाकिस्तान के बीच युद्धों और शांति की प्रक्रिया ने दोनों देशों के राजनीतिक, आर्थिक और सैन्य पहलुओं को प्रभावित किया। 1965 और 1971 के युद्धों ने न केवल दोनों देशों के बीच तनाव को बढ़ाया, बल्कि भारत को अपनी रक्षा नीति और सैन्य क्षमताओं को नए सिरे से परिभाषित करने की आवश्यकता भी महसूस कराई। इन संघर्षों ने यह स्पष्ट किया कि किसी भी देश के सामरिक और राजनीतिक लक्ष्यों को निर्धारित करने के लिए युद्ध और शांति दोनों ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

भारत की परमाणु नीति

भारत की परमाणु नीति का यह विश्लेषण बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह उस समय की वैश्विक राजनीति और भारत के सुरक्षा हितों को समझने में मदद करता है।

1. नेहरू का दृष्टिकोण और प्रारंभिक परमाणु नीति: पंडित नेहरू का विश्वास था कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी के माध्यम से भारत को एक आधुनिक राष्ट्र में तब्दील किया जा सकता है। उन्होंने 1940 के दशक के अंत में हौमी जे. भाभा के मार्गदर्शन में परमाणु कार्यक्रम की शुरुआत की। उनका उद्देश्य शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए परमाणु ऊर्जा का उपयोग करना था, और वे परमाणु हथियारों के खिलाफ थे। उनके दृष्टिकोण में, परमाणु हथियारों का विकास विनाशकारी हो सकता है, और इसलिए उन्होंने परमाणु निरस्त्रीकरण के लिए सुपरपावरों से अपील की।

2. परमाणु परीक्षण 1974 और अंतर्राष्ट्रीय प्रतिक्रिया: भारत ने मई 1974 में अपना पहला परमाणु विस्फोट किया, जिसे "शांतिपूर्ण परमाणु परीक्षण" (Smiling Buddha) के रूप में प्रस्तुत किया गया। यह कदम एक ऐसे समय में उठाया गया, जब चीन ने 1964 में परमाणु परीक्षण किए थे, और अंतर्राष्ट्रीय दबाव बढ़ गया था। परमाणु अप्रसार संधि (NPT) को 1968 में लागू किया गया था, लेकिन भारत ने इसे भेदभावपूर्ण मानते हुए इस पर हस्ताक्षर नहीं किए थे। भारत का कहना था कि यह संधि केवल कुछ शक्तियों को परमाणु हथियार रखने का अधिकार देती है, जबकि अन्य देशों को इससे वंचित करती है।

3. आर्थिक और राजनीतिक संदर्भ: भारत का यह परमाणु परीक्षण एक ऐसे समय में हुआ, जब देश आर्थिक संकट का सामना कर रहा था। 1973 में अरब-इस्राइल युद्ध के बाद तेल की कीमतों में अचानक वृद्धि ने भारत में महंगाई को बढ़ा दिया था। इस संकट ने देश के अंदर कई संघर्षों को जन्म दिया था, जिनमें प्रमुख रेलवे हड़तालें शामिल थीं। इस आर्थिक और राजनीतिक अशांति के बीच, भारत ने अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा को मजबूत करने के लिए परमाणु परीक्षण को एक रणनीतिक कदम माना।

4. आंतरिक राजनीति और विदेश नीति: भारतीय राजनीति में विभिन्न दलों के बीच विदेश नीति को लेकर कुछ भिन्नताएँ हो सकती थीं, लेकिन राष्ट्रीय हितों के संदर्भ में राष्ट्रीय एकता, सीमा सुरक्षा और देश की अखंडता पर आम सहमति रही है। 1962 से 1971 तक, भारत ने तीन युद्धों का सामना किया, लेकिन इस दौरान विदेश नीति को पार्टी राजनीति से अलग रखा गया, और राष्ट्रीय सुरक्षा को प्राथमिकता दी गई। इसके बावजूद, भारत की परमाणु नीति ने अंतरराष्ट्रीय मंच पर उसकी स्थिति को मजबूत किया और उसने अपनी सुरक्षा के लिए एक प्रमुख कदम उठाया।

इस विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि भारत ने परमाणु नीति को केवल सुरक्षा के दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि एक रणनीतिक और कूटनीतिक कदम के रूप में भी देखा।


अध्याय 2.5 : कांग्रेस प्रणाली चुनौतियां व पुनर्स्थापना



राजनीतिक उत्तराधिकार की चुनौती:


नेहरू के निधन के बाद भारत में उत्तराधिकार और लोकतंत्र की स्थिरता को लेकर कई सवाल उठे थे। यह केवल एक पार्टी या नेता की बात नहीं थी, बल्कि यह सवाल पूरे देश के लोकतांत्रिक ढांचे की स्थिरता से जुड़ा था। नेहरू के बाद कौन आएगा, यह सवाल तो था ही, लेकिन इससे भी बड़ा सवाल यह था कि नेहरू के बाद क्या होगा? क्या भारत अपने लोकतांत्रिक प्रयोग को बचा पाएगा?


1. नेहरू के बाद "क्या?" का सवाल: जब नेहरू का निधन हुआ, तो देश और विदेश दोनों में यह चिंता थी कि क्या भारत अपनी लोकतांत्रिक प्रक्रिया को स्थिर रख सकेगा। यह डर था कि भारत में लोकतंत्र के लिए उत्तराधिकार के अभाव में सेना का हस्तक्षेप हो सकता है, जैसा कि कई नव स्वतंत्र देशों में हुआ था। इसके साथ ही, भारत में गरीबी, असमानता, सांप्रदायिक और क्षेत्रीय भेदभाव जैसी समस्याओं का समाधान करने में क्या नए नेतृत्व को सफलता मिल पाएगी?


2. नेहरू से शास्त्री तक: हालांकि, जब नेहरू का निधन हुआ, तो सत्ता हस्तांतरण ने इन आशंकाओं को गलत साबित किया। कांग्रेस पार्टी के नेता, के. कामराज, ने पार्टी के नेताओं और सांसदों से विचार-विमर्श किया और यह पाया कि लल बहादुर शास्त्री के पक्ष में सर्वसम्मति थी। शास्त्री को कांग्रेस पार्टी के संसदीय दल का नेता चुना गया, और वे देश के अगले प्रधानमंत्री बने। शास्त्री एक सरल और सिद्धांतों के प्रति प्रतिबद्ध नेता थे, जिनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने अपनी व्यक्तिगत जिम्मेदारी के तहत रेलवे मंत्री के पद से इस्तीफा दिया था जब एक बड़ी रेल दुर्घटना घटी। उनका प्रधानमंत्री बनना एक सहज और स्वीकृत प्रक्रिया थी, जो यह साबित करती थी कि लोकतांत्रिक उत्तराधिकार भारत में सही तरीके से हो सकता था।


3. शास्त्री का प्रधानमंत्री बनने के बाद का समय: शास्त्री के प्रधानमंत्री बनने के बाद भारत ने गंभीर समस्याओं का सामना किया। पहले से चीन के साथ युद्ध के आर्थिक प्रभावों से उबर रहा देश, अब पाकिस्तान के साथ युद्ध, सूखा, विफल मानसून और खाद्यान्न संकट जैसी गंभीर समस्याओं का सामना कर रहा था। शास्त्री ने 'जय जवान जय किसान' का प्रसिद्ध नारा दिया, जो इस संकट से निपटने के लिए देश की संकल्प शक्ति को दर्शाता था। इसके बावजूद, शास्त्री की प्रधानमंत्री की कार्यकाल की अवधि बहुत संक्षिप्त थी और उनकी अप्रत्याशित मृत्यु 10 जनवरी 1966 को ताशकंद (तत्कालीन यूएसएसआर) में हो गई, जब वे पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान के साथ युद्ध विराम समझौते पर हस्ताक्षर कर रहे थे।


सारांश: यहां यह देखा जा सकता है कि जब नेहरू का निधन हुआ, तो एक गंभीर राजनीतिक संकट पैदा हुआ था, लेकिन यह संकट भारतीय लोकतंत्र की स्थिरता के लिए चुनौती नहीं बना। शास्त्री के चयन और उनकी प्रधानमंत्री की भूमिका ने यह साबित किया कि भारत में लोकतांत्रिक उत्तराधिकार की प्रक्रिया प्रभावी थी। हालांकि, शास्त्री के प्रधानमंत्री बनने के बाद की समस्याएं बहुत बड़ी थीं, लेकिन उनका नेतृत्व देश के सामने आई चुनौतियों का सामना करने के लिए महत्वपूर्ण था।


इंदिरा गांधी का कार्यकाल


यह खंड भारतीय राजनीति में 1967 के आम चुनावों के महत्व, इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी के संघर्ष और देश के व्यापक आर्थिक संकट का विश्लेषण करता है। इस समय की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियाँ भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण बदलावों का संकेत देती हैं। आइए इसे विस्तार से समझते हैं:


1. शास्त्री से इंदिरा गांधी तक का संक्रमण


राजनीतिक उत्तराधिकार का संकट:

1966 में लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद कांग्रेस पार्टी को उत्तराधिकार के संकट का सामना करना पड़ा। इसमें मोरारजी देसाई और इंदिरा गांधी के बीच तीव्र प्रतिस्पर्धा थी।


मोरारजी देसाई का राजनीतिक अनुभव: मोरारजी देसाई ने बॉम्बे राज्य (अब महाराष्ट्र और गुजरात) के मुख्यमंत्री और केंद्र में मंत्री के रूप में काम किया था।


इंदिरा गांधी का नेतृत्व: इंदिरा गांधी, जो नेहरू की बेटी थीं, ने शास्त्री के मंत्रिमंडल में सूचना मंत्री के रूप में काम किया था।


प्रतिस्पर्धा का समाधान:

कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने इंदिरा गांधी का समर्थन किया, हालांकि यह निर्णय एकमत नहीं था। कांग्रेस सांसदों के बीच गुप्त मतदान के द्वारा इंदिरा गांधी ने मोरारजी देसाई को हराया और दो-तिहाई से अधिक समर्थन प्राप्त किया। इस प्रकार, लोकतंत्र की परिपक्वता के रूप में यह शांतिपूर्ण सत्ता हस्तांतरण देखा गया।


2. इंदिरा गांधी की सत्ता में एंट्री और शुरुआती चुनौतियाँ


प्रारंभिक अस्थिरता:

इंदिरा गांधी का राजनीतिक अनुभव सीमित था, और उन्हें पार्टी और प्रशासन की दिशा में मार्गदर्शन की आवश्यकता थी। कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने यह मान लिया था कि इंदिरा गांधी की प्रशासनिक और राजनीतिक अनुभवहीनता उन्हें उनके समर्थन पर निर्भर रहने के लिए मजबूर करेगी।


आर्थिक संकट:

इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद, देश की आर्थिक स्थिति और खराब हो गई थी, जिससे उनकी सरकार के सामने कठिनाइयाँ खड़ी हो गईं।



3. 1967 के चौथे आम चुनाव का संदर्भ


चुनाव की पृष्ठभूमि:

1967 के आम चुनावों से पहले भारतीय राजनीति में कई महत्वपूर्ण घटनाएँ घटीं, जैसे दो प्रधानमंत्रियों की मृत्यु, और इंदिरा गांधी का प्रधानमंत्री के रूप में पदार्पण। इस समय देश गंभीर आर्थिक संकट का सामना कर रहा था, जिसमें कृषि उत्पादन में गिरावट, खाद्य संकट, बढ़ती बेरोज़गारी और महंगाई शामिल थे।


आर्थिक संकट का प्रभाव:


इंदिरा गांधी सरकार द्वारा भारतीय मुद्रा का अवमूल्यन किया गया, जिसके कारण डॉलर के सापेक्ष रुपये की कीमत घट गई।


इसके परिणामस्वरूप महंगाई बढ़ी और आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि हुई, जिसके खिलाफ जनता ने विरोध प्रदर्शन शुरू किए।


सरकार ने इन प्रदर्शनों को कानून-व्यवस्था की समस्या मानते हुए नज़रअंदाज किया, जिससे जनता में और आक्रोश बढ़ा।


