Skip to main content

The Evolution of Indian Citizenship: Insights from Part 2 of the Constitution

भारतीय संविधान भाग 2: नागरिकता और सामाजिक न्याय की दिशा भारत का संविधान, दुनिया के सबसे विस्तृत और समावेशी संविधानों में से एक है, जो न केवल राज्य की संरचना और प्रशासन के ढांचे को निर्धारित करता है, बल्कि नागरिकों के अधिकारों और कर्तव्यों को भी स्पष्ट रूप से परिभाषित करता है। भारतीय संविधान का भाग 2 भारतीय नागरिकता से संबंधित है, जो एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के मूलभूत ताने-बाने को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। नागरिकता की परिभाषा और महत्व संविधान का भाग 2 भारतीय नागरिकता को परिभाषित करता है, यह स्पष्ट करता है कि एक व्यक्ति को भारतीय नागरिकता कब और कैसे प्राप्त होती है, और किन परिस्थितियों में यह समाप्त हो सकती है। नागरिकता, किसी भी देश में व्यक्ति और राज्य के बीच एक संप्रभु संबंध को स्थापित करती है। यह एक व्यक्ति को अपने अधिकारों का दावा करने का अधिकार देती है और साथ ही राज्य के प्रति उसकी जिम्मेदारियों को भी स्पष्ट करती है। भारतीय संविधान में नागरिकता की प्राप्ति के विभिन्न आधार हैं, जैसे जन्म, वंश, और पंजीकरण के माध्यम से। यह सुनिश्चित करता है कि कोई भी व्यक्ति, जो भारत...

12th राजनीति विज्ञान अध्याय 2.1 : राष्ट्र निर्माण की चुनौतियां

 



द्वि-राष्ट्र का सिद्धांत क्या है तथा यह किस प्रकार भारत विभाजन का कारण बना?


ब्रिटिश भारत मे क्रांतिकारी आंदोलन के दबाव में जब अंग्रेजों को लगने लगा कि भारतीयों पर अब शासन करना कठिन हो रहा है, तो उन्होंने अपनी बाँटो और राज करो की नीति के तहत मुस्लिम जनसंख्या को यह समझाने का प्रयास करने लगे कि तुम्हारे हित हिन्दुओ से अलग हैं। अतः तुम्हें संगठित होकर अलग से प्रयास करना चाहिए। इन्ही कारणों से 1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना होती है और फिर मुस्लिम लीग के प्रयासों से भारत शासन अधिनियम-1909 में पृथक निर्वाचन की व्यवस्था सामने आती है।अर्थात मुस्लिम मतदाता अपने प्रतिनिधियों का चुनाव अलग से करेंगे। पहले तो कांग्रेस ने पृथक निर्वाचन की व्यवस्था को अस्वीकार कर दिया लेकिन 1916 में लखनऊ पैक्ट के तहत कांग्रेस ने मुस्लिमों के लिए पृथक निर्वाचन की व्यवस्था इस शर्त पर स्वीकार कर ली कि स्वतंत्रता आंदोलन में मुस्लिम लीग कांग्रेस का साथ देगी।लेकिन यह गलती मुस्लिम जनसंख्या को शेष भारतीय जनता से हमेशा हमेशा के लिए अलग करने का रास्ता बनाना प्रारंभ कर  दिया और द्वि-राष्ट्र का सिद्धांत पर चर्चा होने लगी।


सर्वप्रथम उर्दू शायर मोहम्मद इकबाल जिन्होंने मशहूर देशभक्ति गीत 'सारे जहां से अच्छा, हिन्दोस्तां हमारा' लिखा है, ने मुस्लिम लीग के इलाहाबाद सम्मेलन-1930 में इस सिद्धांत को प्रस्तुत किये थे।इस सिद्धांत के अनुसार भारत देश में दो राष्ट्र (कौम) बसते हैं।एक हिन्दू राष्ट्र और दूसरा मुश्लिम राष्ट्र।अतः बहुसंख्यक मुस्लिम जनसंख्या वाले क्षेत्र को शेष भारत से अलग करके एक नए राष्ट्र का गठन किया जाना चाहिए।आगे चल कर कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के शोधरत छात्र रहमत अली ने इस पृथक राष्ट्र का नाम पाकिस्तान रखा।द्वि-राष्ट्र सिद्धांत के अंतर्गत प्रस्तावित पृथक पाकिस्तान की मांग को सन 1940 में राष्ट्रीय राजनीतिक मंच पर प्रस्तुत करने का कार्य मुहम्मद अली जिन्ना ने किया और मुस्लिम जनसंख्या में साम्प्रदायिक भावना भड़काना शुरू कर दिए।आगे चलकर ये साम्प्रदायिक भावनाएं इतनी प्रबल हो गयी थी कि वे साम्प्रदायिक दंगों में बदल गयी।अब बिना देश के विभाजन के शांति की स्थापना सम्भव नही था।अतः अंततः देश का विभाजन हो गया।


