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The Evolution of Indian Citizenship: Insights from Part 2 of the Constitution

भारतीय संविधान भाग 2: नागरिकता और सामाजिक न्याय की दिशा भारत का संविधान, दुनिया के सबसे विस्तृत और समावेशी संविधानों में से एक है, जो न केवल राज्य की संरचना और प्रशासन के ढांचे को निर्धारित करता है, बल्कि नागरिकों के अधिकारों और कर्तव्यों को भी स्पष्ट रूप से परिभाषित करता है। भारतीय संविधान का भाग 2 भारतीय नागरिकता से संबंधित है, जो एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के मूलभूत ताने-बाने को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। नागरिकता की परिभाषा और महत्व संविधान का भाग 2 भारतीय नागरिकता को परिभाषित करता है, यह स्पष्ट करता है कि एक व्यक्ति को भारतीय नागरिकता कब और कैसे प्राप्त होती है, और किन परिस्थितियों में यह समाप्त हो सकती है। नागरिकता, किसी भी देश में व्यक्ति और राज्य के बीच एक संप्रभु संबंध को स्थापित करती है। यह एक व्यक्ति को अपने अधिकारों का दावा करने का अधिकार देती है और साथ ही राज्य के प्रति उसकी जिम्मेदारियों को भी स्पष्ट करती है। भारतीय संविधान में नागरिकता की प्राप्ति के विभिन्न आधार हैं, जैसे जन्म, वंश, और पंजीकरण के माध्यम से। यह सुनिश्चित करता है कि कोई भी व्यक्ति, जो भारत...

12th राजनीति विज्ञान अध्याय 2.2 : एक दल के प्रभुत्व का दौर

 अध्याय-2.2 : एक दल के प्रभुत्व का दौर

भारत में पहले आम चुनाव करवाने के लिए उठाए गए विभिन्न कदमों का वर्णन कीजिये। ये चुनाव किस सीमा तक सफ़ल रहे?    ( CBSC)

भारतीय चुनाव आयोग का गठन 25 जनवरी 1950 में हुआ था।सुकुमार सेन पहले चुनाव आयुक्त बने थे। चुनाव आयोग के लिए स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव कराना आसान नही था।चुनाव कराने के पूर्व निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन करना, मतदाता सूची तैयार कराना आदि कार्य सम्पन्न किया गया। मतदाता सूची तैयार करने के दौरान पता चला कि लगभग 40 लाख महिलाओं का कोई नाम ही नही था। इन्हें फलाने की बेटी,फलाने की बहू फलाने की माई या फलाने की जोरू के नाम से जाना जाता था। ऐसी स्थिति में चुनाव आयोग के लिए यह कार्य हिमालय की चढ़ाई जैसा दुष्कर प्रतीत हो रहा था। उस समय देश में 17 करोड़ मतदाता थे। 3200 विधायक और 489 सांसद चुने जाने थे। अतः इतने बड़े चुनाव को कराने के लिए 3 लाख से ज्यादा कर्मचारियों को प्रशिक्षित किया गया था।

इतने विशाल आकार के देश में चुनाव कराना इसलिए भी दुष्कर था क्योंकि हमारे देश में उस समय केवल 15 प्रतिशत मतदाता ही शिक्षित थे। बहुसंख्यक आबादी अनपढ़ और गरीब थी। इस वक्त तक माना जाता था कि लोकतंत्र केवल धनी देशों में ही संभव था और ऐसे देशों में भी महिलाओं को मताधिकार से दूर रखा गया था। जबकि भारत में पहले चुनाव से ही महिलाओं को मताधिकार दिया जा रहा था। एक हिन्दुतानी संपादक ने इसे इतिहास का सबसे बड़ा जुआ करार दिया था। आर्गनाइजर नाम की पत्रिका ने लिखा कि जवाहर लाल नेहरू अपने जीवित रहते ही यह देख लेंगें और पछतायेंगे कि भारत में सार्वभौम वयस्क मताधिकार असफल रहा। इंडियन सिविल सर्विस के एक अंग्रेज अधिकारी का दावा था कि "आने वाला वक्त  बड़े विस्मय से लाखों अनपढ़ लोगों के मतदान की यह बेहूदी नौटंकी देखेगा।