4. सामाजिक संघर्ष और राजनीतिक असंतोष


सामाजिक संघर्ष:

इस समय कई सामाजिक आंदोलनों का जन्म हुआ, जिनमें सबसे महत्वपूर्ण थे:


कृषि संघर्ष: भारतीय कम्युनिस्ट और समाजवादी पार्टियों ने अधिक समानता की मांग की और किसानों के लिए संघर्ष किए।


हिंदू-मुस्लिम दंगे: इस दौर में भारतीय समाज में सबसे बड़े हिंदू-मुस्लिम दंगे भी हुए, जो साम्प्रदायिक तनाव और राजनीतिक असंतोष को बढ़ाते थे।


राजनीतिक असंतोष:

सरकार के खिलाफ विरोध बढ़ता जा रहा था, और यह महसूस किया जा रहा था कि आर्थिक असंतुलन और सरकारी नीतियाँ लोगों के जीवन स्तर को प्रभावित कर रही थीं।



5. विश्लेषण और निष्कर्ष


इंदिरा गांधी का नेतृत्व:

इंदिरा गांधी ने अपनी पहली परीक्षा में सत्ता संघर्ष को जीता, लेकिन प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्हें भारी चुनौतियों का सामना करना पड़ा। यह उनके नेतृत्व के लिए एक कठिन समय था, जिसमें उन्होंने कई बाहरी दबावों का सामना किया और अपनी नेतृत्व क्षमता को साबित करने का प्रयास किया।


1967 के चुनाव और कांग्रेस पार्टी की स्थिति:

1967 के चुनावों में कांग्रेस पार्टी का प्रदर्शन कमजोर हुआ। यह चुनाव कांग्रेस पार्टी के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ था, क्योंकि पहले के चुनावों में कांग्रेस की अभेद्य शक्ति में कमी आई थी। यह दिखाता है कि देश में राजनीतिक असंतोष और बदलाव की हवा चल रही थी।


आर्थिक संकट का राजनीतिक प्रभाव:

सरकार की आर्थिक नीतियाँ और जनता की बढ़ती असंतोष ने राजनीतिक माहौल को अस्थिर कर दिया। इंदिरा गांधी के लिए यह समय कठिन था, और उन्होंने अपनी सरकार को मजबूत बनाने के लिए कई कदम उठाए।


सामाजिक आंदोलनों का उदय:

इस समय में सामूहिक संघर्ष और आंदोलनों का उदय हुआ, जो समाज में असमानता, जातिवाद, और राजनीतिक विफलता के खिलाफ थे।


निष्कर्ष


1967 का चुनाव और इसके बाद का राजनीतिक माहौल भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण बदलावों का प्रतीक था। इंदिरा गांधी का नेतृत्व परिपक्व हुआ, लेकिन आर्थिक संकट और राजनीतिक असंतोष ने उन्हें बड़ी चुनौती दी। इसके बावजूद, इंदिरा गांधी ने कांग्रेस पार्टी को एक नई दिशा में चलने की कोशिश की, लेकिन यह समय पार्टी और समाज दोनों के लिए कठिन था।


गैर कांग्रेसवाद

यह पाठ 1967 के आम चुनावों और उससे जुड़े "गैर-कांग्रेसीवाद" (Non-Congressism) की राजनीतिक पृष्ठभूमि का विश्लेषण प्रस्तुत करता है। इस पर चर्चा और विश्लेषण निम्नलिखित बिंदुओं के आधार पर किया जा सकता है:


1. गैर-कांग्रेसीवाद की अवधारणा


प्रस्तावना: गैर-कांग्रेसीवाद का सिद्धांत समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया द्वारा प्रस्तुत किया गया। इसके पीछे यह विचार था कि कांग्रेस का शासन गरीबों और आम जनता के हितों के खिलाफ है।


रणनीति: लोहिया और अन्य विपक्षी नेताओं ने महसूस किया कि कांग्रेस को हराने के लिए उनके मतों का विभाजन रोका जाना चाहिए। इस उद्देश्य से अलग-अलग विचारधाराओं और कार्यक्रमों वाली पार्टियां एकजुट होकर कांग्रेस विरोधी मोर्चा बनाने लगीं।


लोकतंत्र को पुनः प्राप्त करने का लक्ष्य: लोहिया का तर्क था कि कांग्रेस का शासन अलोकतांत्रिक है और लोकतंत्र को पुनः जनहित में लाने के लिए कांग्रेस विरोधी दलों का एकजुट होना आवश्यक है।



2. 1967 के आम चुनाव का महत्व


पहला चुनाव नेहरू के बिना: 1967 का चुनाव कांग्रेस के लिए पहली चुनौतीपूर्ण परीक्षा थी क्योंकि यह पंडित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व के बिना लड़ा गया।


परिणाम का झटका: कांग्रेस ने लोकसभा में बहुमत हासिल किया, लेकिन यह उसका अब तक का सबसे कम सीटों और वोटों का प्रतिशत था।


राज्यों में पराजय: कांग्रेस ने 9 राज्यों में सत्ता गंवा दी, जिनमें से कई बड़े राज्य थे। इनमें पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार, और पश्चिम बंगाल शामिल थे।


क्षेत्रीय पार्टियों का उदय: तमिलनाडु (तब मद्रास राज्य) में DMK ने हिंदी विरोधी आंदोलन के बल पर स्पष्ट बहुमत प्राप्त किया। यह पहली बार था जब किसी गैर-कांग्रेसी पार्टी ने राज्य में बहुमत से सरकार बनाई।


3. राजनीतिक परिदृश्य का परिवर्तन


कांग्रेस का पतन: 1967 के चुनाव परिणामों को "राजनीतिक भूकंप" कहा गया क्योंकि यह कांग्रेस के वर्चस्व के अंत की शुरुआत थी।


गठबंधन सरकारों का युग: आठ राज्यों में गठबंधन सरकारें बनीं, जो यह दर्शाती हैं कि गैर-कांग्रेसी दलों ने कांग्रेस के खिलाफ साझा मोर्चा बनाने में सफलता पाई।


क्षेत्रीय दलों का उभार: क्षेत्रीय दल जैसे DMK ने भारतीय राजनीति में नई संभावनाओं का संकेत दिया।


4. गैर-कांग्रेसीवाद का प्रभाव और सीमाएँ


प्रभाव: गैर-कांग्रेसीवाद ने भारतीय राजनीति में बहुदलीय प्रणाली को बढ़ावा दिया और कांग्रेस के एकाधिकार को चुनौती दी।


सीमाएँ: हालांकि यह रणनीति सफल रही, लेकिन विभिन्न विचारधाराओं और कार्यक्रमों के कारण गठबंधन सरकारें अक्सर अस्थिर रहीं।


5. राजनीतिक परिवर्तन का विश्लेषण


1967 का चुनाव भारतीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण मोड़ था। यह स्पष्ट करता है कि राजनीतिक एकाधिकार लंबे समय तक टिकाऊ नहीं होता। कांग्रेस की शक्ति का पतन न केवल आंतरिक गुटबाज़ी और नेतृत्व के अभाव के कारण हुआ, बल्कि बढ़ती सामाजिक-आर्थिक असंतोष और क्षेत्रीय आकांक्षाओं ने भी इसमें योगदान दिया।


निष्कर्ष


1967 के चुनाव परिणाम यह दर्शाते हैं कि लोकतंत्र में बदलाव की प्रक्रिया सतत है। गैर-कांग्रेसीवाद ने भारतीय राजनीति में नई चुनौतियां और संभावनाएं पेश कीं। यह कांग्रेस के वर्चस्व के अंत की शुरुआत थी और भारत में राजनीतिक विविधता के एक नए युग का संकेत था।


गठबंधन सरकार व दलबदल की राजनीति


यह पाठ 1967 के चुनावों के बाद भारतीय राजनीति में गठबंधन सरकारों और दल-बदल (defections) की घटनाओं का विश्लेषण करता है। इन घटनाओं का भारत के राजनीतिक परिदृश्य पर गहरा प्रभाव पड़ा। आइए इन बिंदुओं का विस्तृत विश्लेषण करते हैं:


1. गठबंधन (Coalitions) का उदय


स्थिति और कारण:

1967 के चुनावों में कांग्रेस के बहुमत खोने के बाद विभिन्न गैर-कांग्रेसी दलों ने एक साथ आकर संयुक्त विधान मंडल दल (Samyukt Vidhayak Dal या SVD) के माध्यम से गठबंधन सरकारें बनाईं।


विविधता और असमानता:

इन गठबंधनों में वैचारिक असमानताएं स्पष्ट थीं।


उदाहरण के लिए, बिहार में SVD सरकार में समाजवादी दल (SSP और PSP), भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI), और जनसंघ जैसे विपरीत विचारधाराओं वाले दल एक साथ आए।


पंजाब में ‘Popular United Front’ में दोनों अकाली दल (संत समूह और मास्टर समूह), CPI, CPI(M), SSP, रिपब्लिकन पार्टी, और जनसंघ शामिल थे।


महत्व:

गठबंधन सरकारों ने भारतीय लोकतंत्र में बहुदलीय प्रणाली के बढ़ते महत्व को दर्शाया और यह दिखाया कि केवल एकल पार्टी के वर्चस्व के बिना भी सरकारें बनाई जा सकती हैं।


2. दल-बदल (Defections)


परिभाषा और प्रभाव:

दल-बदल तब होता है जब कोई निर्वाचित प्रतिनिधि अपने मूल दल को छोड़कर किसी अन्य दल में शामिल हो जाता है।


1967 के बाद, कांग्रेस से अलग हुए विधायकों ने हरियाणा, मध्य प्रदेश, और उत्तर प्रदेश में गैर-कांग्रेसी सरकारों के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।


आया राम, गया राम:


यह वाक्यांश हरियाणा के विधायक गया लाल की घटनाओं से प्रेरित है। गया लाल ने 15 दिनों के भीतर तीन बार अपनी पार्टी बदली और नौ घंटे के भीतर दो बार दल-बदल किया।


यह घटना भारतीय राजनीति में दल-बदल की बढ़ती प्रवृत्ति और राजनीतिक अस्थिरता का प्रतीक बन गई।


कांग्रेस नेता राव बीरेंद्र सिंह ने "गया राम अब आया राम है" कहकर इस घटना को लोकप्रिय बना दिया।


नकारात्मक प्रभाव:

दल-बदल से सरकारें अस्थिर होती थीं और राजनीतिक दलों में अनुशासन की कमी स्पष्ट होती थी।


3. गठबंधन और दल-बदल का लोकतंत्र पर प्रभाव


सकारात्मक प्रभाव:


गठबंधन सरकारों ने क्षेत्रीय और वैचारिक विविधता को सरकार में शामिल किया।


बहुदलीय प्रणाली को मजबूती मिली।


नकारात्मक प्रभाव:


गठबंधन सरकारें अक्सर अस्थिर और अल्पकालिक होती थीं।


दल-बदल ने राजनीतिक नैतिकता को कमजोर किया और व्यक्तिगत स्वार्थ को प्राथमिकता दी।


4. दल-बदल विरोधी कानून


52वां संवैधानिक संशोधन:

1985 में, दसवीं अनुसूची के तहत संविधान में संशोधन कर दल-बदल विरोधी कानून लागू किया गया।


इसका उद्देश्य विधायकों और सांसदों द्वारा दल-बदल की प्रवृत्ति को रोकना था।


कानून के अनुसार, यदि कोई विधायक अपनी पार्टी छोड़ता है या पार्टी की आधिकारिक लाइन का उल्लंघन करता है, तो उसकी सदस्यता समाप्त हो सकती है।


महत्व:

यह कानून दल-बदल की समस्या को नियंत्रित करने का एक प्रभावी प्रयास था और लोकतांत्रिक स्थिरता को बनाए रखने में सहायक बना।


5. विश्लेषण और निष्कर्ष


1967 के चुनावों के बाद गठबंधन और दल-बदल भारतीय राजनीति के दो महत्वपूर्ण पहलू बन गए।