भारत-विभाजन के परिणाम


भारत विभाजन के निम्नलिखित परिणाम निकले-

  1. भारत-विभाजन के परिणाम स्वरूप ही शरणार्थियों की समस्या उत्पन्न हुई।

  2. भारत-विभाजन के परिणाम स्वरूप ही कश्मीर समस्या उत्पन्न हुई।

  3. भारत-विभाजन के कारण कई क्षेत्रों में साम्प्रदायिक दंगे हुए।जिसमें हजारों लोगों की जान गई।

  4. भारत-विभाजन के कारण लाखों लोग अपना घर-बार छोड़ने पर मजबूत हो गए।

  5. भारत और पाकिस्तान दोनों ही सरकारों के सम्मुख शरणार्थियों के पुनर्वास की समस्या उत्पन्न हो गई।



_____________________________________________


आजादी के समय भारत के सम्मुख कौन-कौन सी चुनौतियां थी ? स्पष्ट कीजिए।


14-15 अगस्त 1947 में मध्य रात्रि को हिंदुस्तान आजाद हुआ। भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने मध्य रात्रि को संविधान सभा मे एक प्रसिद्ध भाषण दिया। जिसे "भाग्यबधू से चिर-प्रतिक्षित भेंट" या "ट्रिस्ट विद डेस्टिनी" के नाम से जाना जाता है।

 आजादी के समय दो बातों पर सबकी सहमति थी 

1- भारत का शासन लोकतांत्रिक तरीके से चलाया जाए।

2- भारत सरकार सभी वर्गो के हितों के रक्षार्थ कार्य करेगी।


आजाद भारत के समक्ष चुनौतियां


 1947 का वर्ष भारत के लिए बहुत ही अशुभ रहा।यह वर्ष हिंसा और त्रासदी में बिता। क्योंकि सांप्रदायिक दंगों और देश के विभाजन के कारण उपजी परिस्थितियों से पूरा देश अशांत था।

 आजाद भारत के समक्ष निम्नलिखित तीन चुनौतियां थी-


1- शरणार्थियों के पुनर्वास की चुनौती


देश विभाजन के दौरान हुई साम्प्रदायिक हिंसा के कारण पाकिस्तान क्षेत्र के अल्पसंख्यक हिन्दू व सिख तथा भारतीय क्षेत्र के अल्पसंख्यक मुस्लिम अपने जान-माल की रक्षा के लिए सीमा की ओर पलायन करने लगे। इन्हें ही शरणार्थी कहा जाता है। पहले तो इन्हें अस्थायी शिविरों में रखा गया, लेकिन स्थायी रूप से इनके पुनर्वास की व्यवस्था करना भारत के सम्मुख एक बड़ी चुनौती थी।


2- देश को एकता के सूत्र में बांधना


 हमारे देश में इतनी विविधता है कि देश को एकता के सूत्र में बंधना काफी कठिन था।हमारे देश मे विभिन्न भाषा भाषी लोग हैं। यहां जाति, धर्म, रंग-रूप और सांस्कृतिक परंपराओं में इतनी विविधता है कि इतने विस्तृत क्षेत्र में फैले देश को एकजुट रख पाना कठिन था । 


3- लोकतांत्रिक प्रणाली की स्थापना


 भारत के सामने एक लोकतांत्रिक प्रणाली को स्थापित करने की भी चुनौती थी। एक ऐसे संविधान के निर्माण की आवश्यकता थी जो समाज के सभी वर्ग के लोगों, विशेषकर समाज के वंचित समूह और अल्पसंख्यक वर्ग के हितों की रक्षा कर सके। शोषण-मूलक व्यवस्था का अंत करके समानता पर आधारित समाज की स्थापना कर सके।


__________________________________________________


देशी रियासतों का विलीनीकरण 


आजादी के पूर्व ब्रिटिश भारत में दो तरह के क्षेत्र थे। प्रथम वह क्षेत्र जिस पर ब्रिटिश साम्राज्य का प्रत्यक्ष रूप से शासन था। दूसरा वह क्षेत्र जिस पर ब्रिटिश शासन के अधीन राजाओं या नवाबों का शासन हुआ करता था, इन्हें देशी रियासत कहा जाता था। इन देशी रियासतों की संख्या लगभग 565 थी।