इस लंबी तैयारी में समय तो लगना ही था। तैयारियां पूरी न हो पाने के कारण दो बार  चुनाव कार्यक्रम को स्थगित करना पड़ा था।आखिरकार अक्टूबर 1951 से फरवरी1952 में चनाव हुए। लेकिन इस चुनाव को 1952 का आम चुनाव कहा जाता है। क्योकि देश के अधिकतर हिस्सों में मतदान 1952 में हुआ था।इस चुनाव में लोगों ने बढ़चढ़ कर हिस्सेदारी की।औसतन एक निर्वाचन क्षेत्र से चार उम्मीदवार मैदान में थे।आधे से अधिक लोगों ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया।

चुनाव परिणामों के बाद हारे हुए प्रत्याशी भी चुनाव को निष्पक्ष बताए। मतदाताओं की इस भागीदारी ने आलोचकों का मुंह बंद कर दिया। टाइम्स ऑफ इंडिया ने यह माना कि 'इन चुनावों ने उन सभी आलोचकों की आशंकाओं पर पानी फेर दिया है, जो सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार  को भारत के लिए एक जोखिम भरा सौदा मान रहे थे।' हिंदुस्तान टाइम्स ने लिखा कि "यह बात हर जगह मानी जा रही है कि भारतीय जनता ने विश्व के इतिहास में लोकतंत्र के सबसे बड़े प्रयोग को बखूबी अंजाम दिया।

इस प्रकार 1952 का आम चुनाव पूरी दुनिया में लोकतंत्र के इतिहास के लिए मील का पत्थर साबित हुआ। यह बात अब असत्य साबित हो गयी कि लोकतांत्रिक चुनाव गरीबी और अशिक्षा के माहौल में नही कराए जा सकते।

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पहले तीन आम चुनावों में कांग्रेस के प्रभुत्व के कारणों का विश्लेषण कीजिए। (CBSC) 

अथवा

भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में लगभग तीन दशकों तक कांग्रेस का प्रभुत्व बनाए रखने में सहायक किन्हीं तीन कारकों का मूल्यांकन कीजिए। (CBSC)

अथवा

स्वतंत्रता के बाद लगभग तीन दशक तक भारत में कांग्रेस पार्टी के शासन के कोई तीन कारण बताएं।

प्रारंभिक दौर में कांग्रेस पार्टी का भारतीय राजनीति में प्रभुत्व था। प्रथम आम चुनाव में उसे 489 सीटों में से 364 सीटें प्राप्त हुई। जबकि दूसरी सबसे बड़ी पार्टी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को मात्र 16 सीटों से ही संतोष करना पड़ा था। लोकसभा के साथ-साथ विधानसभा के भी चुनाव हुए थे।कांग्रेस पार्टी को विधानसभा के चुनावों में भी भारी जीत मिली थी। त्रावणकोर-कोचीन (वर्तमान केरल),मद्रास(वर्तमान तमिलनाडु) उड़ीसा(वर्तमान उडीसा) को छोड़कर पूरे भारत में कांग्रेस को पूर्ण बहुमत मिला था।हलाकि सरकार पूरे भारत में कांग्रेस की ही बनी थी। अतः आइये जानते हैं, कांग्रेस की इस बड़ी सफलता के क्या कारण थे?

राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन की वारिस पार्टी

कांग्रेस पार्टी की इस असाधारण सफलता की जड़े स्वाधीनता संग्राम की विरासत में हैं।कांग्रेस पार्टी को राष्ट्रीय आंदोलन के वारिस के रूप में देखा गया। स्वतंत्रता आंदोलन में अग्रणी रहे अनेक नेता अब कांग्रेस के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ रहे थे। अतः इनकी जीत स्वाभाविक थी।

राष्ट्रीय स्तरीय संगठनात्मक ढांचा

कांग्रेस पार्टी की स्थापना 1885 में हुई थी अतः 1952 तक उसका संगठनात्मक ढांचा बहुत ही मजबूत और राष्ट्रीय स्तर पर फैला था जबकि सभी विपक्षी पार्टियां अभी-अभी अस्तित्व में आई थी और इनका संगठनात्मक ढांचा कमजोर व क्षेत्रीय था।अतः कांग्रेस पार्टी को इसका फायदा मिलना स्वाभाविक था।

विभिन्न विचारधाराओं का समावेश

कांग्रेस की कोई एक खास विचारधारा नही थी वरन यह कई विचारधाराओं को अपने में समेटे हुए थी। कांग्रेस के अंदर  क्रांतिकारी और शांतिवादी, कंजरवेटिव और रेडिकल, नरमपंथी और गरमपंथी, दक्षिणपंथी और बामपंथी सभी विचारधाराओं का समावेश था। अर्थात अपने विचारों और विश्वासों को मानते हुए भी कांग्रेस में बने रहने की छूट ही कांग्रेस की ताकत थी।अतः हर विचारधारा के बड़े नेता अपने आपको कांग्रेस से जोड़ते थे और कांग्रेस के मंच से ही चुनाव मैदान में आते थे। अतः उनकी जीत स्वाभाविक थी।

पार्टी की जन-जन पहुँच

गांधी युग के पूर्व कांग्रेस में अंग्रेजी बोलने वाले भारतीय अगड़े लोगों, अगड़ी जाति, उच्च मध्यम वर्गीय शहरी अभिजन लोगों का बोलबाला था। लेकिन गांधीजी के प्रयासों से इस पार्टी का सामाजिक जनाधार बढ़ा। उन्होंने इस पार्टी को जन-जन की पार्टी बना दिया। अब कांग्रेस में किसान और उद्योगपति, शहर के बाशिंदे और गांव के निवासी, मालिक और मजदूर, निम्न, मध्यम और उच्च सभी वर्ग व जाति के लोग शामिल हो गए थे।अतः इस व्यापक जनाधार के कारण कांग्रेस की जीत स्वाभाविक थी।

घटक गुटों में सहनशीलता और तालमेल

कांग्रेस के अंदर प्रारंभ से ही अनेकों गुट हुआ करते थे उनमें वैचारिक मतभेद भी हुआ करते थे लेकिन ये मतभेद अतिवादी रूप नही लेते थे। अपवाद के तौर पर लाल-बाल-पाल गुट की अतिवादिता के कारण 1907 में तथा सुभाष चंद्र बोस के विरूद्ध कांग्रेस की अतिवादिता के कारण 1938-39 में कांग्रेस में फूट देखने को मिली लेकिन बाकी सभी स्थितियों में सहनशीलता और आपसी तालमेल के कारण अन्तर्विरोध के बावजूद भी पार्टी में कम से कम नेहरू युग तक एकजुटता कायम रही। अतः इसका फायदा कांग्रेस को मिलना स्वाभाविक था।

चुनाव प्रणाली की देन

कांग्रेस पार्टी की इतनी बड़ी जीत का कारण हमारी चुनाव प्रणाली को भी माना जा सकता है। कांग्रेस को प्रथम आम चुनाव में मात्र 45% मत प्राप्त हुए थे लेकिन कुल सीटों का उसे 74% सीटें मिली। मत प्रतिशत के मामले में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी सोशलिस्ट पार्टी थी जिसे 10% मत प्राप्त हुए थे लेकिन सीटें केवल 3% से भी कम मिली थी। अपने देश की चुनाव प्रणाली में सबसे ज्यादा मत प्राप्त उम्मीदवार को जीत मिलती है।कभी-कभी तो विजयी उम्मीदवार को 30%से भी कम मत प्राप्त रहते हैं।