गठबंधन सरकारें भारतीय राजनीति में नई संभावनाओं और चुनौतियों का प्रतीक बनीं।


दल-बदल ने राजनीति में नैतिकता और स्थिरता की कमी को उजागर किया।


हालांकि, दल-बदल विरोधी कानून लागू होने के बावजूद, राजनीतिक स्वार्थ और गठबंधन की अस्थिरता आज भी भारतीय राजनीति के प्रमुख मुद्दे बने हुए हैं। यह समय था जब भारतीय लोकतंत्र में न केवल संस्थागत ढांचा विकसित हो रहा था, बल्कि राजनीतिक संस्कृति भी अपने नए स्वरूप को प्राप्त कर रही थी।


कांग्रेस का  विभाजन


यह पाठ 1967 के बाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में हुए विभाजन और इसके परिणामस्वरूप भारतीय राजनीति में आए परिवर्तनों का विश्लेषण करता है। यह घटनाक्रम सत्ता संघर्ष, विचारधारा और नेतृत्व के मुद्दों के इर्द-गिर्द घूमता है। आइए इसे विभिन्न बिंदुओं के माध्यम से समझते हैं:


1. 1967 के चुनावों के बाद कांग्रेस की स्थिति


कांग्रेस की कमजोरी:

1967 के चुनावों में कांग्रेस को केंद्र में तो बहुमत मिला, लेकिन यह पहले की तुलना में काफी कम था। राज्यों में पार्टी ने अपनी स्थिति खो दी और कई गैर-कांग्रेसी सरकारें बनीं।


कांग्रेस को पराजित करने की संभावना:

चुनाव परिणामों ने यह स्पष्ट कर दिया कि कांग्रेस को हराना संभव है, लेकिन उस समय कोई ठोस विकल्प सामने नहीं था।


स्थिरता की समस्या:

अधिकांश गैर-कांग्रेसी गठबंधन सरकारें अस्थिर थीं और जल्दी ही गिर गईं, जिससे राष्ट्रपति शासन लागू करना पड़ा।


2. इंदिरा गांधी बनाम ‘सिंडिकेट’


सिंडिकेट का प्रभाव:

सिंडिकेट कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं का एक समूह था, जिसमें के. कामराज, एस. निजलिंगप्पा, मोरारजी देसाई, आदि शामिल थे। इन्होंने इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनाने में भूमिका निभाई, लेकिन उनसे यह अपेक्षा की कि वे उनके निर्देशन में कार्य करें।


इंदिरा गांधी का विरोध:

इंदिरा गांधी ने अपनी स्वतंत्र पहचान स्थापित करने और सिंडिकेट के प्रभाव को समाप्त करने के लिए एक रणनीतिक दृष्टिकोण अपनाया।


उन्होंने पार्टी के बाहर से अपने सलाहकार चुने।


सिंडिकेट के नेताओं को धीरे-धीरे दरकिनार किया।


3. वामपंथी झुकाव और 10 सूत्रीय कार्यक्रम


वामपंथी नीतियां:

इंदिरा गांधी ने सिंडिकेट के साथ सत्ता संघर्ष को एक वैचारिक संघर्ष में बदल दिया।


उन्होंने 10 सूत्रीय कार्यक्रम (1967) के तहत बैंकों का सामाजिक नियंत्रण, शहरी संपत्ति और आय पर सीमा, खाद्यान्न का सार्वजनिक वितरण, भूमि सुधार, और ग्रामीण गरीबों के लिए आवास का प्रावधान जैसे वामपंथी नीतियों को अपनाया।


इन नीतियों ने उन्हें गरीब और वामपंथी वर्गों का समर्थन दिलाने में मदद की।


सिंडिकेट का विरोध:

सिंडिकेट के नेताओं ने औपचारिक रूप से इन नीतियों को स्वीकार किया, लेकिन उनके प्रति असहमति व्यक्त की।


4. 1969 का राष्ट्रपति चुनाव और कांग्रेस का विभाजन


राष्ट्रपति चुनाव में संघर्ष:

राष्ट्रपति ज़ाकिर हुसैन की मृत्यु के बाद, कांग्रेस के भीतर सिंडिकेट और इंदिरा गांधी के बीच गहरा मतभेद सामने आया।


सिंडिकेट ने नीलम संजीव रेड्डी को आधिकारिक उम्मीदवार बनाया।


इंदिरा गांधी ने वी.वी. गिरि को स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में समर्थन दिया।


‘आत्मा की आवाज’ का आह्वान:

इंदिरा गांधी ने कांग्रेस सांसदों और विधायकों से ‘आत्मा की आवाज’ के आधार पर वोट करने की अपील की, जो सिंडिकेट के आधिकारिक निर्देश (व्हिप) के खिलाफ था।


परिणामस्वरूप वी.वी. गिरि ने चुनाव जीता, और कांग्रेस के आधिकारिक उम्मीदवार की हार हुई।


5. कांग्रेस का विभाजन


विभाजन की औपचारिकता:

राष्ट्रपति चुनाव के बाद, सिंडिकेट ने इंदिरा गांधी को कांग्रेस से निष्कासित कर दिया।


इंदिरा गांधी ने अपने गुट को असली कांग्रेस बताया।


नवंबर 1969 में, कांग्रेस (संगठन) और कांग्रेस (अनुयायी) या पुरानी कांग्रेस और नई कांग्रेस के रूप में पार्टी दो भागों में विभाजित हो गई।


विचारधारा का संघर्ष:

इंदिरा गांधी ने विभाजन को विचारधारा के आधार पर परिभाषित किया:


उनके अनुसार, नई कांग्रेस गरीबों और समाजवाद के पक्ष में थी।


पुरानी कांग्रेस को उन्होंने संपन्न और रूढ़िवादी वर्गों का समर्थक बताया।


6. विश्लेषण और प्रभाव


इंदिरा गांधी की रणनीति:

इंदिरा गांधी ने अपने नेतृत्व कौशल और राजनीतिक साहस से न केवल सिंडिकेट को पराजित किया, बल्कि कांग्रेस में अपनी पकड़ मजबूत की।


उनकी वामपंथी नीतियों और लोकप्रिय निर्णयों, जैसे बैंकों का राष्ट्रीयकरण और प्रिवी पर्स की समाप्ति, ने उन्हें जनता के बीच लोकप्रिय बनाया।


कांग्रेस का पुनर्गठन:

विभाजन के बाद, नई कांग्रेस ने भारतीय राजनीति में वर्चस्व स्थापित किया, जबकि पुरानी कांग्रेस हाशिये पर चली गई।


भारतीय राजनीति पर प्रभाव:


इस घटना ने व्यक्तिगत नेतृत्व के महत्व को स्थापित किया।


वामपंथी नीतियों के प्रति कांग्रेस के झुकाव ने देश की सामाजिक-आर्थिक दिशा को प्रभावित किया।


निष्कर्ष


1969 का कांग्रेस विभाजन न केवल पार्टी की आंतरिक राजनीति का परिणाम था, बल्कि यह भारतीय लोकतंत्र में सत्ता संघर्ष, विचारधारा और नेतृत्व के महत्व को भी दर्शाता है। इंदिरा गांधी ने अपनी रणनीतियों और निर्णयों के माध्यम से कांग्रेस में नई जान फूंकी और भारतीय राजनीति पर अपना प्रभाव छोड़ा। यह घटना भारतीय राजनीति में व्यक्तित्व आधारित नेतृत्व के उदय और पार्टी आधारित राजनीति के क्षरण का प्रतीक बनी।


1971 का आम चुनाव


1971 के लोकसभा चुनाव और उसके बाद के घटनाक्रम का यह विश्लेषण भारतीय राजनीति में इंदिरा गांधी के नेतृत्व और कांग्रेस पार्टी के पुनर्गठन की प्रक्रिया को समझने का अवसर प्रदान करता है। यह घटना भारतीय राजनीति में कई महत्वपूर्ण बदलावों का परिचायक थी। आइए इसे विभिन्न बिंदुओं के माध्यम से समझते हैं:


1. 1971 के चुनाव का संदर्भ


पृष्ठभूमि:

1969 में कांग्रेस के विभाजन के बाद, इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस (आर) अल्पमत में थी और अन्य दलों जैसे सीपीआई और डीएमके के मुद्दा आधारित समर्थन पर निर्भर थी।


चुनाव की आवश्यकता:

इंदिरा गांधी ने संसद भंग कर 1971 में चुनाव कराने का निर्णय लिया, जो एक साहसी और अप्रत्याशित कदम था। इसका उद्देश्य:


अपनी पार्टी को मजबूत करना,


अन्य दलों पर निर्भरता समाप्त करना,


और अपने समाजवादी कार्यक्रमों के लिए जनादेश प्राप्त करना।


2. चुनाव का संघर्ष


विपक्ष का गठबंधन:

विपक्ष ने "ग्रैंड अलायंस" नाम से एक व्यापक गठबंधन बनाया, जिसमें समाजवादी पार्टी (एसएसपी), प्रजा समाजवादी पार्टी (पीएसपी), जनसंघ, स्वतंत्र पार्टी और भारतीय क्रांति दल शामिल थे।


यह गठबंधन संगठित था, लेकिन इसके पास ठोस वैचारिक कार्यक्रम या एजेंडा नहीं था।


उनकी एकमात्र रणनीति "इंदिरा हटाओ" (इंदिरा को हटाना) थी।


कांग्रेस (आर) की रणनीति:


इंदिरा गांधी ने "गरीबी हटाओ" के नारे के साथ सकारात्मक एजेंडा प्रस्तुत किया।


उन्होंने सार्वजनिक क्षेत्र को बढ़ावा देने, भूमि सुधार, आय और संपत्ति में असमानता कम करने, और वंचित वर्गों को समर्थन देने पर ध्यान केंद्रित किया।


यह नारा गरीबों, दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों, महिलाओं और बेरोजगार युवाओं को आकर्षित करने के लिए था।


3. चुनाव परिणाम और प्रभाव


कांग्रेस (आर) की विजय:


कांग्रेस (आर) और सीपीआई गठबंधन ने 375 सीटें जीतीं, जो 48.4% वोटों के साथ कांग्रेस के अब तक के सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन में से एक था।


अकेले कांग्रेस (आर) ने 352 सीटें और 44% वोट प्राप्त किए।


इसके विपरीत, कांग्रेस (ओ) ने मात्र 16 सीटें और कुल मतों का 11% हिस्सा हासिल किया।


विपक्ष की विफलता:

ग्रैंड अलायंस की कुल सीटें 60 से कम रहीं, और यह स्पष्ट हो गया कि विपक्ष के पास एकजुटता और स्पष्ट एजेंडा का अभाव था।


4. बांग्लादेश संकट और इंदिरा गांधी की लोकप्रियता


बांग्लादेश का निर्माण:


1971 के चुनाव के तुरंत बाद, पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में राजनीतिक और सैन्य संकट उभरा।


भारत ने बांग्लादेश की स्वतंत्रता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिससे इंदिरा गांधी की छवि एक मजबूत राष्ट्रवादी नेता के रूप में उभरी।


उनकी इस भूमिका के लिए विपक्षी नेताओं ने भी उनकी सराहना की।


1972 के राज्य चुनाव:

कांग्रेस (आर) ने राज्यों में भी अपनी पकड़ मजबूत की और लगभग सभी राज्यों में सत्ता में आ गई।


5. कांग्रेस का पुनर्गठन


नए प्रकार की कांग्रेस:


इंदिरा गांधी ने पुरानी कांग्रेस को एक नई संरचना और स्वरूप दिया।


यह पार्टी अब मुख्य रूप से इंदिरा गांधी की लोकप्रियता पर निर्भर थी।


इसका संगठनात्मक ढांचा कमजोर था और इसमें विविध विचारधाराओं और हितों को समायोजित करने की क्षमता कम हो गई थी।


पार्टी ने गरीब, महिलाएं, दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक जैसे वंचित वर्गों को अपना आधार बनाया।


लोकतांत्रिक स्थान की कमी:


जबकि कांग्रेस ने चुनावी सफलता हासिल की, यह पुराने कांग्रेस सिस्टम के समान सर्वसमावेशी नहीं रही।


लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति के स्थान सीमित हो गए, और जनता में असंतोष बढ़ने लगा।


6. विश्लेषण और निष्कर्ष


इंदिरा गांधी का नेतृत्व:

इंदिरा गांधी ने अपने साहसी निर्णयों, लोकप्रिय नीतियों और करिश्माई नेतृत्व से न केवल अपनी पार्टी को पुनर्जीवित किया, बल्कि भारतीय राजनीति में अपनी पकड़ मजबूत की।


उनकी "गरीबी हटाओ" रणनीति ने उन्हें गरीबों और वंचित वर्गों का मसीहा बना दिया।


बांग्लादेश संकट में उनकी भूमिका ने उनकी वैश्विक और राष्ट्रीय छवि को मजबूत किया।


कांग्रेस प्रणाली का पुनरुद्धार?