 कैबिनेट मिशन योजना के अनुसार आजादी के पश्चात प्रत्यक्ष रूप से ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन वाला क्षेत्र भारत को हस्तांतरित होना था जबकि देशी रियासतों को यह स्वतंत्रता थी कि वे भारत संघ में शामिल हों या न हो। अतः यह कहा जा सकता है कि कैबिनेट मिशन योजना में ही देशी रियासतों की स्वतंत्रता के बीज छुपे हुए थे। लेकिन 1947 के भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम में इस बात का स्पष्ट प्रावधान था कि किसी रियासत के शासक को यह अधिकार होगा कि वह अपनी रियासत को भारत मे शामिल करें या पाकिस्तान में या वह स्वतंत्र रहे। इसी प्रावधान का उपयोग करके तीन देशी रियासतें हैदराबाद, जूनागढ़ एवं कश्मीर भारत संघ में शामिल होने से इनकार कर दिया था। लेकिन भारत की एकता एवं अखंडता के लिए यह आवश्यक था कि भारतीय भू-भाग के अंदर स्थित सभी देसी रियासतें भारत संघ में शामिल हो जाएं। इसके लिए भारत सरकार ने स्टेट्स डिपार्टमेंट का गठन किया। जिसका प्रभारी, सरदार वल्लभभाई पटेल को बनाया गया। सरदार पटेल ने देशी रियासतों से संपर्क स्थापित करके उन्हें देश की एकता एवं अखंडता तथा साझी सांस्कृतिक विरासत का वास्ता देकर भारत संघ में शामिल होने का आग्रह किया। उनके इस प्रयास में गवर्नर जनरल माउंटबेटन एवं उनके सचिव वी पी मेनन तथा नरेश मंडल के अध्यक्ष पटियाला के महाराज का विशेष योगदान प्राप्त हुआ। इनके संयुक्त प्रयासों का ही प्रतिफल था कि 15 अगस्त 1947 तक तीन देशी रियासतों को छोड़कर सभी 562 देशी रियासतें भारत संघ में शामिल हो गई थी। इसीलिए पटेल जी को बिस्मार्क आफ इंडिया कहा जाता है।


 देसी रियासतों को भारतीय संघ में शामिल करने के लिए यह आवश्यक था कि वे निम्नलिखित दो दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करती।


1- इंस्ट्रूमेंट आफ एक्सेशन


2- स्टैंडस्टील एग्रीमेंट 


प्रथम दस्तावेज पर हस्ताक्षर करने का तात्पर्य था कि हस्ताक्षर के बाद वह रियासत भारत संघ में पूरी तरह से विलय हो जाती। जबकि दूसरे एग्रीमेंट का तात्पर्य यह था कि जिस प्रकार से देशी रियासतें आजादी के पूर्व ब्रिटिश भारत के अधीन शासन कर रही थी, उसी प्रकार अब वे भारत संघ के अधीन शासन करेंगी। इन रियासतों को रक्षा, वैदेशिक संबंध तथा यातायात व संचार के संदर्भ में अपने अधिकार भारत संघ को हस्तांतरित करना था।


जूनागढ़ की समस्या


 जूनागढ़ की रियासत पश्चिमी भारत के सौराष्ट्र के काठियावाड़ क्षेत्र में स्थित थी। जिसकी बहुसंख्यक जनता हिंदू थी, जबकि वहां का शासक मुस्लिम था। वहां की जनता जूनागढ़ रियासत को भारत में विलय के पक्ष में थी, जबकि वहां का शासक मोहब्बत महावत खान पाकिस्तान में विलय के पक्ष में था। वह इस संदर्भ में पाकिस्तान से बातचीत भी कर रहा था। जिसके कारण वहां की जनता शासक के विरुद्ध विद्रोह कर दी तथा स्थिति ऐसी हो गई कि शासक को अपनी जान बचा कर पाकिस्तान भागना पड़ा। ऐसी स्थिति में जूनागढ़ के दीवान शहनबाज भुट्टो ने भारत सरकार को शांति व्यवस्था बनाए रखने के लिए आमंत्रित किया। अतः भारत सरकार ने जूनागढ़ पर नियंत्रण स्थापित कर लिया। शांति व्यवस्था की स्थापना के बाद अपने नियंत्रण में भारत सरकार ने जनमत संग्रह कराया। जनमत संग्रह इस बात पर था कि वहाँ की जनता भारत में सम्मिलित होना चाहती है या पाकिस्तान में? जनमत संग्रह का परिणाम भारत में विलय के पक्ष में था। इसलिए जूनागढ़ रियासत को 20 जनवरी 1949 को पूरी तरह से भारत में विलय कर लिया गया।


