भारतीय राजनीति में हालिया परिवर्तन
भारत की राजनीति ने 1980 के दशक के अंत से लेकर अब तक कई महत्वपूर्ण बदलाव देखे हैं। इस दौरान एक-दलीय वर्चस्व (Single-Party Dominance) की समाप्ति, गठबंधन सरकारों (Coalition Governments) का उदय, आर्थिक उदारीकरण (Economic Liberalization), जाति आधारित राजनीति (Caste-Based Politics), और धार्मिक मुद्दों (Religious Issues) का राजनीति पर प्रभाव प्रमुख रहे। इस लेख में 1989 से लेकर वर्तमान तक की राजनीतिक घटनाओं का विश्लेषण किया गया है, जिससे भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था पर पड़े प्रभाव को समझा जा सके।
1. 1990 का दशक: भारतीय राजनीति का एक नया मोड़
1980 के दशक के अंत और 1990 के दशक की शुरुआत में भारतीय राजनीति में कई महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। कांग्रेस के वर्चस्व का पतन, मंडल आयोग की सिफारिशों का क्रियान्वयन, नई आर्थिक नीति, राम जन्मभूमि आंदोलन, और गठबंधन सरकारों का दौर इसी समय शुरू हुआ।
1.1 कांग्रेस का पतन और बहुदलीय राजनीति की शुरुआत
1947 से 1989 तक भारतीय राजनीति में कांग्रेस पार्टी का दबदबा था। लेकिन 1989 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को 197 सीटों पर सिमट जाना पड़ा, जो कि 1984 में 415 सीटों से काफी कम था। यह घटना भारत में ‘कांग्रेस प्रणाली’ (Congress System) के अंत का संकेत थी।
हालांकि 1991 के चुनावों में कांग्रेस फिर से सत्ता में आई और पी.वी. नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने, लेकिन अब वह पहले की तरह सर्वेसर्वा नहीं रही। इस दौरान क्षेत्रीय दलों और गठबंधन सरकारों का युग शुरू हुआ।
1.2 मंडल आयोग और ओबीसी राजनीति का उभार
1980 में गठित मंडल आयोग ने अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के लिए 27% आरक्षण की सिफारिश की थी। 1990 में वी.पी. सिंह सरकार ने इसे लागू कर दिया, जिससे देशभर में आरक्षण समर्थक और विरोधी आंदोलनों की लहर उठी।
इस नीति से समाजवादी पार्टी (SP), राष्ट्रीय जनता दल (RJD) जैसे दलों को मजबूती मिली और ओबीसी राजनीति का उभार हुआ। इस दौर में जातिगत राजनीति भारतीय चुनावों का महत्वपूर्ण पहलू बन गई।
1.3 आर्थिक उदारीकरण और नई आर्थिक नीति
1991 में पी.वी. नरसिम्हा राव सरकार और वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने आर्थिक उदारीकरण (Liberalization), निजीकरण (Privatization) और वैश्वीकरण (Globalization) की नीति अपनाई।
इन सुधारों के बाद:
सरकारी नियंत्रण (License Raj) समाप्त हुआ और विदेशी निवेश को बढ़ावा मिला।
तेजी से आर्थिक विकास हुआ, लेकिन गरीबी, असमानता और बेरोजगारी जैसी चुनौतियां बनी रहीं।
भले ही वामपंथी दलों और ट्रेड यूनियनों ने इन नीतियों का विरोध किया, लेकिन 1991 के बाद हर सरकार ने इन्हें जारी रखा।
1.4 राम जन्मभूमि आंदोलन और सांप्रदायिक राजनीति
1990 के दशक में अयोध्या विवाद भारतीय राजनीति के केंद्र में आ गया।
1986 में फैजाबाद जिला न्यायालय ने बाबरी मस्जिद को हिंदुओं के लिए खोलने का आदेश दिया।
1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद देशभर में दंगे हुए।
इससे भाजपा (BJP) को हिंदू वोटबैंक मिला और वह राष्ट्रीय स्तर पर एक प्रमुख राजनीतिक शक्ति बन गई।
यह विवाद 2019 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद समाप्त हुआ, जिसमें राम मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया गया।
2. गठबंधन सरकारों का युग (1989-2014)