इंदिरा गांधी ने कांग्रेस को एक नई पहचान दी, लेकिन यह पुरानी कांग्रेस प्रणाली से अलग थी।


पार्टी अब एक नेता-केंद्रित संगठन बन गई थी, जो वंचित वर्गों पर निर्भर थी, लेकिन व्यापक मतभेदों को समायोजित करने की क्षमता खो चुकी थी।


राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव:


यह घटना भारतीय राजनीति में नेतृत्व-केंद्रित युग की शुरुआत का प्रतीक बनी।


हालांकि कांग्रेस ने अपनी लोकप्रियता और सत्ता पुनः स्थापित की, लेकिन यह स्थिरता लंबे समय तक नहीं टिक सकी, जैसा कि अगले अध्यायों में राजनीतिक संकट के माध्यम से स्पष्ट होता है।


निष्कर्ष


1971 के चुनाव और उसके बाद की घटनाएं इंदिरा गांधी की राजनीतिक रणनीति, साहसिक निर्णय और करिश्माई नेतृत्व का प्रमाण हैं। उन्होंने कांग्रेस को पुनर्जीवित किया और भारतीय राजनीति पर अपनी पकड़ मजबूत की। हालांकि, इस पुनर्गठन ने कांग्रेस को नेता-केंद्रित बना दिया, जिसने लोकतांत्रिक संतुलन और समावेशी राजनीति को कमजोर किया। यह इंदिरा युग की शुरुआत और भारतीय राजनीति के एक नए अध्याय का प्रतीक था।



अध्याय 2.6 : लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट


NCERT बुक्स में इस अध्याय का विश्लेषण भारतीय राजनीति के उस ऐतिहासिक दौर को दर्शाता है, जिसमें 1970 के दशक में आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक अस्थिरता के चलते आपातकाल (Emergency) लागू हुआ। इस समय की घटनाओं को समझने के लिए इसे विभिन्न पहलुओं में बांटा जा सकता है:


1. राजनीतिक संदर्भ


इंदिरा गांधी का उदय: 1967 के बाद इंदिरा गांधी भारतीय राजनीति में एक प्रभावशाली नेता के रूप में उभरीं। उनके नेतृत्व में राजनीति अधिक व्यक्तिगत और केंद्रित होती गई।


सरकार बनाम न्यायपालिका: न्यायपालिका और सरकार के बीच टकराव बढ़ा। सर्वोच्च न्यायालय ने कई मामलों में सरकार के फैसलों को असंवैधानिक घोषित किया, जिससे यह धारणा बनी कि न्यायपालिका सरकार की नीतियों के खिलाफ है।


विपक्ष का संगठन: गैर-कांग्रेसी दलों ने इंदिरा गांधी के खिलाफ एकजुट होना शुरू किया। इन दलों का मानना था कि राजनीति में लोकतांत्रिक मूल्यों का ह्रास हो रहा है।


2. आर्थिक परिप्रेक्ष्य


गरीबी हटाओ का नारा और वास्तविकता: 1971 में "गरीबी हटाओ" के नारे के बावजूद सामाजिक और आर्थिक स्थिति नहीं सुधरी।


आर्थिक संकट:


बांग्लादेश युद्ध: युद्ध और शरणार्थी संकट ने अर्थव्यवस्था पर भारी बोझ डाला।


तेल संकट: अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतों में भारी वृद्धि ने मुद्रास्फीति बढ़ाई।


खाद्यान्न उत्पादन में कमी: खराब मानसून ने कृषि उत्पादन को प्रभावित किया, जिससे खाद्य संकट बढ़ा।


इन आर्थिक कठिनाइयों ने जनता में असंतोष को बढ़ावा दिया।


3. गुजरात और बिहार आंदोलन


गुजरात आंदोलन (1974):


छात्रों ने महंगाई और भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रदर्शन शुरू किया।


विरोध इतना तीव्र हो गया कि गुजरात में राष्ट्रपति शासन लागू करना पड़ा और बाद में कांग्रेस की हार हुई।


बिहार आंदोलन (1974):


आंदोलन ने जयप्रकाश नारायण (जेपी) के नेतृत्व में राष्ट्रीय आंदोलन का रूप लिया।


जेपी ने "समग्र क्रांति" का आह्वान किया, जो सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सुधारों पर केंद्रित था।


यह आंदोलन इंदिरा गांधी और कांग्रेस सरकार के खिलाफ प्रत्यक्ष चुनौती बन गया।


4. रेलवे हड़ताल (1974)


महत्त्व और प्रभाव:


रेलवे कर्मचारी राष्ट्रव्यापी हड़ताल पर गए, जिससे देश की अर्थव्यवस्था प्रभावित हुई।


सरकार ने इसे अवैध घोषित किया और सख्त कदम उठाए, जिससे हड़ताल समाप्त हो गई।


प्रश्न उठे:


क्या आवश्यक सेवाओं में हड़ताल का अधिकार होना चाहिए?


श्रमिकों के अधिकार और सरकार की जिम्मेदारी के बीच संतुलन कैसे स्थापित हो?


5. सरकार और न्यायपालिका के बीच टकराव


संवैधानिक विवाद:


संसद और न्यायपालिका के बीच अधिकारों को लेकर संघर्ष हुआ।


केशवानंद भारती मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह सिद्धांत दिया कि संविधान के "मूल ढांचे" को नहीं बदला जा सकता।


मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति विवाद:


सरकार ने तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों को दरकिनार करते हुए न्यायमूर्ति ए.एन. रे को मुख्य न्यायाधीश बनाया, जिससे राजनीतिक विवाद गहराया।


इंदिरा गांधी के चुनाव को अवैध घोषित करना:


इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इंदिरा गांधी के चुनाव को अवैध करार दिया, जिससे संकट और गहरा हो गया।


6. आपातकाल की ओर अग्रसर स्थिति


इन सभी घटनाओं ने 1975 में आपातकाल की पृष्ठभूमि तैयार की। इंदिरा गांधी ने इसे विपक्षी आंदोलनों और न्यायपालिका के हस्तक्षेप को कुचलने के लिए एक राजनीतिक उपकरण के रूप में उपयोग किया।


विश्लेषण:


यह समय भारतीय लोकतंत्र के लिए एक कठिन दौर था, जिसमें राजनीतिक सत्ता और लोकतांत्रिक मूल्यों के बीच संतुलन बिगड़ गया।


सरकार की आर्थिक विफलताओं और राजनीतिक ध्रुवीकरण ने विपक्ष को संगठित होने का मौका दिया।


न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच तनाव ने संवैधानिक संकट को जन्म दिया।


आंदोलन और विरोध लोकतंत्र का हिस्सा हैं, लेकिन उन्हें सशक्त नेतृत्व और संवाद के माध्यम से संभालने की आवश्यकता होती है।


निष्कर्ष:


आपातकाल के समय की घटनाएं दिखाती हैं कि लोकतंत्र में सत्ता का केंद्रीकरण किस प्रकार प्रणाली को कमजोर कर सकता है। यह एक महत्वपूर्ण सीख है कि संकट के समय लोकतांत्रिक संस्थानों और प्रक्रियाओं को बनाए रखना क्यों जरूरी है।


आपातकाल का विश्लेषण


पृष्ठभूमि

आपातकाल (1975-77) भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक महत्वपूर्ण और विवादास्पद अध्याय है। यह घटना न केवल भारत के संवैधानिक ढांचे, बल्कि राजनीतिक और सामाजिक संरचनाओं पर भी गहरा प्रभाव डालती है। इस निर्णय का मुख्य कारण राजनीतिक संकट, न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच तनाव, और विपक्षी दलों द्वारा संगठित विरोध प्रदर्शन थे।


आपातकाल लागू करने के कारण


1. न्यायपालिका का निर्णय


इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इंदिरा गांधी की लोकसभा सदस्यता को रद्द कर दिया। यह उनके प्रधानमंत्री बने रहने के लिए खतरा था।


सुप्रीम कोर्ट ने उनकी सदस्यता को अस्थायी रूप से बनाए रखा लेकिन लोकसभा में भाग लेने पर रोक लगाई।


2. राजनीतिक दबाव


जयप्रकाश नारायण और विपक्षी दलों ने इंदिरा गांधी के इस्तीफे की मांग की।


व्यापक विरोध प्रदर्शन और सत्याग्रह का आह्वान किया गया, जिससे प्रशासनिक कार्य ठप होने का खतरा पैदा हुआ।


3. आर्थिक संकट


मुद्रास्फीति, बेरोजगारी, और खाद्यान्न संकट ने जनता में असंतोष बढ़ा दिया।


रेल हड़ताल और श्रमिक आंदोलनों ने सरकार के लिए चुनौतियां बढ़ा दीं।


4. आंतरिक अशांति का दावा


सरकार ने "आंतरिक गड़बड़ी" को आपातकाल लागू करने का आधार बताया।


आपातकाल के दौरान लिए गए प्रमुख निर्णय


1. मूल अधिकारों का निलंबन


नागरिकों के मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए गए।


प्रेस पर सेंसरशिप लागू की गई।


2. निरोधात्मक गिरफ्तारी


सरकार ने बड़े पैमाने पर विरोधियों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं को हिरासत में लिया।


न्यायालय ने सरकार की इस नीति का समर्थन किया, जिससे नागरिक अधिकार प्रभावित हुए।


3. संविधान संशोधन


42वें संविधान संशोधन द्वारा संसद और प्रधानमंत्री के चुनाव को न्यायालय के हस्तक्षेप से बाहर कर दिया गया।


विधायिकाओं का कार्यकाल 5 से 6 वर्ष कर दिया गया।


4. विरोध का दमन


राजनीतिक विरोधियों पर दबाव डालने के लिए पुलिस और प्रशासन का दुरुपयोग किया गया।


आरएसएस और जमात-ए-इस्लामी जैसे संगठनों पर प्रतिबंध लगाया गया।


आपातकाल के परिणाम


1. लोकतंत्र पर प्रभाव


आपातकाल के दौरान लोकतंत्र निलंबित हो गया और नागरिक अधिकार हाशिए पर चले गए।


इसके बावजूद, आपातकाल समाप्त होने के बाद सामान्य लोकतांत्रिक प्रक्रिया बहाल हुई।


2. संवैधानिक बदलाव


आपातकाल के प्रावधानों में सुधार किया गया। अब "आंतरिक आपातकाल" केवल "सशस्त्र विद्रोह" के आधार पर ही लागू हो सकता है।


आपातकाल लागू करने के लिए केंद्रीय मंत्रिमंडल की लिखित अनुशंसा अनिवार्य कर दी गई।


3. न्यायपालिका और नागरिक अधिकार


आपातकाल के दौरान न्यायपालिका की भूमिका की आलोचना हुई, जिससे बाद में न्यायपालिका ने नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिए सक्रिय भूमिका निभाई।


4. राजनीतिक और प्रशासनिक प्रभाव


प्रशासन और पुलिस राजनीतिक दबाव में आ गए, जो आपातकाल समाप्त होने के बाद भी एक समस्या बनी रही।


सीख और प्रश्न


1. लोकतंत्र का महत्व


आपातकाल ने दिखाया कि भारत में लोकतंत्र को स्थायी रूप से खत्म करना मुश्किल है।


2. मूल अधिकारों की रक्षा


नागरिकों और न्यायपालिका ने आपातकाल के बाद मौलिक अधिकारों की रक्षा को प्राथमिकता दी।