 हैदराबाद की समस्या


 हैदराबाद रियासत भारत की सबसे बड़ी रियासत थी। जिसका शासक उस्मान अली खान था, जिसे निजाम कहा जाता था। यहां की बहुसंख्यक जनता हिंदू थी। 15 अगस्त 1947 तक निजाम  विलय-पत्र (इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन) पर हस्ताक्षर नहीं किया लेकिन स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट पर 1 वर्ष के लिए हस्ताक्षर किया था। इस एग्रीमेंट के बावजूद निजाम लगातार अपनी सैन्य ताकत को बढ़ाने के प्रयास में था। उसने कट्टरपंथी मुस्लिमों की सहायता से एक रजाकारों की सेना का गठन किया, जिसका प्रमुख कासिम रिजवी था। यह सेना हिंदू जनता के ऊपर विभिन्न प्रकार के अत्याचार कर रही थी। कासिम रिजवी ने तो यहां तक कह दिया कि वे संपूर्ण भारत को जीत कर दिल्ली के लालकिला पर निजाम का आसफजाही झंडा फ़हराएंगे। इसी प्रकार निजाम ने भी घोषणा कर दी कि, अंग्रेजों के चले जाने के पश्चात वह एक स्वतंत्र शासक हो जाएंगे। जब भारत सरकार को हैदराबाद रियासत के मंसूबों का पता चला तो भारत सरकार ने निजाम को अंतिम रूप से चेतावनी दी कि वे अपनी हरकतों से बाज आए, नहीं तो भारत सरकार किसी भी कार्रवाई के लिए स्वतंत्र है। इसके ज़बाब में कासिम रिजवी में बड़बोलापन दिखाते हुए गृहमंत्री सरदार पटेल के लिए कहा कि "वे सरदार होंगे दिल्ली के,हम उन्हें कुछ नही समझते….. विश्व में कोई ऐसी ताकत नही, जो हैदराबाद रियासत पर दबाव बना सके।" हिंदुओं पर रजाकारों के द्वारा चलाया जा रहा दमन चक्र शांत नहीं हुआ। इसी बीच निजाम पाकिस्तान से सैन्य सहायता व वैदेशिक संबंध स्थापित करने के प्रयास में भी लगा था, जोकि स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट का सीधे तौर पर उल्लंघन था। अतः भारत सरकार ने मेजर जनरल चौधरी के नेतृत्व में सितम्बर 1948 में हैदराबाद में सेना भेज दी। लेकिन इसे सैन्य कार्यवाही के स्थान पर पुलिस कार्यवाही का नाम दिया। भारतीय सेना के सम्मुख रजाकारों की सेना ज्यादा दिन टिक न सकी। कासिम रिज़वी को बंदी बना लिया गया तथा रजाकारों की सेना ने आत्मसमर्पण कर दिया। अतः मजबूर होकर निज़ाम का रुख भारत सरकार के प्रति सहयोगात्मक हो गया। अतः भारत सरकार ने भी निजाम के सम्मान को बनाए रखा। इस प्रकार हैदराबाद रियासत का भारत में पूरी तरह से विलय हो गया।


