अध्याय-2.4 : भारत के विदेश संबंध
भारत-चीन संबंध
भारत चीन संबंधों की ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक परंपरा रही है किन्तु बदलते परिदृश्य में आज भारत-चीन संबंधों में एक खास प्रकृति नजर आती है। आज भारत-चीन प्रतिद्वंदी एवं सहयोगी दोनों हैं। जहाँ एक तरफ राजनीतिक एवं सामरिक प्रतिद्वंदिता है वहीँ दूसरी ओर सामाजिक एवं आर्थिक सहयोग भी है। राजनीतिक एवं सामरिक संबंधों के तहत चीन एशिया में भारत को घेरने की कोशिश कर रहा है, जिसे उसकी ‘मोतियों की माला नीति’ कहा जा रहा है। इसके साथ ही साथ वह भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार भी है।
भारत-चीन संबंधो में उतार-चढाव
सन् 1949 में जब साम्यवादी चीन का उदय होता है तो गैर साम्यवादी देशों में सबसे पहले भारत ने उसे मान्यता दी जिससे भारत चीन संबंधों के प्रारंभिक चरण में मित्रता के दौर दिखाई दिये। जब चीन ने तिब्बत पर कब्ज़ा कर लिया तब भारत ने उसका विरोध नहीं किया बल्कि 1954 में भारत चीन के मध्य पंचशील समझौता हुआ तथा तिब्बत पर चीन के अधिकार को स्वीकार कर लिया गया। लेकिन 1959 में जब चीन ने तिब्बतवाशियो पर दमन चक्र प्रारम्भ किया तो दलाईलामा के नेतृत्व में हजारों शरणार्थी भारत में शरण लिए। जिससे चीन नाराज हो गया और भारत तथा चीन के मध्य आरोप-प्रत्यारोप का दौर प्रारम्भ हो गया। इसी समय चीन भारतीय सीमाओ का अतिक्रमण करने लगा तथा 20 अगस्त 1962 को भारत पर आक्रमण कर दिया। चूंकि भारतीय सेना इस अप्रत्याशित आक्रमण से निपटने के लिये तैयार नहीं थी इसलिये पराजय का मुह देखना पड़ा। इस आक्रमण के समय चीन ने भारत की लगभग 38000 वर्ग कि.मी जमींन पर कब्ज़ा कर लिया जो आज भी उसके कब्जे में है। इस घटना के बाद से ही हमारे रिश्तों में तनाव के दौर प्रारम्भ हो गए, जो आज तक बरकरार है।
सन् 1962 के बाद भारत-चीन राजनयिक सम्बन्ध समाप्त हो गए थे। इसी समय 1964 में चीन अपना पहला परमाणु परीक्षण किया, जिसके बाद भारत ने अपनी परमाणु निति पर पुनर्विचार करके परमाणु परीक्षण करने की तैयारी शुरू कर दी। ध्यातव्य है कि भारत की परमाणु निति नेहरू काल में शांतिपूर्ण कार्यो तक ही सिमित थी। सन् 1974 में श्रीमती गांधी के कार्यकाल में भारत ने अपना प्रथम परमाणु परिक्षण पोखरण-1 किया। जिससे दोनों देशों के बीच प्रतिद्वंदिता और बढ़ गयी।
अब चीन भारत के परम् प्रतिद्वंदी पाकिस्तान की सैन्य साज-सामानों से मदद करने लगा जिससे दोनों देशों के रिश्ते सुधर नहीं सकते थे। लेकिन श्रीमती गाँधी के प्रयासों से सन्1976 में पुनः राजनयिक संबंधों की बहाली होती हैं। जब भारत में जनतापार्टी की सरकार बनती है तो विदेश मंत्री श्री वाजपेयी की चीन यात्रा होती है। रिश्तों के सुधार की दिशा में कुछ सकारात्मक बात होती लेकिन इसी समय चीन द्वारा वियतनाम पर आक्रमण किये जाने के कारण वाजपेयी जी राजनयिक यात्रा पूर्ण होने के पहले ही लौट आये। लेकिन जब भारत में श्री राजीव गाँधी प्रधानमंत्री बनते हैं तो रिश्तो में थोड़ा सुधार होता है तथा सन् 1988 की श्री राजीव गांधी की चीन यात्रा इस दिशा में ऐतिहासिक माना जाता है। सन् 1993 में भारतीय प्रधानमंत्री श्री नरसिम्हा राव की चीन यात्रा होती है। इस समय एक ऐतिहासिक समझौता होता है जिसके तहत राजनीतिक एवं सामरिक मुद्दों को अलग रख कर आर्थिक एवं सामाजिक क्षेत्रों में रिश्तों को सुधारने की बात की जाती है। जिससे दोनों देशों के बीच व्यापारिक सम्बन्ध सकारात्मक दिशा में आगे बढ़ते हैं।