नेहरू जी का करिश्माई नेतृत्व

देश की आजादी व गांधीजी और पटेलजी के निधन के बाद जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस के सर्वमान्य नेता थे। नेहरूजी कांग्रेस पार्टी के चुनाव अभियान की अगुआई स्वयं कर रहे थे। वे जनमत की अनदेखी नही करते थे। हिन्दू कोड बिल के मुद्दे पर जनता के रुख को भाँपते हुए नेहरूजी बैकफ़ुट पर चले गए थे जिसके लाभ कांग्रेस को मिले। जबकि इन्हीं कारणों से अम्बेडकर जी को हार का सामना करना पड़ा था।

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स्वतंत्र भारत में प्रारंभ से लेकर अब तक मतदान के तरीके कैसे बदलते रहे हैं? कारण भी स्पष्ट कीजिए।  (CBSC)

प्रथम दो आम चुनाव में प्रत्येक मतदान केंद्र पर प्रत्येक उम्मीदवार के लिए एक मतपेटी रखी जाती थी। जिस पर उम्मीदवार का चुनाव चिन्ह अंकित होता था। प्रत्येक मतदाता को एक खाली मतपत्र दिया जाता था, जिसे वह अपनी पसंद के उम्मीदवार की पेटी में डाल देता था। इन मतपेटियों को तैयार कराने में बहुत अधिक समय और श्रम लगता था। इस प्रकार प्रथम आम चुनाव में 20 लाख स्टील की मतपेटियों को तैयार करना पड़ा था। अतः शुरुआती दो चुनावों के बाद यह तरीका बदल दिया गया। अब मतदान केंद्र पर केवल एक ही मतपेटी जाती थी तथा हर उम्मीदवार का नाम और चुनाव चिन्ह एक ही मतपत्र पर अंकित किया जाने लगा। मतदाता को उस मतपत्र पर अपने पसंद के उम्मीदवार के नाम पर मुंहर लगानी होती थी। चुनाव का यह तरीका 40 वर्षों तक अपनाया जाता रहा। 1990 के दशक में चुनाव आयोग ने इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) का प्रयोग प्रारंभ किया। वर्ष 2004 तक पूरे देश में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन का प्रयोग आरंभ हो गया।

चुनाव प्रक्रिया में परिवर्तन

चुनाव प्रक्रिया में फैलते भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने के लिए 1975 में ताराकुंडे कमेटी तथा 1990 में गोस्वामी कमेटी ने निम्नलिखित सुझाव प्रस्तुत किये।

1- राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रीय गान का अपमान करने पर दोषी व्यक्ति को 6 वर्ष के लिए चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य घोषित करना।

2- निर्दलीय प्रत्याशी की संख्या सीमित करने के लिए जमानत राशि लोक सभा चुनाव के लिए 1000 से बढ़ाकर 10000 कर दिया गया। जबकि विधानसभा के लिए जमानत राशि 500 से बढ़ाकर 5000 कर दिया गया।

3- कुल डाले गए बैध मतों के 1/6 से कम मत प्राप्त होने पर जमानत जप्त कर दी जाती है।

4- मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों के उम्मीदवारों लिए नामांकन पत्र भरते समय एक प्रस्तावक की आवश्यकता होती है जबकि निर्दलीय प्रत्याशी के लिए 10 प्रस्तावक की आवश्यकता होती है।

5- एक प्रत्याशी दो से अधिक निर्वाचन क्षेत्रों से चुनाव नहीं लड़ सकता।

6- चुनाव प्रचार की अवधि 21 दिन से घटाकर 14 दिन कर दिया गया।

7- राजनीतिक दलों के लिए चुनाव आयोग में पंजीयन कराना आवश्यक कर दिया गया।

8- फर्जी मतदान को रोकने के लिए इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन का प्रयोग किया गया।