3. प्रदर्शन और लोकतंत्र के बीच संतुलन


यह प्रश्न उभरता है कि लोकतांत्रिक प्रणाली में प्रदर्शन की सीमा क्या होनी चाहिए और प्रशासनिक कार्य कैसे सुनिश्चित किया जाए।


निष्कर्ष

आपातकाल भारतीय राजनीति और लोकतंत्र के लिए एक गहन सबक है। इसने संवैधानिक प्रावधानों और नागरिक अधिकारों के महत्व को रेखांकित किया। साथ ही, यह भी स्पष्ट किया कि सत्ता का केंद्रीकरण और अधिकारों का दमन लंबे समय तक लोकतांत्रिक व्यवस्था को स्थिर नहीं रख सकता।



. आपातकाल का प्रभाव और उससे मिले सबक


लोकतंत्र पर प्रभाव: आपातकाल के दौरान मौलिक अधिकारों का निलंबन, प्रेस पर सेंसरशिप और हजारों लोगों की गिरफ्तारी ने लोकतंत्र की नींव को हिला दिया।


चुनावी सबक: 1977 का लोकसभा चुनाव "आपातकाल के अनुभव" पर एक जनमत संग्रह बन गया। इस चुनाव ने यह सिद्ध किया कि भारत की जनता किसी भी "अलोकतांत्रिक" शासन को सहन नहीं करेगी।


मजबूत लोकतांत्रिक नींव: आपातकाल के नकारात्मक अनुभवों ने लोकतंत्र को और अधिक मजबूत किया।


. 1977 के लोकसभा चुनाव और जनता पार्टी का उदय


राजनीतिक संगठनों का एकीकरण: विपक्षी दलों ने एकजुट होकर जनता पार्टी का गठन किया, जो 'गैर-कांग्रेसीवाद' के आधार पर काम करती थी।


जनता की प्रतिक्रिया: आपातकाल के दौरान हुए अत्याचार, जैसे जबरन नसबंदी और विस्थापन, विशेष रूप से उत्तर भारत में कांग्रेस के खिलाफ जनमत का कारण बने।


परिणाम: कांग्रेस को पहली बार हार का सामना करना पड़ा। जनता पार्टी और उसके सहयोगियों ने भारी बहुमत से जीत हासिल की।


जनता सरकार और उसकी विफलता


अस्थिरता: जनता पार्टी की सरकार आंतरिक विवादों और नेतृत्व के संघर्ष से जूझती रही।


सत्ताधारी दल की असफलता:


कोई स्पष्ट नीति या दिशा नहीं होने से सरकार कमजोर साबित हुई।


यह कांग्रेस की नीतियों में कोई बड़ा बदलाव नहीं ला सकी।


परिणाम: 1980 में जनता पार्टी को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा, और कांग्रेस सत्ता में वापस आ गई।


. आपातकाल के बाद का राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव


दल प्रणाली में परिवर्तन:


कांग्रेस ने खुद को 'गरीबों की पार्टी' और समाजवादी विचारधारा के साथ जोड़ा।


दूसरी ओर, गैर-कांग्रेसी पार्टियां 'गैर-कांग्रेसवाद' पर आधारित राजनीति पर केंद्रित रहीं।

पिछड़े वर्गों का उत्थान:


1977 के चुनावों ने उत्तर भारत में पिछड़ी जातियों की राजनीति को बढ़ावा दिया।


जनता सरकार ने मंडल आयोग का गठन किया, जो पिछड़ी जातियों के आरक्षण का मुद्दा लेकर आया।


. आपातकाल: संवैधानिक और राजनीतिक संकट


संवैधानिक संकट:


संसद और न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र को लेकर विवाद इस संकट का मुख्य कारण था।


आपातकाल के दौरान सरकार ने "असाधारण शक्तियों" का दुरुपयोग किया।


राजनीतिक संकट:


भारी बहुमत के बावजूद, सत्ताधारी दल ने लोकतांत्रिक प्रक्रिया को निलंबित कर दिया।


इससे यह सवाल खड़ा हुआ कि क्या सत्ता में आने वाले दल लोकतांत्रिक सिद्धांतों का पालन करेंगे।


जनता की भागीदारी और लोकतंत्र


सामूहिक विरोध का महत्व:


इस अवधि ने दिखाया कि संस्थान-आधारित लोकतंत्र और जनता-आधारित लोकतंत्र के बीच तनाव हो सकता है।


जनता के आंदोलन ने यह साबित किया कि लोकतंत्र केवल संस्थागत प्रक्रियाओं तक सीमित नहीं हो सकता।


निष्कर्ष


आपातकाल और उसके बाद की घटनाएं भारतीय राजनीति के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुईं। 1977 का चुनाव लोकतंत्र की पुनर्स्थापना का प्रतीक बना। इसके साथ ही, इसने दिखाया कि जनता किसी भी अलोकतांत्रिक कदम को अस्वीकार करती है और अस्थिरता या नेतृत्व की विफलता को भी बर्दाश्त नहीं करती। इस अवधि ने भारत में लोकतांत्रिक चेतना को मजबूत किया और नई सामाजिक-राजनीतिक प्रवृत्तियों की नींव रखी।


अध्याय 2.7 : क्षेत्रीय आकांक्षाएं


यह अध्याय भारत में क्षेत्रीय स्वायत्तता की बढ़ती आकांक्षाओं और राष्ट्र-निर्माण की जटिलताओं पर केंद्रित है। इसमें 1980 के दशक में क्षेत्रीय आंदोलनों की प्रवृत्तियों, भारत सरकार की प्रतिक्रिया, और इन आंदोलनों के लोकतांत्रिक तथा संवैधानिक समाधान की प्रक्रिया पर चर्चा की गई है। इसका विश्लेषण निम्नलिखित बिंदुओं पर किया जा सकता है: 1. क्षेत्रीय आकांक्षाओं का उदय और संघर्ष 1980 के दशक में भारत में कई क्षेत्रीय आंदोलनों ने गति पकड़ी, जिनका उद्देश्य स्वायत्तता या कभी-कभी भारत से पूर्ण अलगाव भी था। इन आंदोलनों के पीछे विभिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक कारण थे। इन संघर्षों का एक सामान्य पहलू यह था कि वे अक्सर हिंसक होते थे और सरकार द्वारा दमन का सामना करते थे। 2. भारतीय राष्ट्रवाद का अनूठा दृष्टिकोण भारतीय राष्ट्रवाद ने विविधता को दबाने के बजाय उसे समाहित करने का प्रयास किया। भारत ने यूरोपीय देशों की तुलना में एक अधिक समावेशी दृष्टिकोण अपनाया, जिसमें क्षेत्रीय और भाषाई पहचान को राष्ट्रीय एकता के विरोध में न देखकर, उसे भारत की समग्रता का हिस्सा माना गया। 3. लोकतंत्र और क्षेत्रीय अभिव्यक्ति भारत की लोकतांत्रिक प्रणाली ने क्षेत्रीय अस्मिताओं को राजनीति में अभिव्यक्त करने की अनुमति दी। लोकतांत्रिक चुनावों और नीतिगत निर्णयों के माध्यम से क्षेत्रीय आकांक्षाओं को मान्यता और स्थान देने का प्रयास किया गया। हालाँकि, कभी-कभी राष्ट्रीय एकता को बनाए रखने की चिंता क्षेत्रीय आकांक्षाओं पर हावी हो जाती थी, जिससे टकराव की स्थिति उत्पन्न होती थी। 4. महत्वपूर्ण क्षेत्रीय संघर्ष जम्मू और कश्मीर: भारत और पाकिस्तान के बीच विवाद के अलावा, कश्मीर घाटी के लोगों की राजनीतिक आकांक्षाएँ भी इस संघर्ष की जड़ में थीं। पूर्वोत्तर भारत: नागालैंड और मिज़ोरम में अलगाववादी आंदोलनों का उदय हुआ, जो अंततः संवैधानिक समझौतों और विशेष राज्य सुविधाओं के माध्यम से हल किए गए। द्रविड़ आंदोलन: दक्षिण भारत, विशेष रूप से तमिलनाडु में, कुछ समूहों ने अलग राष्ट्र की माँग की, लेकिन लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और राजनीतिक समायोजन के माध्यम से इसे नियंत्रित किया गया। भाषाई राज्यों की माँग: आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, और पंजाब जैसे राज्यों की पुनर्रचना भाषाई आधार पर की गई, जिससे क्षेत्रीय असंतोष को कम करने में मदद मिली। 5. समाधान और समझौते भारत सरकार ने अधिकतर क्षेत्रीय संघर्षों का समाधान संवैधानिक ढांचे के भीतर संवाद और समझौतों के माध्यम से किया। हालाँकि, इस प्रक्रिया में समय लगता था और यह अक्सर हिंसक संघर्षों के बाद ही संभव हो पाती थी। पंजाब, असम और मिज़ोरम जैसे राज्यों में अंततः शांति वार्ताओं और समझौतों के माध्यम से समाधान निकाला गया। 6. भविष्य के लिए शिक्षा यह अध्ययन केवल अतीत को समझने तक सीमित नहीं है, बल्कि यह भविष्य के लिए भी महत्वपूर्ण सबक प्रदान करता है। क्षेत्रीय आकांक्षाओं को लोकतांत्रिक प्रणाली में स्थान देना, संवाद के माध्यम से समाधान खोजना, और विविधता को स्वीकार करना भारतीय लोकतंत्र की स्थिरता के लिए आवश्यक हैं। हालाँकि, राष्ट्रीय एकता और क्षेत्रीय अधिकारों के बीच संतुलन बनाए रखना हमेशा एक चुनौती रहेगा। निष्कर्ष भारत का राष्ट्र-निर्माण क्षेत्रीय और भाषाई विविधता के सम्मान और राष्ट्रीय एकता के संरक्षण के बीच संतुलन बनाए रखने की प्रक्रिया रही है। 1980 के दशक में क्षेत्रीय आंदोलनों का उभार इस संतुलन की परीक्षा थी। भारत ने संवैधानिक और लोकतांत्रिक साधनों के माध्यम से इन संघर्षों का समाधान करने का प्रयास किया, जो इसके राजनीतिक ढांचे की लचीलापन और समावेशिता को दर्शाता है। हालांकि, यह एक सतत प्रक्रिया है, और भविष्य में भी क्षेत्रीय अस्मिता तथा राष्ट्रीय एकता के बीच संतुलन बनाना आवश्यक रहेगा। जम्मू और कश्मीर: विश्लेषण जम्मू और कश्मीर का इतिहास और राजनीतिक परिदृश्य भारत की राष्ट्र-निर्माण प्रक्रिया के जटिल और चुनौतीपूर्ण पहलुओं को दर्शाता है। इस विश्लेषण में हम इसके विभिन्न पहलुओं—संवैधानिक स्थिति, ऐतिहासिक संघर्ष, बाहरी और आंतरिक विवाद, लोकतांत्रिक प्रक्रिया की विफलताएँ, उग्रवाद और हालिया परिवर्तनों—का गहन अध्ययन करेंगे। 1. ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और संवैधानिक स्थिति जम्मू और कश्मीर को अनुच्छेद 370 के तहत विशेष दर्जा प्राप्त था, जो इसे एक स्वायत्त राज्य का दर्जा देता था। 1947 में, पाकिस्तान समर्थित कबायली आक्रमण के कारण महाराजा हरि सिंह को भारत के साथ 'इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन' पर हस्ताक्षर करने पड़े। इस मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र में ले जाया गया, जहाँ 1948 के प्रस्ताव के तहत तीन-चरणीय समाधान सुझाया गया: 1. पाकिस्तान को अपनी सेनाएँ हटानी होंगी।