अब धीरे-धीरे पाकिस्तान की तरफ से चीन का मोह थोड़ा कम होने लगा। इसीलिए जब 1999 में कारगिल पर पाकिस्तानी घुसपैठिए अधिकार कर लिया थे तो चीन ने पाकिस्तान पर कारगिल को खाली करने का दबाव डाला, जिसे भारत की कूटनीतिक विजय माना गया। इसीलिए भारतीय प्रधानमंत्री श्री वाजपेयी जी ने 2003 में चीन की यात्रा की। इसी समय सर्वप्रथम चीन ने सिक्किम को भारत का अभिन्न हिस्सा स्वीकार किया तथा सिक्किम के नाथुला दर्रा को खोलने से सम्बंधित समझौता हुआ हलाकि यह दर्रा 2006 में खोला गया।
भारत एवं चीन के सुधरते रिश्तों के कारण सन् 2007 से भारत और चीन के मध्य संयुक्त सैन्याभ्यास ‘हैण्ड इन हैण्ड’ आयोजित किया जाने लगा लेकिन सन् 2009 में जब चीन ने जम्मू-कश्मीर के लोगों को स्टेपल वीजा (विवादित क्षेत्र के निवासी मानकर) जारी किया तो यह युद्धाभ्यास रोक दिया गया। परन्तु 2013 से इस प्रकार का सैन्याभ्यास पुनः प्रारम्भ किया गया।
दोनों देशों के मध्य सम्बन्ध सुधारने हेतु सन् 2013 में भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की चीन यात्रा होती है जिस दौरान 9 महत्वपूर्ण बिन्दुओ पर सहयोग समझौता हुआ। लेकिन रिश्तों के सुधार की दिशा में महत्व पूर्ण कदम चीनी राष्ट्रपति शी जिन पिंग की भारत यात्रा 2014 तथा भारतीय प्रधानमंत्री मोदीजी की चीन यात्रा 2015 को माना जा सकता है। दोनों ही नेता अपने गृह शहर में एक दूसरे का प्रोटोकॉल तोड़कर स्वागत करते हैं। मोदीजी की यात्रा शियान प्रान्त से प्रारम्भ होती है। जिसका ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक महत्व है। इस यात्रा के दौरान दोनों देशों के बीच आर्थिक व्यापार विज्ञान टेक्नोलॉजी तथा संस्कृति के क्षेत्र में कुल 24 समझौते हुए। रेलवे खान खनिज अंतरिक्ष पर्यटन व्यापार व्यवसायिक शिक्षा तथा कौशल विकास के क्षेत्र में सहयोग की बात कही गयी। भारत और चीन के बीच रक्षा सहयोग बढ़ाने हेतु दोनों देशों के सैन्य प्रमुखों के मध्य हॉट लाइन शुरू करने पर सहमति बनी।
वर्तमान परिदृश्य
धारा-370 तथा कश्मीर के मुद्दे पर चीन लगातार पाकिस्तान के साथ खड़ा दिखाई दिया लेकिन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत को मिल रहे व्यापक समर्थन के कारण आखिरकार चीन को बैकफुट होना पड़ा और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की 2 दिवसीय भारत यात्रा के पूर्व चीन ने यह बयान जारी किया कि कश्मीर मामले को दोनों देश आपसी बातचीत से सुलझाएं।लेकिन अगले ही दिन पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान को यह भी आश्वासन दिए कि वे कश्मीर के मामले पर नजर रखे हुए हैं, पाकिस्तान को चिंता की आवश्यकता नहीं है।चीन के इस प्रकार के बयान का मतलब यही है कि वह सदैव पाकिस्तान के माध्यम से भारत पर दबाव बनाने का प्रयास करता रहता है।जब शी जिनपिंग भारत की यात्रा पर आते है,हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी से वार्ता होती है तो ऐसा लगता है कि दोनों देशों के बीच संबंधों के एक नए दौर की शुरूआत होगी अब।लेकिन सारी उम्मीदों पर पानी तब फिर जाता है जब चीनी सेना गलवान घाटी क्षेत्र में भारतीय सीमा पर घुसपैठ और नवनिर्माण की कोशिश करती है और जिसे रोकने पर हमारे सैनिकों के साथ खूनी झड़प होती है जिससे हमारे 16 जवान शहीद हो जाते हैं।इस घटना क्रम से दोनों देशों के बीच 1962 जैसा तनाव उत्पन्न हो गया है।दोनों देशों की सेनाएं सीमा पर आमने-सामने हैं। हलाकि बातचीत का दौर भी चल रहा है आशा की जा रही है कि कोई हल अवश्य निकल आएगा।
विवाद के प्रमुख बिंदु
1- सीमा विवाद
जिन कारणों से भारत चीन सम्बन्ध सबसे ज्यादा प्रभावित है उनमे सीमा विवाद सबसे महत्वपूर्ण है। भारत-चीन युद्ध 1962 के दौरान चीन भारत के लगभग 38 हजार वर्ग कि.मी भू-भाग पर कब्जा कर लिया था जो आज भी उसी के कब्जे में है। पाक अधिकृत कश्मीर का लगभग 5 हजार वर्ग कि.मी भू-भाग पाकिस्तान चीन को दे रखा है जिस पर चीन एक राजमार्ग बना लिया है जो भारत के सामरिक हितों के प्रतिकूल है।