कश्मीर की समस्या


 15 अगस्त 1947 तक सभी देशी रियासतों का भारत में विलय हो गया था लेकिन जूनागढ़ एवं हैदराबाद की ही भांति जम्मू-कश्मीर रियासत के राजा हरिसिंह ने भी स्वतंत्र रहने की इच्छा जताई। जिस पर दिखावटी रूप से तो पाकिस्तान राजा के इस रुख़ से सहमत था लेकिन वास्तव में वह राजा के निर्णय से खफा था और कश्मीर पर अपनी नजरें गढ़ाए था। चूंकि भारत का विभाजन द्वि-राष्ट्र के सिद्धांत पर हुआ था और मुस्लिम बहुल क्षेत्र को पाकिस्तान में शामिल किया गया था अतः मुस्लिम बहुल क्षेत्र होने के कारण पाकिस्तान हर हाल में कश्मीर को पाकिस्तान में मिलाना चाहता था। पहले तो उसने बातचीत के माध्यम से मामले को सुलझाने की कोशिश किया लेकिन बात न बनने पर नाराज होकर कश्मीर पर आर्थिक प्रतिबंध लगा दिया।चूंकि कश्मीर भौगोलिक रूप से पाकिस्तान से जुड़ा था अतः उस समय कश्मीर का व्यापार पाकिस्तान वाले क्षेत्र से ही होता था। पाकिस्तान का ऐसा सोचना था कि ऐसा करने से कश्मीर में रोजमर्रा की जरूरतें भी पूरी नही हो पायेगी तो कश्मीर पाकिस्तान सामने घुटने टेक देगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अतः झल्लाहट में पाकिस्तान ने कबाइली आदिवासियों को लूटपाट का लालच और हथियार देकर कश्मीर पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया। इस प्रकार कबाइली आक्रमण (22 अक्टूबर 1947) से कश्मीर की सुरक्षा खतरे में पड़ गई। जिससे राजा हरिसिंह ने भारत से सहायता मांगी। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू कश्मीर को सहायता देने के पक्ष में थे लेकिन गवर्नर जनरल माउंटबेटन ने अंतर्राष्ट्रीय कानूनों का हवाला देकर यह कहा कि जब तक कश्मीर का भारत में विलय नही हो जाता, तब तक हम कश्मीर की कोई सहायता नही कर सकते। अतः मजबूर होकर राजा ने विलय पत्र पर हस्ताक्षर करने की अनुमति दे दी । विलय-पत्र पर हस्ताक्षर होते ही कश्मीर भारत का अंग (26अक्टूबर 1947 को) बन गया। अतः उसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी अब भारत पर थी। अतः शीघ्र ही भारतीय सेना हवाई मार्ग से कश्मीर पहुंचकर (27अक्टूबर 1947 को) मोर्चा संभाल लिया।अब भारतीय सेना ने पाक समर्थित क़बाइली आक्रमणकारियों को पीछे खदेड़ना शुरू कर दी। पाकिस्तानी राष्ट्रपति मोहम्मद अली जिन्ना ने अपने सैन्य कमांडरों को कबाईलियों की सहायता करने के लिए कहा, लेकिन उस समय भारत और पाकिस्तान दोनों ही सेना के शीर्ष सैन्य कमांडर अंग्रेज थे। अतः वे अपने ही साथियो से युद्ध नही कर सकते थे। अतः पाकिस्तानी सेना के सैन्य कमांडर युद्ध में भाग लेने से इंकार कर दिए। अतः जिन्ना के पास अब कोई विकल्प नही था। युद्ध चल ही रहा था, क़बाइली बैकफ़ुट पर थे, ऐसे में कुछ ही दिनों में भारतीय सेना पूरे कश्मीर को कबाईलियों से मुक्त करा लेती लेकिन माउंटबेटन की सलाह पर जवाहरलाल नेहरू इस मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले गए। संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रयासों से भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध विराम समझौता हो गया। युद्ध विराम समझौता के बाद शांति स्थापित हो जाने पर कश्मीर के भारत में विलय के प्रश्न पर जनमत संग्रह होना था। लेकिन जनमत संग्रह की पूर्व-शर्त यह थी कि पाकिस्तान अपनी सेना को कश्मीर से वापस ले,जबकि भारत को कश्मीर में उतनी ही सेना रखने की छूट थी जितनी कि कश्मीर में शांति व्यवस्था बनाए रखने के लिए जरूरी था। चूँकि तत्कालीन कश्मीर के सबसे बड़े नेता शेख अब्दुल्ला भारतीय प्रधानमंत्री पंडित नेहरू जी के मित्र थे।अतः पाकिस्तान को लगा कि यदि जनमत संग्रह हुआ तो कश्मीर की मुस्लिम जनसंख्या भी शेख अब्दुल्ला के इशारे पर भारत के पक्ष में मत व्यक्त करेगी। अतः पाकिस्तान ने कश्मीर से अपनी सेना वापस लेने से इंकार कर दिया। अतः जनमत संग्रह नही हो पाया। चूंकि कश्मीर का लगभग एक तिहाई भाग उस समय पाकिस्तान के कब्जे में था, अतः आज भी वह उसी के कब्जे में है। जिसे पाकिस्तान आजाद कश्मीर कहता है, जबकि भारत उसे पाक अधिकृत कश्मीर (POK) कहता है। भारतीय नियंत्रण वाले कश्मीर को पाकिस्तान गुलाम कश्मीर कहता है तथा उसकी आजादी के नाम पर वह कश्मीर में आज भी अलगाववाद व आतंकवाद को बढ़ावा दे रहा है। पाक अधिकृत कश्मीर और भारतीय नियंत्रण वाले कश्मीर के बीच की सीमा रेखा को लाइन ऑफ कंट्रोल (LOC) कहा जाता है।


______________________________________________


होमवर्क


1-भारत संघ में देशी रियासतों के विलय में सरदार पटेल की भूमिका को स्पष्ट कीजिए।

2-हैदराबाद के विलय के लिए उत्तरदायी परिस्थितियों का उल्लेख कीजिये।


________________________________________________________________________________


राज्यों के पुनर्गठन पर एक निबंध लिखिए।


स्वतंत्रता के पूर्व भारत में 11 प्रान्त और लगभग 575 देशी रियासतें थी। विभाजन के पश्चात 11 प्रान्तों में से 9 प्रान्त भारत में बचे, जबकि दो प्रान्त पाकिस्तान में चले गए। जबकि 575 देशी रियासतों में से 10 रियासतें पाकिस्तान में शामिल हुई तथा 565 रियासतें (हैदराबाद, जूनागढ़ व कश्मीर को मिलाकर) भारत में शामिल हुई। हलाकि रियासतों की संख्या के संदर्भ में मतभेद है।अलग-अलग स्रोतों में यह संख्या अलग- अलग मिलती है।