2. भारत को अपनी सेना घटानी होगी। 3. कश्मीर में जनमत संग्रह कराया जाएगा। यह प्रक्रिया कभी पूरी नहीं हुई, जिससे विवाद बना रहा। 2. आंतरिक और बाहरी विवाद (i) बाहरी विवाद पाकिस्तान ने कश्मीर पर अपना दावा प्रस्तुत किया और 1947, 1965 और 1999 (कारगिल युद्ध) में संघर्ष किए। पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (PoJK) पर विवाद बना रहा। पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद और घुसपैठ ने कश्मीर को लगातार अस्थिर किया। (ii) आंतरिक विवाद अनुच्छेद 370 की अलग-अलग व्याख्याओं ने मतभेद उत्पन्न किए: एक वर्ग ने इसे भारत में पूर्ण एकीकरण में बाधा माना। दूसरा वर्ग इसे कश्मीर की स्वायत्तता के क्षरण के रूप में देखता था। लोकतंत्र का कमजोर होना: चुनावी धांधली और केंद्र सरकार का हस्तक्षेप कश्मीर में जनता के असंतोष को बढ़ाता गया। 1987 के चुनावों में बड़े पैमाने पर धांधली के आरोपों के बाद उग्रवाद ने जोर पकड़ा।

3. उग्रवाद और आतंकवाद का प्रभाव (1989 और आगे) 1989 में सशस्त्र उग्रवाद शुरू हुआ, जिसमें पाकिस्तान समर्थित आतंकवादी संगठनों का प्रभाव रहा। इस उग्रवाद के कारण: हजारों निर्दोष नागरिकों और सैनिकों की मौत हुई। कश्मीरी पंडितों का बड़े पैमाने पर पलायन हुआ, जिससे घाटी की सामाजिक संरचना बदल गई। सेना और अर्धसैनिक बलों की बड़ी तैनाती करनी पड़ी। 1996 में लोकतांत्रिक प्रक्रिया बहाल हुई, लेकिन अस्थिरता बनी रही। 4. 2019 में अनुच्छेद 370 की समाप्ति और पुनर्गठन 5 अगस्त 2019 को, अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी कर दिया गया और जम्मू-कश्मीर को दो केंद्रशासित प्रदेशों (J&K और लद्दाख) में विभाजित किया गया। इस निर्णय के प्रभाव: भारत सरकार का पूर्ण प्रशासनिक नियंत्रण स्थापित हुआ। राज्य की स्वायत्तता समाप्त हो गई, जिससे क्षेत्रीय राजनीतिक दलों और जनता में असंतोष उत्पन्न हुआ। आतंकवाद और अलगाववाद के खिलाफ कड़े कदम उठाए गए। विकास परियोजनाओं को बढ़ावा देने के लिए प्रयास किए गए। हालाँकि, इस कदम से कश्मीर में राजनीतिक अस्थिरता और मानवाधिकारों को लेकर चिंता भी बनी रही। 5. लोकतंत्र और विकास की चुनौती 2019 के बाद जम्मू और कश्मीर में स्थानीय चुनाव कराए गए, 2024 में विधानसभा चुनाव हुए हैं लेकिन चुनाव के बाद नेशनल कॉन्फ्रेंस की सरकार गठित होते ही आतंकवादी गतिविधियां तेज हो गई हैं। शांतिपूर्ण माहौल और आर्थिक विकास सुनिश्चित करना एक बड़ी चुनौती बनी हुई है। संविधान और कानूनों का समान रूप से लागू होना, नई औद्योगिक नीतियाँ, और निवेश को आकर्षित करना अब प्रशासन की प्राथमिकताएँ हैं। 6. निष्कर्ष जम्मू और कश्मीर का मुद्दा भारत की संघीय संरचना, राष्ट्रीय अखंडता और लोकतांत्रिक सिद्धांतों की परीक्षा रहा है। इतिहास ने दिखाया कि राजनीतिक संवाद, लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की मजबूती और आर्थिक विकास ही स्थायी समाधान हैं। हालाँकि, अनुच्छेद 370 के हटने के बाद शांति और स्थायित्व की स्थिति को बनाए रखना सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती बनी हुई है। आने वाले वर्षों में, राजनीतिक समावेशिता, विकास और सुरक्षा का संतुलन बनाना जम्मू और कश्मीर के भविष्य के लिए निर्णायक साबित होगा। पंजाब संकट: एक विश्लेषण पंजाब का संकट 1980 के दशक में भारतीय राजनीति और समाज के लिए एक महत्वपूर्ण चुनौती बनकर उभरा। इस संकट की जड़ें इतिहास, राजनीति, सामाजिक संरचना और आर्थिक कारकों में गहराई से समाई हुई थीं। इस विश्लेषण में हम इसके विभिन्न पहलुओं—पृष्ठभूमि, राजनीतिक संदर्भ, उग्रवाद, ऑपरेशन ब्लू स्टार, 1984 के सिख विरोधी दंगे, शांति स्थापना प्रयास और वर्तमान स्थिति—पर चर्चा करेंगे। 1. ऐतिहासिक और राजनीतिक पृष्ठभूमि पंजाब की सामाजिक संरचना विभाजन (1947) और उसके बाद हरियाणा व हिमाचल प्रदेश के अलग होने (1966) से बदली। पंजाब का गठन भाषा के आधार पर 1966 में हुआ, जिससे पंजाब में सिखों की बहुसंख्या हो गई। अकाली दल, जो 1920 में सिखों की राजनीतिक पार्टी के रूप में बनी थी, ने पंजाबी सूबा आंदोलन का नेतृत्व किया। पुनर्गठन के बाद अकाली दल को 1967 और 1977 में गठबंधन सरकार के रूप में सत्ता मिली, लेकिन यह स्थिर नहीं रही। अकाली दल को हिंदू समुदाय का पूर्ण समर्थन नहीं मिला, और दलित सिख व हिंदू ज्यादा कांग्रेस के समर्थक रहे। 1973 में आनंदपुर साहिब प्रस्ताव पारित किया गया, जिसमें क्षेत्रीय स्वायत्तता और केंद्र-राज्य संबंधों को पुनःपरिभाषित करने की मांग की गई थी। 2. उग्रवाद और हिंसा की शुरुआत 1980 में अकाली सरकार को बर्खास्त कर दिया गया, जिससे असंतोष बढ़ा। पंजाब में पानी के बंटवारे को लेकर आंदोलन हुआ, जिसमें अकाली दल ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। धार्मिक कट्टरता बढ़ी, और सिखों के एक गुट ने अलगाववादी रुख अपनाना शुरू किया। मौलिक अधिकारों की रक्षा के नाम पर चरमपंथी तत्वों का प्रभाव बढ़ने लगा, और धीरे-धीरे यह आंदोलन उग्रवाद में बदल गया। अमृतसर के स्वर्ण मंदिर को आतंकियों का गढ़ बना दिया गया। 3. ऑपरेशन ब्लू स्टार और इसके प्रभाव (1984) जून 1984 में भारत सरकार ने ऑपरेशन ब्लू स्टार चलाया, जिसमें सेना ने स्वर्ण मंदिर में घुसे उग्रवादियों को मार गिराया। हालांकि, इस सैन्य कार्रवाई में स्वर्ण मंदिर को नुकसान पहुंचा, जिससे सिख समुदाय की धार्मिक भावनाएँ आहत हुईं। इस ऑपरेशन के परिणामस्वरूप पूरे देश और विदेशों में सिखों में आक्रोश फैल गया। इंदिरा गांधी की 31 अक्टूबर 1984 को हत्या उन्हीं के सिख अंगरक्षकों द्वारा कर दी गई। 4. 1984 के सिख विरोधी दंगे और उनके प्रभाव इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली सहित कई शहरों में सिख विरोधी दंगे भड़क उठे। 2,000 से अधिक सिख मारे गए, और हजारों सिख परिवारों को भारी वित्तीय व सामाजिक नुकसान हुआ। यह दंगे सरकारी तंत्र की विफलता को दर्शाते हैं, क्योंकि सरकार समय पर हिंसा रोकने में असमर्थ रही। इस घटना ने सिख समुदाय में गहरी असुरक्षा और अलगाव की भावना पैदा की। 2005 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने संसद में इस घटना के लिए माफी मांगी।

5. शांति स्थापना के प्रयास और पंजाब समझौता (1985) राजीव गांधी और हरचंद सिंह लोंगोवाल के बीच 1985 में पंजाब समझौता हुआ। इसमें कुछ प्रमुख बिंदु शामिल थे: 1. चंडीगढ़ को पंजाब को हस्तांतरित किया जाएगा।

2. हरियाणा-पंजाब सीमा विवाद हल करने के लिए आयोग बनेगा 3. रावी-ब्यास नदी के जल बंटवारे के लिए ट्रिब्यूनल गठित होगा 4. आतंकवाद से प्रभावित लोगों को मुआवजा दिया जाएगा। 5. पंजाब से विशेष सुरक्षा कानून (AFSPA) हटाने की प्रक्रिया शुरू होगी। लेकिन इस समझौते के बावजूद हिंसा जारी रही और चरमपंथियों ने हरचंद सिंह लोंगोवाल की हत्या कर दी।

6. आतंकवाद का अंत और लोकतंत्र की वापसी 1990 के दशक तक सुरक्षा बलों ने आतंकवादियों पर नियंत्रण पा लिया, लेकिन इस दौरान पुलिस और सुरक्षाबलों द्वारा मानवाधिकारों का उल्लंघन भी हुआ। 1992 के चुनाव में मात्र 24% मतदान हुआ, जिससे पता चलता है कि जनता लोकतंत्र पर पूरी तरह विश्वास नहीं कर रही थी। 1997 में अकाली दल (बादल) और बीजेपी के गठबंधन ने चुनाव जीता, जिससे पंजाब में लोकतांत्रिक प्रक्रिया फिर से मजबूत हुई 7. वर्तमान परिप्रेक्ष्य और निष्कर्ष आज का पंजाब आतंकवाद और उग्रवाद से उबर चुका है, और आर्थिक विकास पर ध्यान केंद्रित कर रहा है। हालांकि, पानी के बंटवारे, चंडीगढ़ का दर्जा, और कृषि संकट जैसे मुद्दे अभी भी प्रासंगिक बने हुए हैं। धार्मिक पहचान अब भी महत्वपूर्ण है, लेकिन राजनीति ने एक बार फिर धर्मनिरपेक्ष दिशा में आगे बढ़ना शुरू कर दिया है। पंजाब की शांति प्रक्रिया से यह सीख मिलती है कि संवाद, समावेशी राजनीति, और संवैधानिक उपाय ही स्थायी समाधान ला सकते हैं अंततः, पंजाब संकट भारत के लिए एक महत्वपूर्ण सबक था कि कैसे केंद्र-राज्य संबंध, धार्मिक अस्मिता और राजनीतिक अस्थिरता के बीच संतुलन बनाए रखा जाए। पूर्वोत्तर भारत: एक विश्लेषण पूर्वोत्तर भारत, जो अब आठ राज्यों (अरुणाचल प्रदेश, असम, नागालैंड, मणिपुर, त्रिपुरा, मिज़ोरम, मेघालय और सिक्किम) से मिलकर बना है, ऐतिहासिक, भौगोलिक और राजनीतिक दृष्टि से भारत का एक विशेष क्षेत्र रहा है। 1980 के दशक में इस क्षेत्र की राजनीतिक और सामाजिक स्थिति महत्वपूर्ण मोड़ पर पहुंच गई थी। इस क्षेत्र की समस्याओं को तीन प्रमुख श्रेणियों में बांटा जा सकता है: आत्मनिर्णय की मांग, अलगाववादी आंदोलन और बाहरी लोगों के प्रति विरोध। इस विश्लेषण में हम इन मुद्दों को ऐतिहासिक और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में समझने का प्रयास करेंगे।