9- सर्वोच्च न्यायालय ने 2 मई 2002 को एक मामले में निर्णय देते हुए यह निर्देश जारी किया कि चुनाव के पूर्व प्रत्याशियों की संपत्ति और अपराधों से संबंधित समस्त जानकारी प्राप्त कर ली जाए।

10- सर्वोच्च न्यायालय ने 2013 में एक निर्णय के तहत 2 वर्ष से अधिक सजा प्राप्त व्यक्तियों को चुनाव लड़ने तथा विधानसभा का सदस्य बने रहने के लिए अयोग्य घोषित कर दिया गया। इसी निर्णय को लागू करते हुए 2014 से झारखंड के लोहरदगा निर्वाचन क्षेत्र के कमल किशोर भरत तथा 2017 में तमिलनाडु की मुख्यमंत्री बनने के लिए प्रयासरत शशि कला को अयोग्य घोषित कर दिया गया।

11- मतदाताओं को मतदान केंद्र पर पहचान पत्र लेकर आना अनिवार्य किया गया।

उपरोक्त परिवर्तन के कारण

चुनाव तथा चुनाव प्रक्रिया में उपरोक्त परिवर्तन के पीछे निम्नलिखित कारण हैं-

1- चुनाव में लगने वाले समय श्रम और खर्च को कम करना।

2- अवैध मतों की संख्या को कम करना।

3- चुनाव में धन और बाहुबल के प्रभाव को कम करना।

4- राजनीति में अपराधियों के प्रवेश को रोकना।

5- अगम्भीर प्रत्याशियों को चुनाव लड़ने से हतोत्साहित करना।

6- फर्जी मतदान को रोकना।

7- नवीन तकनीकी का प्रयोग।

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क्या एकल पार्टी प्रभुत्व की प्रणाली से भारतीय राजनीति के लोकतांत्रिक चरित्र पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा ? 

स्वतंत्रता के बाद भारत में हुए प्रथम आम चुनाव से ही कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी। अन्य पार्टियां थी लेकिन उनकी स्थिति बहुत कमजोर थी। इसलिए 1952 से लेकर 1967 के चौथे चुनाव तक कांग्रेस पार्टी का ही भारतीय राजनीति में दबदबा रहा। केंद्र तथा राज्यों में (जम्मू कश्मीर को छोड़कर) यही पार्टी सत्ता में रही। 1957 में केरल में कम्युनिस्ट पार्टी की (पहली गैर कांग्रेसी) सरकार बनी थी लेकिन 1959 में अनुच्छेद 356 का प्रयोग करते हुए केंद्र सरकार द्वारा केरल की कम्युनिस्ट सरकार को बर्खास्त कर दिया गया। देखने के लिए देश में बहुदलीय व्यवस्था थी लेकिन वास्तव में कांग्रेस के प्रभुत्व को देखते हुए यह एक दलीय अधिनायकवादी व्यवस्था जैसी थी। इस स्थिति ने विपक्ष को उभरने नहीं दिया। जिससे कभी-कभी कांग्रेस के प्रभुत्व को अधिनायकवादी कहा जाता है। लेकिन यह तथ्य ध्यान देने योग्य है कि कांग्रेस ने लोकतांत्रिक परंपराओं को बनाए रखा इसीलिए विपक्षी पार्टियां कार्यरत रही। रजनी कोठारी का मत ठीक है कि कांग्रेस ने राजनीतिक बहुलवाद को बनाए रखा।