इन देशी रियासतों का भारत संघ में निम्न प्रकार से विलय किया गया-


1- 216 रियासतों को भारत के उन प्रान्तों में मिला दिया गया जिन्हें A वर्ग का राज्य कहा गया था।

इसके अंतर्गत निम्न राज्य थे-

असम, बिहार, बम्बई, मध्य-प्रान्त, मद्रास, उड़ीसा, पंजाब, संयुक्त प्रान्त और पश्चिमी बंगाल।


2- 275 रियासतें मिलाकर नए राज्य बनाये गए जिन्हें B वर्ग का राज्य कहा गया। बड़ी रियासतें जैसे मैसूर, हैदराबाद व जम्मू-कश्मीर को इसी वर्ग में रखा गया था।

इस वर्ग के अंतर्गत निम्न राज्य थे-

हैदराबाद, जम्मू-कश्मीर, मध्य-भारत,मैसूर, पेप्सू (पटियाला व पूर्वी पंजाब के राज्यों का संघ),राजस्थान, सौराष्ट्र त्रावणकोर-कोचीन और विन्घ्य प्रदेश।


3- 61 रियासतें को C वर्ग के राज्यों में रखा गया। ये केंद्र शासित क्षेत्र थे।

इस वर्ग में निम्न राज्य थे-

अजमेर,विलासपुर,भोपाल,कुर्ग,दिल्ली,हिमाचल प्रदेश,कच्छ, मणिपुर और कूच-विहार।


4- अंडमान व निकोबार द्वीप समूह को D वर्ग में रखा गया।


देशी रियासतों का इस प्रकार से विलय एक अस्थायी व्यवस्था थी क्योंकि इसे नए दृष्टिकोण से पुनर्गठित करने की आवश्यकता सभी महसूस कर रहे थे।अतः नई राजनीतिक परिस्थितियों के आलोक में इलाहाबाद हाईकोर्ट के तत्कालीन न्यायाधीश एस. के. दर की अध्यक्षता में एक आयोग की नियुक्ति की गयी। इस आयोग का कार्य विशेषतया दक्षिण भारत में उठ रही इस मांग की जांच करना था कि भाषा के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन होना चाहिए या नही? दिसम्बर 1948 में दर आयोग ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की।इस रिपोर्ट में भाषायी आधार पर नही वरन प्रशासनिक सुविधा के आधार पर भारतीय संघ में सम्मिलित इकाइयों के पुनर्गठन का समर्थन किया गया। इस रिपोर्ट के प्रकाशित होते ही बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन प्रारम्भ हो गया।अतः अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने जयपुर अधिवेशन में भाषायी आधार पर राज्यों के पुनर्गठन के मामले पर दुबारा विचार करने के लिए J.B.P(जवाहरलाल नेहरु, बल्लभभाई पटेल ,पट्टाभिसीतारमैया) कमेटी का गठन किया। इस कमेटी ने अपना प्रतिवेदन अप्रैल 1949 में प्रस्तुत किया। इस प्रतिवेदन में भाषायी आधार पर राज्यों के पुनर्गठन के विचार को अस्वीकार किया गया। परंतु यह भी स्वीकार किया गया कि यदि जन भावनाएं बहुत ही व्यग्र व उग्र होती हैं तो प्रजातांत्रिक देश होने के नाते इसे स्वीकार कर लेना चाहिए। प्रतिवेदन में यह भी साफ तौर पर कहा गया था कि नए प्रान्तों के गठन के लिए यह समय उपयुक्त नही है। क्योंकि इससे हमारी अभी तक की उपलब्धियां बिखर जाएंगी, हमारा प्रशासनिक एवं वित्तीय ढांचा चरमरा जाएगा। लेकिन इन सब के बावजूद इस प्रतिवेदन में तेलगू भाषी जनता के लिए आंध्र प्रदेश के गठन के संकेत थे, जिसके कारण मद्रास राज्य में रहने वाले तेलगू भाषा भाषियों ने अपने संघर्ष को तेज कर दिए। पोट्टी श्री रमालू ने पृथक आन्ध्र प्रदेश के गठन के लिए आमरण अनशन शुरू कर दिए। 56 दिनों के अनशन के बाद उनकी मृत्यु हो गयी जिसके कारण यह आंदोलन हिंसक हो गया। स्थिति इतनी गंभीर हो गई कि भारत सरकार को 1953 में मद्रास राज्य से अलग तेलगू भाषा भाषियों के लिए आंध्र प्रदेश के गठन की घोषणा करनी पड़ी।