1. पूर्वोत्तर का ऐतिहासिक और भौगोलिक परिप्रेक्ष्य भौगोलिक स्थिति: यह क्षेत्र भारत के शेष हिस्से से लगभग कटा हुआ है और केवल 22 किलोमीटर चौड़े सिलीगुड़ी कॉरिडोर (चिकन नेक) से जुड़ा हुआ है। अंतरराष्ट्रीय सीमाएँ: इस क्षेत्र की सीमा चीन, म्यांमार, बांग्लादेश और भूटान से लगती है, जिससे यहाँ की राजनीति और सुरक्षा व्यवस्था जटिल बनी रहती है। भौगोलिक और आर्थिक अलगाव: भारत के विभाजन (1947) के बाद यह क्षेत्र भूमि से घिरा हुआ (landlocked) रह गया और इसकी आर्थिक प्रगति धीमी हो गई। विभाजन के कारण इसकी व्यापारिक और सांस्कृतिक कड़ियाँ कट गईं, जिससे यहाँ के लोगों में उपेक्षा की भावना घर कर गई। जनसांख्यिकीय परिवर्तन: विभाजन के बाद यहाँ बांग्लादेश (पूर्वी पाकिस्तान) से बड़े पैमाने पर प्रवास हुआ, जिससे स्थानीय आबादी की संरचना बदल गई और विभिन्न समुदायों के बीच तनाव बढ़ा। 2. आत्मनिर्णय की मांग और राज्य पुनर्गठन स्वतंत्रता के समय पूरा क्षेत्र (त्रिपुरा और मणिपुर को छोड़कर) असम का हिस्सा था। गैर-असमिया भाषी समुदायों ने महसूस किया कि असम सरकार उन पर असमिया भाषा थोप रही है। 1960 में ऑल पार्टी हिल लीडर्स कॉन्फ्रेंस बना, जिसने असम से अलग होकर एक स्वतंत्र आदिवासी राज्य की माँग उठाई। इसके परिणामस्वरूप असम से कई नए राज्य बनाए गए: 1963: नागालैंड 1972: मणिपुर, त्रिपुरा और मेघालय 1987: मिज़ोरम और अरुणाचल प्रदेश क्या यह समाधान था? राज्य पुनर्गठन से सभी समस्याएँ हल नहीं हुईं। असम में बोडो, करबी और डिमासा समुदायों ने अलग राज्य की माँग जारी रखी। इन मांगों को पूरा करने के लिए केंद्र सरकार ने जिला परिषदों (District Councils) और स्वायत्त परिषदों (Autonomous Councils) का गठन किया।

3. अलगाववादी आंदोलन (Secessionist Movements) पूर्वोत्तर में कुछ समूहों ने केवल स्वायत्तता की माँग नहीं की, बल्कि भारत से पूरी तरह अलग होने की मांग की। (i) मिज़ोरम का संघर्ष और समाधान 1959 के अकाल के दौरान असम सरकार की उदासीनता के कारण मिज़ो लोगों में असंतोष बढ़ा। 1966 में मिज़ो नेशनल फ्रंट (MNF) ने भारत से स्वतंत्रता की लड़ाई शुरू की। यह संघर्ष 20 वर्षों तक चला, जिसमें गुरिल्ला युद्ध, सेना की कार्रवाई और मानवाधिकार हनन शामिल थे। 1986 में राजीव गांधी और लालडेंगा के बीच समझौता हुआ, जिसके तहत मिज़ोरम को पूर्ण राज्य का दर्जा और विशेष अधिकार मिले। MNF ने हिंसा छोड़कर राजनीति में प्रवेश किया, और लालडेंगा मुख्यमंत्री बने। आज मिज़ोरम भारत के सबसे शांतिपूर्ण राज्यों में से एक है और शिक्षा व विकास में अग्रणी है (ii) नागालैंड का संघर्ष (अब भी जारी) 1951 में अंगामी जापू फिज़ो ने नागालैंड को भारत से स्वतंत्र घोषित कर दिया। नागा विद्रोहियों ने सशस्त्र संघर्ष शुरू किया, जिसे सरकार ने बलपूर्वक दबाने की कोशिश की। कुछ नागा समूहों ने सरकार से संधि कर ली, लेकिन कई अन्य अलगाववादी बने रहे। आज भी नागालैंड में उग्रवाद पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है और अंतिम समाधान की प्रतीक्षा की जा रही है क्या यह संघर्ष केवल अलगाववाद था? मिज़ोरम के विपरीत, नागालैंड में अनेक गुट सक्रिय हैं, जो एकजुट नहीं हैं। कई उग्रवादी गुटों को म्यांमार और चीन से समर्थन मिला, जिससे समस्या और जटिल हो गई। केंद्र सरकार ने कई समझौते किए, लेकिन अंतिम समाधान अभी तक नहीं निकला। 4. बाहरी लोगों के प्रति विरोध (Anti-foreigner Movements) पूर्वोत्तर के कई राज्यों में बाहरी लोगों (विशेषकर बंगालियों और बांग्लादेशियों) के प्रति विरोध देखा गया है। (i) असम आंदोलन (1979-1985) बांग्लादेश से आए अवैध प्रवासियों की बढ़ती संख्या ने असमिया लोगों में असंतोष पैदा किया। ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (AASU) ने बाहरी लोगों के खिलाफ आंदोलन शुरू किया। आंदोलन के दौरान हिंसा और आर्थिक नाकेबंदी हुई। 1985 में राजीव गांधी सरकार ने असम समझौते (Assam Accord) पर हस्ताक्षर किए, जिसके तहत: 1971 के बाद आए प्रवासियों को वापस भेजने की बात हुई। अवैध प्रवासियों के नाम वोटर लिस्ट से हटाने का निर्णय लिया गया आंदोलन के बाद AASU ने असम गण परिषद (AGP) नामक राजनीतिक दल बनाया और चुनाव जीता। हालांकि, प्रवासन का मुद्दा अब भी असम की राजनीति में मुख्य बना हुआ है (ii) त्रिपुरा और अन्य राज्यों की स्थिति त्रिपुरा में बंगाली प्रवासियों के कारण स्थानीय जनजातीय समुदाय अल्पसंख्यक हो गया, जिससे उग्रवाद और सामाजिक असंतोष बढ़ा। मिज़ोरम और अरुणाचल प्रदेश में भी चाकमा शरणार्थियों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन हुए। 5. निष्कर्ष: पूर्वोत्तर की राजनीति का सबक राजनीतिक समाधान संभव है: मिज़ोरम इसका सबसे अच्छा उदाहरण है, जहाँ राजनीतिक वार्ता से स्थायी समाधान निकला। अलग-अलग रणनीतियों की आवश्यकता है: जहाँ मिज़ोरम और असम में समझौते हुए, वहीं नागालैंड की समस्या अब भी जारी है। असंतोष के मूल कारणों को संबोधित करना जरूरी है: आर्थिक विकास स्थानीय समुदायों की सांस्कृतिक पहचान की रक्षा अवैध प्रवास की समस्या का समाधान क्या भविष्य में समस्या हल हो सकती है? भारत सरकार ने हाल के वर्षों में पूर्वोत्तर के विकास पर ध्यान केंद्रित किया है। सरकार की "एक्ट ईस्ट" नीति से इस क्षेत्र को दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ व्यापारिक केंद्र बनाने की योजना है। हालाँकि, स्थायी शांति के लिए स्थानीय समुदायों को विश्वास में लेकर काम करना आवश्यक है।

अतः पूर्वोत्तर की राजनीति हमें यह सिखाती है कि शक्ति का केवल सैन्य उपयोग समाधान नहीं है, बल्कि वार्ता, समझौते और समावेशी विकास ही टिकाऊ समाधान ला सकते हैं। राष्ट्रीय एकीकरण और समायोजन (Accommodation and National Integration) का विश्लेषण भारत, जो एक बहु-जातीय, बहु-भाषी और सांस्कृतिक विविधताओं से भरा हुआ राष्ट्र है, को स्वतंत्रता के 78 वर्षों के बाद भी राष्ट्रीय एकता और क्षेत्रीय आकांक्षाओं के बीच संतुलन बनाए रखने की चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। इस विश्लेषण में, हम उन सबक को समझने का प्रयास करेंगे जो हमें भारतीय लोकतंत्र के क्षेत्रीय आकांक्षाओं से निपटने के अनुभव से मिलते है।

1. क्षेत्रीय आकांक्षाएँ लोकतंत्र का अभिन्न अंग हैं भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में क्षेत्रीय आकांक्षाओं का उभरना असामान्य नहीं बल्कि स्वाभाविक है। विश्व के अन्य लोकतांत्रिक देशों में भी क्षेत्रीय अस्मिता की मांग देखी जा सकती है, जैसे- यूनाइटेड किंगडम में स्कॉटलैंड, वेल्स और उत्तरी आयरलैंड की क्षेत्रीय आकांक्षाएँ। स्पेन में बास्क और कैटालोनिया के अलगाववादी आंदोलन। श्रीलंका में तमिलों की अलगाववादी मांग। भारत में भी समय-समय पर विभिन्न राज्यों में राज्य पुनर्गठन, स्वायत्तता और आर्थिक विकास को लेकर आंदोलन हुए हैं। निष्कर्ष: राष्ट्र-निर्माण एक सतत प्रक्रिया है, और क्षेत्रीय आकांक्षाएँ लोकतंत्र का स्वाभाविक हिस्सा हैं।

2. क्षेत्रीय समस्याओं का समाधान दमन से नहीं, लोकतांत्रिक संवाद से होना चाहिए 1980 के दशक में भारत कई गंभीर क्षेत्रीय संकटों से गुजरा, जैसे: पंजाब में खालिस्तानी उग्रवाद असम में विदेशी विरोधी आंदोलन मिज़ोरम और नागालैंड में अलगाववादी संघर्ष कश्मीर में सशस्त्र विद्रोह प्रारंभ में, सरकार ने इन समस्याओं को सिर्फ कानून-व्यवस्था के नजरिए से देखा, जिससे हिंसा बढ़ी। बाद में, जब सरकार ने क्षेत्रीय आंदोलनों के साथ बातचीत और समझौते का रास्ता अपनाया, तब ही शांति स्थापित हो सकी। मिज़ोरम समझौता (1986) इसका सबसे अच्छा उदाहरण है, जहाँ बातचीत के माध्यम से स्थायी समाधान निकला। निष्कर्ष: सैन्य बल या कठोर कानून (जैसे AFSPA) अल्पकालिक समाधान हो सकते हैं, लेकिन दीर्घकालिक शांति के लिए लोकतांत्रिक वार्ता आवश्यक है।

3. सत्ता में भागीदारी (Power Sharing) से क्षेत्रीय एकता मजबूत होती है। सिर्फ औपचारिक लोकतंत्र (Formal Democracy) पर्याप्त नहीं है, बल्कि सत्ता की वास्तविक भागीदारी आवश्यक है। क्षेत्रीय दलों और नेताओं को राज्य और केंद्र दोनों स्तरों पर राजनीतिक भागीदारी दी जानी चाहिए ताकि वे राष्ट्रीय मुख्यधारा का हिस्सा महसूस करें। उदाहरण: 1985 में असम समझौते के बाद असम गण परिषद (AGP) को सत्ता में आने का मौका मिला। मिज़ो नेशनल फ्रंट (MNF) ने समझौते के बाद लोकतांत्रिक राजनीति में भाग लिया और लालडेंगा मिज़ोरम के मुख्यमंत्री बने। अगर क्षेत्रीय समूहों को सत्ता में भागीदारी नहीं मिलेगी, तो उनमें अलगाव और असंतोष की भावना पनप सकती है। निष्कर्ष: राष्ट्रीय एकता सुनिश्चित करने के लिए राज्य और केंद्र दोनों स्तरों पर सत्ता में भागीदारी आवश्यक है। 4. आर्थिक असमानता क्षेत्रीय असंतोष को बढ़ाती है भारत के विकास में क्षेत्रीय असमानता (Regional Imbalance) एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। कुछ राज्य (जैसे महाराष्ट्र, तमिलनाडु, गुजरात, कर्नाटक) तेजी से विकसित हुए, जबकि अन्य राज्य (बिहार, झारखंड, ओडिशा, पूर्वोत्तर राज्य) अल्पविकसित रहे। विकास में असमानता के कारण: औद्योगिक निवेश और बुनियादी ढांचे की कमी केंद्र और राज्यों के बीच संसाधनों का असमान वितरण प्राकृतिक संसाधनों का दोहन, लेकिन स्थानीय आबादी को लाभ नहीं (जैसे असम में तेल और कोयले का दोहन, लेकिन राज्य का अपेक्षित विकास नहीं हुआ) परिणाम: आर्थिक असमानता क्षेत्रीय असंतोष और प्रवासन को बढ़ावा देती है। त्रिपुरा में जनजातीय समुदाय बाहरी बंगाली प्रवासियों के कारण अल्पसंख्यक बन गया। असम में भी बांग्लादेशी प्रवासियों के कारण मूल असमिया लोगों में असंतोष बढ़ा। निष्कर्ष: सरकार को संतुलित क्षेत्रीय विकास पर विशेष ध्यान देना चाहिए ताकि असंतोष की भावना को रोका जा सके