प्रेस, मीडिया, विरोधी दल न्यायपालिका की स्वतंत्रता आदि लोकतंत्र की व्यवस्था के अनिवार्य घटक माने जाते हैं। बहुलवादी व्यवस्था को लोकतांत्रिक व्यवस्था के अनुकूल माना जाता है। जब तक कांग्रेस ने विभिन्न धर्मों, संप्रदायों, समूहों, क्षेत्रीय हितों को ध्यान में रखा और सभी को साथ लेकर चलने की नीति का अनुसरण किया तब तक केंद्र और अधिकांश राज्यों में उसकी सरकार रही। किंतु जब मनमाने ढंग से धारा 356 का प्रयोग कर राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू किया गया अथवा आपातकाल की घोषणा की गयी, तो लोगों में विरोध का स्वर मुखरित हुआ और अंततः जनता ने कांग्रेस को सत्ता से हटा दिया। 1977 में अनेक विरोधी दल एक छतरी के नीचे आए और चुनाव में जीत हासिल किए तथा एक दलीय व्यवस्था का अंत हुआ।

निम्नलिखित विन्दुओं के अंतर्गत हम समझ सकते हैं कि कांग्रेस के नेतृत्व में एकल पार्टी प्रभुत्व ने लोकतांत्रिक चरित्र को बनाए रखा।

1- चुनाव पूरी तरह लोकतांत्रिक प्रणाली के अनुसार निष्पक्षता से हुए। जिसमें जिस दल को जितनी मात्रा में जनता का समर्थन प्राप्त हुआ उतनी ही महत्वपूर्ण भूमिका उसे प्राप्त हुई।

2- कांग्रेस ने देश की विविधताओं को अपने अंदर समेटते हुए लोकतांत्रिक परंपराओं के अनुरूप उनका सम्मान किया।

3- एक लोकतांत्रिक प्रणाली में विपक्ष की महत्ता को समझते हुए पंडित नेहरू ने विपक्षी दलों की भूमिका को महत्वपूर्ण माना। प्रथम बार जब कांग्रेस के नेतृत्व में सरकार का गठन हुआ तो विपक्षी दलों के नेताओं को भी सरकार में मंत्री पद प्रदान किया। यह एक विलक्षण मेल और उच्च आदर्श था।

4- कांग्रेस के प्रभुत्व में लोकतंत्र की उन समृद्ध परंपराओं की नींव पड़ी जिसके प्रभाव के कारण हम आज भी अपने लोकतंत्र को सुदृढ़ता के साथ संचालित कर पा रहे हैं। भारत का लोकतंत्र यदि आज भी प्रसंशनीय है तो इसका एक बड़ा कारण यह है कि स्वतंत्रता के पश्चात शुरुआती दौर में लोकतांत्रिक मूल्यों के विकास हेतु महत्वपूर्ण प्रयत्न किए गए।

उपरोक्त तथ्यों के आलोक में हम कह सकते हैं कि एकल पार्टी प्रभुत्व ने भारतीय लोकतांत्रिक चरित्र पर नकारात्मक प्रभाव नहीं छोड़ा।

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सोशलिस्ट पार्टी

सोशलिस्ट पार्टी का गठन कांग्रेस के भीतर 1934 में हुई थी। उस समय इसका नाम कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी था। सोशलिस्ट पार्टी के नेता कांग्रेस को ज्यादा से ज्यादा समतावादी बनाने के पक्षधर थे। जो व्यक्ति सोशलिस्ट पार्टी की विचारधारा से सहमत थे तथा उसमें सम्मिलित होना चाहते थे,उन्हें कांग्रेस की सदस्यता के साथ-साथ सोशलिस्ट पार्टी की भी सदस्यता लेनी पड़ती थी,जो कांग्रेस को पसंद नही थी। अतः कांग्रेस ने 1948 में अपने संविधान में संशोधन करते हुए इस प्रकार की दोहरी सदस्यता को प्रतिबंधित कर दिया।अतः मजबूर होकर सोशलिस्ट पार्टी के सदस्य कांग्रेस से अलग हो गए और नई पार्टी बनाये। सोशलिस्ट पार्टी की पहुंच भारत के लगभग सभी राज्यों तक थी। लेकिन उसे ज्यादा सफलता नही मिली। यह पार्टी प्रथम आम चुनाव में कांग्रेस के बाद सबसे ज्यादा 10%मत प्राप्त किये लेकिन कुल सीटों में 3%सीटें भी नही जीत सकी थी।