आंध्र प्रदेश के गठन के बाद सम्पूर्ण भारत में भाषायी आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की मांग तेज हो गई। अतः 22 दिसम्बर 1953 को संसद में बोलते हुए प्रधानमंत्री नेहरूजी ने राज्यों के पुनर्गठन की समस्या की जांच के लिए एक आयोग की नियुक्ति की घोषणा की। इस आयोग को विभिन्न दृष्टिकोणों जैसे ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, तात्कालिक परिस्थितियों व अन्य सभी संबंधित महत्वपूर्ण कारकों को दृष्टिगत रखते हुए सुझाव देना था। फ़जलअली की अध्यक्षता में गठित इस राज्य पुनर्गठन आयोग में दो अन्य सदस्य के.एम.पन्निकर व पंडित हृदयनाथ कुंजरू थे। इस आयोग ने अपना प्रतिवेदन 30 सितंबर 1955 में प्रस्तुत किया।


इस आयोग की मुख्य सिफारिशें निम्न थी-


1- श्रेणी A,B,C,D  में राज्यों का वर्गीकरण समाप्त।

2- केवल दो श्रेणियों की सिफारिश, राज्य और केंद्र शासित प्रदेश।

3- 16 राज्य और 3 केंद्र शासित प्रदेशों के गठन की अनुसंशा।

4- भाषयी आधार पर राज्यों के गठन में प्रशासनिक सुविधा का भी ध्यान रखा जाए।


भारत सरकार ने राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिशों को कुछ संशोधनों के साथ स्वीकार कर लिया।परिणाम स्वरूप 1956 में संसद द्वारा राज्य-पुनर्गठन अधिनियम पारित किया गया। जिसके तहत 14 राज्यों व 6 केंद्र शासित प्रदेशों का गठन किया गया।


1956 में गठित राज्य


आंध्र-प्रदेश,असम,बम्बई,बिहार,जम्मू-कश्मीर,केरल,मध्यप्रदेश,मद्रास,मैसूर, उड़ीसा,उत्तर प्रदेश, पंजाब, राजस्थान व पश्चिमी बंगाल।


1956 में गठित केंद्र शासित प्रदेश


दिल्ली,हिमाचल-प्रदेश,मणिपुर,त्रिपुरा अंडमान निकोबार द्वीप समूह व लक्ष्यद्वीप समूह।


राज्यों के गठन की मांग यहीं समाप्त नही हुई। समय-समय पर आगे भी यह सिलसिला जारी रहा और आज राज्यों की संख्या बढ़कर 28 हो गयी है जबकि केंद्र शासित प्रदेशों की संख्या 9 हो गई है।विभिन्न क्षेत्रों में आज भी यह मांग जारी है।विदर्भ, बोडोलैंड, ग्रेटर नागालैंड, बुंदेलखंड आदि को राज्य बनानें की मांग विचाराधीन है।


महत्वपूर्ण तथ्य


1- फ्रांसीसी उपनिवेश पांडिचेरी का भारत मे विलय-1956।

2- पुर्तगाली उपनिवेश गोवा का भारत में विलय- 1961।

3- सिक्किम का भारत में विलय-1975।

4- मध्यप्रदेश से अलग होकर छत्तीसगढ़ राज्य बना- 2000।

5- आंध्र प्रदेश से अलग होकर तेलंगाना राज्य बना- 2014।

6- जम्मू-कश्मीर राज्य से केंद्र शासित प्रदेश बना- 2019।

7- नये केंद्र शासित प्रदेश- जम्मू-कश्मीर और लद्दाख।


____________________________________________________________________________


NCERT प्रश्न-उत्तर


➡️ नीचे दो तरह की राय दी गयी है:


1- रियासतों को भारतीय संघ में मिलाने से इन रियासतों की प्रजा तक लोकतंत्र का विस्तार हुआ।


2- यह बात मैं दावे के साथ नही कह सकता। इसमें बल प्रयोग भी हुआ था जबकि लोकतंत्र में आम सहमति से काम लिया जाता है।


देशी रियासतों के विलय और ऊपर के मशवरे के आलोक में इस घटनाक्रम पर आपकी क्या राय है?


इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि देशी रियासतों के भारत में विलय से वहां की प्रजा को भारत की नागरिकता मिली अर्थात उन्हें अन्य अधिकारों के साथ-साथ राजनीतिक अधिकार भी मिले। इन अधिकारों का प्रयोग करके वे अपने प्रतिनिधियों का चुनाव कर सकते हैं, स्वयं प्रत्याशी बन सकते हैं तथा शासन की गलत नीतियों की आलोचना कर सकते हैं। उन्हें ये अधिकार रियासतों की प्रजा होने की स्थिति में नही प्राप्त थे, तब वे केवल रियासतों की प्रजा थे न कि नागरिक।उनके पास केवल कर्तव्य थे अधिकार नही। इसी लिए यह कहना उचित होगा कि रियासतों के भारत संघ में विलय से वहाँ की प्रजा तक लोकतंत्र का विस्तार हुआ।


