क्षेत्रीय आकांक्षाएँ (Regional Aspirations) –
भारत एक बहु-सांस्कृतिक, बहुभाषी और विविधतापूर्ण राष्ट्र है, जहाँ विभिन्न क्षेत्रों की अपनी विशिष्ट पहचान और आकांक्षाएँ हैं। स्वतंत्रता के बाद, भारत ने एक संघीय ढाँचा (Federal Structure) अपनाया, जिससे विभिन्न राज्यों को स्वायत्तता और पहचान बनाए रखने का अवसर मिला। हालांकि, कई क्षेत्रों में राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक कारणों से क्षेत्रीय असंतोष भी उत्पन्न हुआ।
क्षेत्रीय आकांक्षाएँ कभी-कभी राजनीतिक स्वायत्तता (Political Autonomy), कभी अलग राज्य की माँग, और कभी-कभी पूर्ण स्वतंत्रता (Secession) की माँग के रूप में सामने आई हैं। भारत सरकार ने विभिन्न तरीकों से इन आंदोलनों का समाधान करने की कोशिश की, जैसे कि संविधान संशोधन, राजनीतिक समझौते, सैन्य हस्तक्षेप और आर्थिक विकास योजनाएँ।
इस विषय में, जम्मू-कश्मीर, पंजाब, उत्तर-पूर्वी भारत, और तमिलनाडु जैसे प्रमुख क्षेत्रों के क्षेत्रीय संघर्षों और उनके समाधान का अध्ययन किया जाता है। कुछ संघर्ष जैसे मिज़ोरम (1986 समझौता) शांति से हल हो गए, जबकि कुछ मामलों में हिंसा और उग्रवाद देखने को मिला, जैसे कि पंजाब में खालिस्तान आंदोलन और कश्मीर में आतंकवाद।
भारत की सबसे बड़ी शक्ति उसकी "विविधता में एकता " (Unity in Diversity) की नीति है। संविधान ने विशेष प्रावधानों, स्वायत्तता और क्षेत्रीय समझौतों के माध्यम से राष्ट्रीय एकता और क्षेत्रीय आकांक्षाओं के बीच संतुलन बनाए रखा है। हालाँकि, आर्थिक असमानता, बाहरी हस्तक्षेप और सांस्कृतिक मतभेद अब भी क्षेत्रीय तनाव को जन्म देते हैं।
निष्कर्षतः, क्षेत्रीय आकांक्षाएँ लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। भारत ने विभिन्न तरीकों से क्षेत्रीय असंतोष को समायोजित करने का प्रयास किया है, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि राष्ट्र की एकता बनी रहे और साथ ही विभिन्न राज्यों की पहचान भी सुरक्षित रहे।
क्षेत्रीय आकांक्षाएँ (Regional Aspirations)
1. परिचय (Introduction)
राष्ट्र-निर्माण एक सतत प्रक्रिया है।स्वतंत्रता के कई दशकों बाद भी यह प्रक्रिया जारी है। इस बीच भारत को विभिन्न क्षेत्रीय चुनौतियों का भी सामना करना पड़ा।कुछ क्षेत्र अधिक स्वायत्तता (Autonomy) के लिए चुनौती पेश कर रहे थे, तो कुछ ने अलग राष्ट्र की मांग की।
क्षेत्रीय आकांक्षाओं से जुड़ें मुख्य प्रश्न:
क्षेत्रीय आकांक्षाओं के उदय के क्या कारण हैं?
भारत सरकार इन आकांक्षाओं के समाधान कैसे निकाले?
राष्ट्रीय एकता और क्षेत्रीय समूहों के लोकतांत्रिक अधिकारों के बीच संतुलन कैसे बनाया जाए?
2. भारत का क्षेत्रीयता के प्रति दृष्टिकोण
भारत की विशिष्टता उसकी बहुलतावाद (Pluralism) में निहित है।
कई यूरोपीय देशों ने सांस्कृतिक विविधता को खतरे के रूप में देखा, जबकि भारत ने इसे अपनी शक्ति माना।
लोकतांत्रिक दृष्टिकोण:
क्षेत्रीय आकांक्षाएँ हमेशा राष्ट्र-विरोधी नहीं होतीं।लोकतांत्रिक ढांचे में क्षेत्रीय पहचान को स्वीकृति होती हैं।
उदाहरण:
द्रविड़ आंदोलन (तमिलनाडु) – पहले अलगाववाद की बात हुई, लेकिन बाद में लोकतंत्र के माध्यम से अपने अधिकार प्राप्त किए।
पंजाब, उत्तर-पूर्व, कश्मीर आंदोलन – सरकार ने कभी दमन किया, तो कभी समझौते किए।
3. प्रमुख क्षेत्रीय विवाद (Key Areas of Tension)
3.1. जम्मू-कश्मीर
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
1947 से पहले: जम्मू-कश्मीर एक रियासत थी, जिसके राजा हरि सिंह थे।
1947 विभाजन:
पाकिस्तान ने कबाइली आक्रमण कराया, जिससे महाराजा ने भारत से सैन्य सहायता मांगी।
संघीय समझौता (Instrument of Accession) के तहत जम्मू-कश्मीर भारत में शामिल हुआ।
पाकिस्तान ने एक तिहाई क्षेत्र (POK) पर कब्ज़ा कर लिया, जिससे संघर्ष जारी रहा।
अनुच्छेद 370:
जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा दिया गया, जिससे राज्य को अपनी संविधान-व्यवस्था मिली।