5. भारतीय संविधान की दूरदर्शिता और लचीलापन (Flexibility and Foresight of the Indian Constitution) भारतीय संविधान का संघीय ढांचा बहुत लचीला है, जो विविधताओं को समायोजित करने में सक्षम है। कुछ महत्वपूर्ण प्रावधान: छठी अनुसूची (Sixth Schedule) – पूर्वोत्तर राज्यों की जनजातियों को विशेष स्वायत्तता प्रदान करता है। अनुच्छेद 370 (Article 370) का प्रावधान – जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देता था (अब समाप्त हो चुका है)। अनुच्छेद 371 – नागालैंड, मणिपुर और अन्य पूर्वोत्तर राज्यों को विशेष अधिकार प्रदान करता है। इन प्रावधानों की वजह से: भारत ने क्षेत्रीय आकांक्षाओं को अलगाववाद में बदलने से रोका। कई राज्यों में राजनीतिक और सांस्कृतिक स्वायत्तता की मांग को संवैधानिक तरीके से हल किया गया। निष्कर्ष: भारत का संघीय ढांचा स्थानीय विविधताओं को सम्मान देता है और लचीला (Flexible) है, जिससे क्षेत्रीय मुद्दों को संविधान के भीतर हल करने में मदद मिलती है। 6. निष्कर्ष: क्षेत्रीयता और राष्ट्रीय एकता के बीच संतुलन भारत की सफलता इस बात में है कि उसने क्षेत्रीय आकांक्षाओं को अलगाववाद बनने से रोका। यह सफलता निम्नलिखित कारणों से संभव हुई: संवैधानिक लचीलापन और शक्ति का विकेंद्रीकरण। संवाद और वार्ता द्वारा समस्याओं का समाधान। क्षेत्रीय दलों और समूहों को राजनीतिक भागीदारी देना। संतुलित आर्थिक विकास की नीति अपनाना।

हालाँकि, भारत को अभी भी नागालैंड, मणिपुर, कश्मीर और असम में उग्रवाद और प्रवासन जैसे मुद्दों से निपटना बाकी है। भविष्य की रणनीति: स्थानीय समुदायों को निर्णय लेने की प्रक्रिया में अधिक भागीदारी देनी होगी। समान आर्थिक विकास और बुनियादी ढांचे का निर्माण करना होगा। नवीनतम तकनीकों और शैक्षिक सुधारों से क्षेत्रीय पिछड़ेपन को दूर करना होगा। अंततः, भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था ने क्षेत्रीय आकांक्षाओं को स्वीकार करके राष्ट्रीय एकता को बनाए रखा है। यही भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी उपलब्धि है।


अध्याय 2.8 : भारतीय राजनीति में नए बदलाव


भारतीय राजनीति के 1989-2014 कालखंड का विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत कर रहा हूँ। यह अध्ययन इस अवधि की प्रमुख राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक प्रवृत्तियों को गहराई से समझने में मदद करेगा।


भारतीय राजनीति (1989-2014) का विस्तृत विश्लेषण


1. 1989: कांग्रेस युग का अंत और बहुदलीय राजनीति की शुरुआत


(i) कांग्रेस के प्रभुत्व का पतन


1984 में राजीव गांधी की अगुवाई में कांग्रेस ने 415 सीटें जीतकर अभूतपूर्व विजय प्राप्त की थी।


1989 तक सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप (बोफोर्स घोटाला), पंजाब और कश्मीर में बढ़ती अस्थिरता, और विपक्षी दलों के पुनर्गठन से कांग्रेस कमजोर होने लगी।


1989 के चुनाव में कांग्रेस केवल 197 सीटों पर सिमट गई, जिससे भारतीय राजनीति में बहुदलीय प्रणाली का युग शुरू हुआ।


(ii) 1989 में गठबंधन राजनीति की शुरुआत


राष्ट्रीय मोर्चा (जनता दल) सरकार बनी, जिसका नेतृत्व वी.पी. सिंह ने किया।


इस सरकार को भाजपा (85 सीटें) और वाम दलों का समर्थन प्राप्त था, जो परस्पर विरोधी विचारधाराओं का मेल था।


1990 में भाजपा ने समर्थन वापस लिया क्योंकि वी.पी. सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू किया।


इससे सरकार गिर गई और चंद्रशेखर ने कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाई, लेकिन यह भी अल्पकालिक रही।


2. 1990: मंडल राजनीति और जातीय ध्रुवीकरण


(i) मंडल आयोग की सिफारिशों का लागू होना


1979 में गठित मंडल आयोग की रिपोर्ट 1980 में आई थी, जिसमें OBC के लिए 27% आरक्षण की सिफारिश की गई थी।


वी.पी. सिंह सरकार ने 1990 में इसे लागू कर दिया, जिससे देशभर में विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए।


(ii) मंडल के प्रभाव और प्रतिक्रिया


आरक्षण के समर्थन में यादव, कुर्मी, लोध, कुशवाहा जैसी जातियों का एक बड़ा सामाजिक गठबंधन बना।


उच्च जातियों (ब्राह्मण, राजपूत, बनिया) के लोगों ने "एंटी-मंडल" आंदोलन चलाया।


कई छात्रों ने आत्मदाह किया, और आरक्षण विरोधी प्रदर्शनों में हिंसा हुई।


भाजपा ने 'कमंडल' (हिंदुत्व) की राजनीति शुरू की, ताकि 'मंडल' (जातिगत ध्रुवीकरण) के प्रभाव को संतुलित किया जा सके।


(iii) क्षेत्रीय दलों का उभार


समाजवादी पार्टी (सपा), बहुजन समाज पार्टी (बसपा), राष्ट्रीय जनता दल (राजद), जनता दल (यूनाइटेड) जैसी पार्टियाँ मजबूत हुईं।


उत्तर भारत में जातिगत राजनीति ने गहरी पकड़ बना ली।


3. 1992: बाबरी मस्जिद विध्वंस और हिंदुत्व राजनीति


(i) अयोध्या आंदोलन की पृष्ठभूमि


1984 में विश्व हिंदू परिषद (VHP) ने राम जन्मभूमि आंदोलन शुरू किया।


1989 में भाजपा ने इसे समर्थन दिया, और इसके बाद हिंदुत्व राजनीति को मजबूती मिली।


1990 में लालकृष्ण आडवाणी ने राम रथ यात्रा निकाली, जिसे बिहार के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने रोक दिया।


(ii) बाबरी मस्जिद विध्वंस (6 दिसंबर 1992)


अयोध्या में हजारों कारसेवकों की भीड़ ने बाबरी मस्जिद को गिरा दिया।


इसके बाद देशभर में सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे, जिसमें मुंबई, दिल्ली, गुजरात और यूपी सबसे ज्यादा प्रभावित हुए।


इस घटना के बाद भाजपा को राष्ट्रीय स्तर पर समर्थन मिला, लेकिन केंद्र में नरसिम्हा राव सरकार ने भाजपा की सरकारों को बर्खास्त कर दिया।


4. 1991-2004: आर्थिक उदारीकरण और नवउदारवाद


(i) आर्थिक संकट और सुधारों की शुरुआत


1991 में भारत आर्थिक संकट से जूझ रहा था, विदेशी मुद्रा भंडार लगभग समाप्त हो चुका था।


तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव और वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने नई आर्थिक नीति (LPG - Liberalization, Privatization, Globalization) लागू की।


(ii) प्रमुख सुधार


लाइसेंस राज समाप्त किया गया।


विदेशी कंपनियों के निवेश के लिए FDI (Foreign Direct Investment) के दरवाजे खोले गए।


सरकारी कंपनियों (PSUs) का निजीकरण शुरू हुआ।


(iii) प्रभाव और आलोचना


भारतीय अर्थव्यवस्था में तेजी से वृद्धि हुई, लेकिन आर्थिक असमानता बढ़ी।


ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि संकट गहराया, और किसानों की आत्महत्याएँ बढ़ीं।


5. 1996-1999: गठबंधन राजनीति का अस्थिर दौर


1996 में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनी (161 सीटें), लेकिन बहुमत नहीं होने के कारण सरकार 13 दिन में गिर गई।


1996-1998 के बीच संयुक्त मोर्चा सरकारें (एच.डी. देवेगौड़ा और आई.के. गुजराल) बनीं, लेकिन अस्थिर रहीं।


1998 में भाजपा के नेतृत्व में एनडीए सरकार बनी, लेकिन 13 महीने बाद गिर गई।


1999 में वाजपेयी की सरकार बनी और पहली बार भाजपा ने पूर्ण कार्यकाल पूरा किया।


6. 2004-2014: यूपीए सरकार और नीतिगत परिवर्तन


(i) 2004 में कांग्रेस की वापसी और यूपीए सरकार


मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने, और कई कल्याणकारी योजनाएँ लाई गईं:


मनरेगा (MGNREGA)


RTI (सूचना का अधिकार कानून)


कृषि ऋण माफी योजना


(ii) 2008: आर्थिक मंदी और महंगाई


वैश्विक आर्थिक संकट के कारण भारत में भी मंदी आई।


यूपीए सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे, खासकर 2G घोटाला, कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाला।


(iii) 2014 में भाजपा की पूर्ण बहुमत से जीत


नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने 282 सीटें जीतकर 30 वर्षों में पहली बार पूर्ण बहुमत प्राप्त किया।


इसने गठबंधन राजनीति के युग को समाप्त कर दिया।


समग्र निष्कर्ष: भारतीय राजनीति के प्रमुख बदलाव (1989-2014)


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समग्र निष्कर्ष


1989 के बाद भारतीय राजनीति में तीन प्रमुख बदलाव आए:


1. कांग्रेस के प्रभुत्व का दौर पूरी तरह समाप्त। गठबंधन की राजनीति का दौर प्रारंभ, जिसमें कोई भी पार्टी लंबे समय तक पूर्ण बहुमत नहीं पा सकी। क्षेत्रीय दलों का महत्व बढ़ा। भारतीय जनता पार्टी का एक मजबूत राजनीतिक दल के रूप में उदय।


2. जाति और धर्म आधारित राजनीति का उभार, जिसने चुनावी रणनीतियों को बदला।पिछड़ा वर्ग की राजनीति और हिन्दुत्व की राजनीति ने मतदाताओं में ध्रुवीकरण को बढ़ावा दिया।


3. आर्थिक उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण ने भारतीय अर्थव्यवस्था को बदल दिया लेकिन सामाजिक असमानता को भी बढ़ाया।


भारतीय राजनीति के प्रमुख बदलाव ( 1989-2014 ) : एक समग्र निष्कर्ष


अवधि, प्रमुख घटनाएँ और प्रभाव


  • 1989- कांग्रेस की गिरावट , गठबंधन सरकारों का दौर शुरू

  • 1990- मंडल आयोग लागू ,जातिगत राजनीति का उभार

  •  1992- बाबरी मस्जिद विध्वंस , हिंदुत्व राजनीति को बढ़ावा

  • 1991-2004- आर्थिक उदारीकरण , निजीकरण , वैश्वीकरण

  • 1998-2004- भाजपा की स्थिर सरकार , पोखरण परमाणु परीक्षण

  • 2004-2014- यूपीए सरकार , सामाजिक कल्याण योजनाएँ , भ्रष्टाचार घोटाले

  •  2014-2024- भाजपा को पूर्ण बहुमत ,

  • 2024- के आगे पुनः गठबंधन की राजनीति क्षेत्रीय दलों का महत्व बढ़ा।









क्रमशः.........


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