प्रमुख विचार

1- लोकतांत्रिक समाजवाद की विचारधारा में विश्वास।

2- कांग्रेस को पूंजीपतियों और जमीदारों  की पक्षधर मानती है।

3- कांग्रेस द्वारा मजदूरों और किसानों की उपेक्षा होती है।

सोशलिस्ट पार्टी के सम्मुख दुविधा की स्थिति तब उत्पन्न हो गयी जब 1955 में कांग्रेस ने लोकतांत्रिक समाजवाद की विचारधारा को स्वीकार करते हुए समाज के वंचित वर्ग को पोषित करने की घोषणा कर दी। अतः आपसी मतभेद के कारण पार्टी कई टुकड़ों में बिखर गई।नए नए समाजवादी दल बने। इनमें प्रमुख हैं-

किसान मजबूत प्रजा पार्टी

प्रजा सोशलिस्ट पार्टी

संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी

इस पार्टी की विचारधारा को मानने वाले प्रमुख नेता निम्न थे-

जयप्रकाश नारायण

राममनोहर लोहिया

आचार्य नरेंद्र देव

अच्युत पटवर्धन

अशोक मेहता

एस एम जोशी

वर्तमान भारत में समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल,जनता दल यूनाइटेड(नीतिश कुमार) जनता दल सेक्युलर(एच डी देवगौड़ा) में इस पार्टी की छाप मिलती है।

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कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया

रूस की बोल्शेविक क्रांति 1917 की प्रेरणा से भारत में भी साम्यवादी विचारधारा का उदय 1920 के दशक में होती है।1935 से 1941 तक साम्यवादियों ने कांग्रेस के दायरे में रहकर कार्य किया।चूंकि द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान सोवियत रूस फासीवादी गुट के विरुद्ध ब्रिटेन के पक्ष से युद्ध कर रहा था इसलिए कम्युनिस्ट चाहते थे कि कांग्रेस ब्रिटेन का समर्थन करें। इसी मतभेद के कारण कम्युनिस्ट गुट कांग्रेस से अलग हो गए और एक अलग पार्टी का गठन किये। दूसरी गैर कांग्रेसी पार्टियों की तुलना में इस पार्टी का संगठनात्मक ढांचा पहले से ही मजबूत था। इसीलिए प्रथम आम चुनाव में कांग्रेस के बाद सबसे ज्यादा 16 सीटें जीतने में यह पार्टी सफल हुई थी।1957 के चुनाव में कम्युनिस्ट पार्टी केरल में बड़ी जीत हासिल की।उसे 126 में से 60 सीटें प्राप्त हुई और भारत में प्रथम गैर कांग्रेसी सरकार बनाने का अवसर प्राप्त हुआ।

कम्युनिस्ट पार्टी की विचारधारा

1-हिंदुस्तान को तब तक आजाद नही माना जा सकता जब तक कि गरीब मजदूर लोगों को आत्मनिर्भरता नही प्राप्त हो जाती।

2-व्यवस्था में परिवर्तन के लिए क्रांति के मार्ग का समर्थन करती है।

3-अर्थव्यवस्था पर राष्ट्रीय नियंत्रण की समर्थक।

इस पार्टी को आंध्रप्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार और केरल में विशेष समर्थन मिला।