इसे कुछ लोगों ने भारत में पूर्ण एकीकरण में बाधा माना, जबकि कुछ ने कहा कि इसकी स्वायत्तता धीरे-धीरे कमजोर की गई।
संघर्ष और आतंकवाद का उदय
1953: शेख अब्दुल्ला को पद से हटाया गया, जिससे असंतोष बढ़ा।
1987 चुनाव: धांधली के आरोपों के कारण जनता में आक्रोश बढ़ा और उग्रवाद पनपा।
1989: पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद शुरू हुआ।
1990 के बाद: सेना की कार्यवाही और आतंकवादी गतिविधियाँ बढ़ीं।
2019: अनुच्छेद 370 को समाप्त कर जम्मू-कश्मीर को दो केंद्र शासित प्रदेशों में विभाजित किया गया।
3.2. द्रविड़ आंदोलन (तमिलनाडु)
शुरुआत और विकास
20वीं सदी की शुरुआत: ई.वी. रामासामी पेरियार ने ब्राह्मणवादी वर्चस्व और उत्तर भारतीय प्रभुत्व के खिलाफ आंदोलन शुरू किया।
द्रविड़ कषगम (DK) और बाद में द्रविड़ मुनेत्र कषगम (DMK) ने अधिक स्वायत्तता की मांग की।
महत्वपूर्ण आंदोलन:
1953-54: उत्तर भारतीय नामों के खिलाफ आंदोलन।
1965: हिंदी थोपने के खिलाफ बड़े विरोध प्रदर्शन।
परिणाम और प्रभाव
1967: DMK ने तमिलनाडु में चुनाव जीता, जिससे कांग्रेस का प्रभुत्व समाप्त हो गया।
बाद के वर्षों में: क्षेत्रीय दलों ने राष्ट्रीय राजनीति में भी भागीदारी की।
तमिलनाडु उदाहरण है कि क्षेत्रीयता और राष्ट्रवाद साथ-साथ चल सकते हैं।
3.3. पंजाब और खालिस्तान आंदोलन
पृष्ठभूमि
1947 विभाजन: पंजाब दो भागों में बंट गया, जिससे लाखों लोगों का पलायन हुआ।
1966: पंजाब को हरियाणा और हिमाचल प्रदेश से अलग किया गया।
शिरोमणि अकाली दल (SAD) ने अधिक स्वायत्तता की मांग की।
आनंदपुर साहिब प्रस्ताव (1973):
पंजाब को अधिक शक्ति देने की मांग की गई।
केंद्र सरकार को शक हुआ कि यह अलगाववाद को बढ़ावा देगा।
चरमपंथ का उदय
1980 के दशक: जरनैल सिंह भिंडरावाले ने खालिस्तान की मांग उठाई।
ऑपरेशन ब्लू स्टार (1984):
भारतीय सेना ने स्वर्ण मंदिर से उग्रवादियों को निकाला।
इस कार्यवाही से सिख समुदाय में आक्रोश बढ़ा।
इंदिरा गांधी की हत्या (1984):
उनके सिख अंगरक्षकों ने बदला लिया।
इसके बाद दिल्ली और अन्य शहरों में सिख विरोधी दंगे हुए।
राजीव गांधी-लोंगोवाल समझौता (1985):
पंजाब को शांति के रास्ते पर लाने की कोशिश की गई।
1997 के बाद: पंजाब में शांति आई और अर्थव्यवस्था पर ध्यान केंद्रित हुआ।
3.4. उत्तर-पूर्व भारत
राजनीतिक संरचना और जातीय विविधता
आठ राज्य: असम, अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा, मेघालय, सिक्किम।
ऐतिहासिक रूप से अलग-थलग क्षेत्र, जहाँ बहुत सी भाषाएँ और जनजातीय समूह हैं।
1947 के बाद की चुनौतियाँ:
विभाजन के कारण व्यापार मार्ग बंद हुए।
बांग्लादेश से प्रवास (immigration) के कारण तनाव बढ़ा।
अलगाववादी आंदोलन उभरे।
मुख्य मुद्दे
1. स्वायत्तता की मांग:
नागालैंड (1963), मेघालय (1972), मिजोरम (1987) असम से अलग किए गए।
बोडो, कारबी और डिमासा जनजातियाँ अभी भी अधिक स्वायत्तता चाहती हैं।
2. अलगाववादी आंदोलन:
नागालैंड (1951): एंगामी झापू फिज़ो के नेतृत्व में अलग देश की मांग की गई।
मिजोरम (1966): मिजो नेशनल फ्रंट (MNF) ने सशस्त्र संघर्ष किया।
1986 मिजोरम समझौते से शांति स्थापित हुई।
3. बाहरी लोगों के खिलाफ आंदोलन (असम आंदोलन, 1979-85):
अवैध बांग्लादेशी प्रवास के खिलाफ प्रदर्शन।
1985 असम समझौता: प्रवासियों की पहचान और निर्वासन का वादा किया गया।
4. निष्कर्ष और शिक्षाएँ
1. क्षेत्रीयता लोकतंत्र का हिस्सा है।
2. संवाद और समझौता हिंसा से बेहतर समाधान हैं।
3. राजनीतिक शक्ति-साझेदारी आवश्यक है।
4. आर्थिक असमानता को दूर करना महत्वपूर्ण है।
5. भारत का संघीय संविधान लचीला और समायोजक है।
5. समापन
भारत की सफलता उसकी बहुलतावाद को संभालने की क्षमता में है।
क्षेत्रीयता अलगाववाद में बदलने की ज़रूरत नहीं है; यह लोकतंत्र को मजबूत कर सकता है।
भारत को हमेशा "एकता में विविधता" के सिद्धांत पर चलते रहना होगा।
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