2.1 बहुदलीय गठबंधनों का निर्माण
1989 से 2014 के बीच भारत में कोई भी पार्टी अकेले सरकार बनाने में सक्षम नहीं रही। इसलिए गठबंधन सरकारों का दौर शुरू हुआ:
राष्ट्रीय मोर्चा (1989-1991) – वी.पी. सिंह के नेतृत्व में बना, जिसे भाजपा और वामपंथी दलों ने बाहर से समर्थन दिया।
संयुक्त मोर्चा (1996-1998) – क्षेत्रीय दलों और समाजवादी दलों का गठबंधन, जिसे कांग्रेस ने समर्थन दिया।
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) (1998-2004) – भाजपा के नेतृत्व में बना, जिसमें अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने।
संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (UPA) (2004-2014) – कांग्रेस के नेतृत्व में बना, जिसमें डॉ. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने।
2.2 क्षेत्रीय दलों का प्रभाव
गठबंधन सरकारों के दौर में डीएमके (DMK), एआईएडीएमके (AIADMK), तेदेपा (TDP), बीएसपी (BSP), सपा (SP), आरजेडी (RJD), शिवसेना जैसे क्षेत्रीय दलों का प्रभाव बढ़ा। ये दल राष्ट्रीय राजनीति में भी निर्णायक भूमिका निभाने लगे।
3. 2014 के बाद: भाजपा का वर्चस्व
3.1 मोदी सरकार और भाजपा की बहुमत सरकारें
2014 के लोकसभा चुनावों में भाजपा ने 282 सीटें जीतकर पूर्ण बहुमत हासिल किया। 2019 में भाजपा ने 303 सीटें जीतकर इस प्रदर्शन को दोहराया।
भाजपा की सफलता के कारण:
नरेंद्र मोदी का नेतृत्व, जिन्होंने विकास और सुशासन को चुनावी मुद्दा बनाया।
हिंदुत्व और राष्ट्रवाद, जिससे भाजपा को व्यापक जनसमर्थन मिला।
कल्याणकारी योजनाएं, जैसे जन धन योजना, उज्ज्वला योजना, आयुष्मान भारत।
तकनीकी और डिजिटल प्रचार, जिससे भाजपा का संदेश व्यापक रूप से फैला।
3.2 कांग्रेस का पतन और विपक्ष की कमजोरी
2014 के बाद कांग्रेस पार्टी कमजोर होती गई:
2014 में कांग्रेस सिर्फ 44 सीटों पर सिमट गई, जो अब तक की सबसे खराब हार थी।
2019 में भी कांग्रेस सिर्फ 52 सीटें जीत पाई।
नेतृत्व संकट और गुटबाजी ने कांग्रेस की स्थिति को और कमजोर कर दिया।
विपक्ष की एकता की कमी के कारण भाजपा लगातार मजबूत बनी हुई है।
4. भारतीय राजनीति में नए रुझान
4.1 मुख्य मुद्दों पर आम सहमति
हालांकि पार्टियों के बीच प्रतिस्पर्धा बनी हुई है, लेकिन कुछ मुद्दों पर सभी दल सहमत हैं:
आर्थिक उदारीकरण – अब सभी प्रमुख दल इस नीति का समर्थन करते हैं।
ओबीसी आरक्षण – सभी दल आरक्षण की नीति को स्वीकार करते हैं।
क्षेत्रीय दलों की भूमिका – राज्यों की राजनीति में इनका प्रभाव राष्ट्रीय स्तर तक बढ़ गया है।
प्रायोगिक गठबंधन राजनीति – वैचारिक मतभेदों को दरकिनार कर सत्ता साझेदारी हो रही है, जैसे एनडीए और यूपीए।
4.2 गठबंधन राजनीति का भविष्य
हालांकि भाजपा ने 2014 और 2019 में बहुमत हासिल किया, लेकिन राज्यों में गठबंधन राजनीति अभी भी महत्वपूर्ण बनी हुई है। क्षेत्रीय दल सत्ता संतुलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।
5. निष्कर्ष: भारत में लोकतंत्र का विकास
भारत की राजनीति में 1989 से अब तक अनेक परिवर्तन हुए हैं।
कांग्रेस का वर्चस्व समाप्त हुआ और भाजपा राष्ट्रीय स्तर पर उभरी।
क्षेत्रीय और जातिगत दलों की भूमिका मजबूत हुई।
गठबंधन राजनीति ने लोकतंत्र को अधिक प्रतिस्पर्धी बनाया।
भविष्य में, भारतीय राजनीति क्षेत्रीय दलों, विपक्ष की रणनीति, और सामाजिक-आर्थिक नीतियों पर निर्भर करेगी। लेकिन एक बात निश्चित है – लोकतांत्रिक राजनीति भारत में जारी रहेगी और समय के साथ नए आयाम लेती रहेगी।
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