इस पार्टी के प्रमुख नेता हैं-

ए के गोपालन

एस ए डांगे

नम्बूदरीपाद

पी सी जोशी

चीन और रूस के बीच विचारधारात्मक मतभेद के कारण भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी भी 1964 में एक फूट का शिकार हुई। सोवियत रूस की विचारधारा को सही मानने वाले भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी(सीपीआई) में बने रहे।जबकि चीन की विचारधारा को सही मानने वाले पार्टी से अलग होकर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी(सी.पी.एम.) का गठन किये। ये दोनों दल आज भी राष्ट्रीय राजनीतिक दल के रूप में मान्यता प्राप्त हैं।

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भारतीय जनसंघ

भारतीय जनसंघ का गठन 1951 में श्यामा प्रसाद मुखर्जी के द्वारा की जाती है।इस दल की जड़े आजादी के पूर्व सक्रिय राजनीतिक दल हिन्दू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में देखी जा सकती है।जनसंघ एक देश,एक संस्कृति और एक राष्ट्र के विचारधारा पर जोर देती है।इस पार्टी का मानना है कि हमारी संस्कृति की प्राचीन गौरवशाली परंपरा ही हमें विश्व गुरु बना सकती है, इसलिए हमें इसका संरक्षण करना चाहिए।यह पार्टी अखंड भारत के सपने को जीती है।हिंदी को राष्ट्रभाष बनाना चाहती है।धार्मिक अल्पसंख्यकों को विशेष अधिकार देने की विरोधी थी।चीन को भारत के लिए खतरा नंबर-1 मानते हुए भारत को परमाणु शक्ति संपन्न बनाने की वकालत की।

प्रथम आम चुनाव में जनसंघ को 3 सीटें प्राप्त हुई जबकि दूसरे आम चुनाव में 4 सीटें मिली। प्रारंभिक वर्षो में हिंदी भाषी राज्यों जैसे राजस्थान,मध्यप्रदेश, दिल्ली और उत्तरप्रदेश के शहरी इलाकों में इस पार्टी को समर्थन मिला।

इस पार्टी के प्रमुख नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी, दीन दयाल उपाध्याय और बलराज मधोक थे।वर्तमान में भारतीय जनता पार्टी जनसंघ की ही उत्तराधिकारी पार्टी है।

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स्वतंत्र पार्टी

स्वतंत्र पार्टी की स्थापना 1959 में सी.राजगोपालाचारी के द्वारा की जाती है। इस पार्टी के अन्य नेता के एम मुंशी, एन जी रंगा और मीनू मसानी थे।

स्वतंत्र पार्टी अर्थव्यवस्था में सरकार के कम से कम हस्तक्षेप की समर्थक है।यह पार्टी व्यक्तिवादी पूंजीवादी विचारधारा का समर्थन करते हुए यह तर्क देती है कि समृद्धि सिर्फ व्यक्तिगत स्वतंत्रता के जरिए ही आ सकती है। यह पार्टी अर्थव्यवस्था में विकास के नजरिए से किये जा रहे राजकीय हस्तक्षेप, केंद्रीकृत नियोजन, राष्ट्रीयकरण और अर्थव्यवस्था के भीतर सार्वजनिक क्षेत्र की मौजूदगी की आलोचना करती है।यह पार्टी आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के हितों को ध्यान में रखकर अमीरों से लिए जा रहे टैक्स का भी विरोध करती है। इसने निजी क्षेत्र को खुली छूट देने की वकालत की, कृषि में जमीन की हदबंदी,सहकारी खेती और खाद्यान्न के व्यापार पर सरकारी नियंत्रण का विरोध किया।यह पार्टी गुटनिरपेक्षता की नीति और सोवियत संघ से दोस्ती को भी गलत मानती थी तथा अमेरिका से मित्रवत संबंध बढ़ाने की वकालत की।

स्वतंत्र पार्टी की ओर मुख्यतया जमीदार, उद्योगपति और राजे-रजवाड़े आकर्षित हुए लेकिन इसका सामाजिक आधार संकुचित था। इस वजह से यह पार्टी अपना मजबूत संगठन नही खड़ा कर सकी।

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