दूसरा सवाल है कि देशी रियासतों के विलय में बल प्रयोग किया गया है जबकि लोकतंत्र में आम सहमति से निर्णय होता है यह बात सही नहीं है। ज्यादातर मामलों में आम सहमति से ही विलय की प्रक्रिया पूरी की गई थी। केवल हैदराबाद और जूनागढ़ के मामलों में बल प्रयोग की बात की जा सकती है और यहाँ भी बल प्रयोग आम जनता पर नही किया गया था। आम जनता तो स्वयं भारत में शामिल होना चाहती थी लेकिन यहाँ के शासक बलपूर्वक आम जनता की आवाज को कुचलना चाहते थे। अतः आम जनता के हितों को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार द्वारा बल प्रयोग आवश्यक हो गया था।



➡️ कहा जाता है कि राष्ट्र एक व्यापक अर्थ में 'कल्पित समुदाय होता है जो सर्वमान्य विश्वास, इतिहास, राजनीतिक आकांक्षा और कल्पनाओं से एकसूत्र में बंधा होता है।उन विशेषताओं की पहचान करें जिनके आधार पर भारत एक राष्ट्र है।


भारत की निम्नलिखित विशेषताएं इसे एक राष्ट्र बनाती हैं


1- अपनी मातृभूमि से लगाव


भारत में जन्में प्रत्येक भारतीय को अपनी मातृभूमि से लगाव है।हम अपनी मातृभूमि को भारतमाता या मांभारती कह कर सम्बोधित करते हैं। हम अपनी मातृभूमि की आन बान और शान की रक्षा के लिए हँसते-हँसते अपने प्राणों का बलिदान देने के लिए तैयार रहते हैं। इतना ही नही भारतीय मूल के विदेशों में रहने वाले लोग भी अपने आप को भारतीय राष्ट्र से ही कनेक्ट करते हैं। समय-समय पर ऐसी घटनाएँ प्रायः देखने को मिलती हैं जब भारतीय मूल के लोगों ने एकजुटता का प्रदर्शन करके भारतीय हितों के लिए आवाज उठाये हैं।


2- साझी राजनीतिक आकांक्षाएं


लोगों की साझी राजनीतिक आकांक्षाएं भी राष्ट्रवाद के विकास में सहायक होती हैं। भारत के लिए भी यह बात सत्य है।भारत लगभग 190 वर्षों तक ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन रहा। इस दौरान यहाँ की जनता ने नस्लवादी भेदभाव और विभिन्न प्रकार के शोषण का सामना किया। अतः जाति धर्म भाषा और क्षेत्रीय हितों से ऊपर उठकर अंग्रेजों को बाहर भागने के लिए एकजुटता का परिचय दिया। यही एकजुटता भारत को एक राष्ट्र बनाती है।आज भी यह एकजुटता कायम है। हमारे आंतरिक मतभेद हो सकते हैं, लेकिन जब राष्ट्रीय हितों की बात आती है, तो हम पुनः एकजुट हो जाते हैं।अभी हाल में ही में भारत की सीमा में चीनी घुसपैठ की कोशिश तथा उससे उपजे तनाव के बीच चीनी बस्तुओं के बहिष्कार में भारतीयों द्वारा ऐसी ही एकजुटता देखने को मिली।


3- साझी सांस्कृतिक विरासत


साझी सांस्कृतिक विरासत भी लोगों में एकजुटता का भाव पैदा करती है,जो आगे चलकर राष्ट्र निर्माण में सहायक होता है।भारत के लिए भी यह बात सत्य है।भारत के उत्तर से दक्षिण तक तथा पूरब से पश्चिम तक कुछ सांस्कृतिक एकरूपता अवश्य दिखाई देती है। हमारी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, हमारे सामाजिक और आध्यात्मिक मूल्य हमारे रीति-रिवाज, त्योहार और धार्मिक विश्वास हमारी राष्ट्रीय एकता को मजबूत बनाते हैं।


4- भौगोलिक एकता


एक ही भू-भाग पर काफी समय से साथ-साथ रहने वाले लोगों में भी एकजुटता का भाव अपने आप पैदा हो जाता है और यदि उनका जन्म भी उस भूभाग में हुआ हो तो यह लगाव और भी बढ़ जाता है।भारतीयों के लिए भी यह बात सत्य है।यहाँ के निवासी कब से यहाँ निवास कर रहे हैं यह एक शोध का विषय है।अतः इनमें एकजुटता स्वाभाविक है।


_____________________________________________________


___________________________________________________________________________


for more study material click here

Comments

Advertisement

POPULAR POSTS