2- जल विवाद
ब्रह्मपुत्र नदी उदगम के पश्चात् पहले चीन में प्रवाहित होती है। उसके पश्चात अरुणांचल प्रदेश से भारत में प्रवेश करती है। चीन ब्रह्मपुत्र नदी पर बाँध बनाकर उसके मार्ग में परिवर्तन करना चाहता है। जिस पर भारत लगातार अपनी आपत्ति जताता रहा है।
3- चीन द्वारा पाकिस्तान की मदद
चीन लगातार सैन्य साज-सामानों से भारत के परम प्रतिद्वंदी पाकिस्तान की मदद करता रहा है जो भारत -चीन संबंधो में खटास का प्रमुख कारण रहा है। चीन पाकिस्तान में न्यूक्लियर रिएक्टर स्थापित कर रहा है इसके साथ ही साथ अरब सागर मे पाकिस्तान के बंदरगाह ग्वादर को विकसित कर रहा है तथा ग्वादर को चीन के उरुमची से जोड़ने वाला 46 अरब डॉलर का गलियारा बना रहा है। जो भारत के सामरिक हितों के प्रतिकूल है। हालाकि चीन की यह नीति पाकिस्तान से दोस्ती बढ़ाना नहीं है बल्कि भारत के ऊपर दबाव बनाने की नीति है।चीन लगातार सैन्य साज-सामानों से भारत के परम प्रतिद्वंदी पाकिस्तान की मदद करता रहा है जो भारत -चीन संबंधो में खटास का प्रमुख कारण रहा है। चीन पाकिस्तान में न्यूक्लियर रिएक्टर स्थापित कर रहा है इसके साथ ही साथ अरब सागर मे पाकिस्तान के बंदरगाह ग्वादर को विकसित कर रहा है तथा ग्वादर को चीन के उरुमची से जोड़ने वाला 46 अरब डॉलर का गलियारा बना रहा है। जो भारत के सामरिक हितों के प्रतिकूल है। हालाकि चीन की यह नीति पाकिस्तान से दोस्ती बढ़ाना नहीं है बल्कि भारत के ऊपर दबाव बनाने की नीति है।
4-चीन की बढ़ती महत्वाकांक्षा
एशिया में प्रभुत्व स्थापित करने की महत्वाकांक्षा के कारण चीन भारत को अपना प्रतिद्वंदी मानता है। अतः वह नहीं चाहता की भारत को क्षेत्रीय शक्ति का दर्जा प्राप्त हो इसी लिये वह भारत की सयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिसद में स्थायी सदस्यता का समर्थन नहीं करता।एशिया में प्रभुत्व स्थापित करने की महत्वाकांक्षा के कारण चीन भारत को अपना प्रतिद्वंदी मानता है। अतः वह नहीं चाहता की भारत को क्षेत्रीय शक्ति का दर्जा प्राप्त हो इसी लिये वह भारत की सयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिसद में स्थायी सदस्यता का समर्थन नहीं करता।
5-चीन की मोतियो की माला की निति
चीन की यह लगातार नीति रही है की वह हिन्द महासागर में भारत के प्रसार को सिमित कर दे तथा अपने आर्थिक हितों की सुरक्षा कर सके। इसलिए उसने भारत को घेरने के लिए ‘मोतियो की माला की निति’ अपनायी है। जिसके तहत वह भारत के पड़ोसी देशों में नौ सैनिक बेस बना रहा है। अपनी इसी महत्वकांक्षी योजना के तहत म्यांमार के सितवे बन्दरगाह, बांग्लादेश के चटगांव बंदरगाह, श्रीलंका के हम्बनटोटा बंदरगाह, मालदीव के मराओ द्वीपीय बंदरगाह एवं पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह पर को अपने सामरिक हितों के अनुकूल विकसित कर रहा है। चीन की यह लगातार नीति रही है की वह हिन्द महासागर में भारत के प्रसार को सिमित कर दे तथा अपने आर्थिक हितों की सुरक्षा कर सके। इसलिए उसने भारत को घेरने के लिए ‘मोतियो की माला की निति’ अपनायी है। जिसके तहत वह भारत के पड़ोसी देशों में नौ सैनिक बेस बना रहा है। अपनी इसी महत्वकांक्षी योजना के तहत म्यांमार के सितवे बन्दरगाह, बांग्लादेश के चटगांव बंदरगाह, श्रीलंका के हम्बनटोटा बंदरगाह, मालदीव के मराओ द्वीपीय बंदरगाह एवं पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह पर को अपने सामरिक हितों के अनुकूल विकसित कर रहा है।
6- अमेरिका फैक्टर
चूंकी चीन अमेरिका को अपना सबसे बड़ा प्रतिद्वंदी मानता है और अमेरिका भी चीन पर नियंत्रण रखने में भारत की महत्वपूर्ण भूमिका को देखते हुए लगातार भारत से अपने संबंधों को सुधार रहा है अतः भारत को लेकर चीन चिंतित है।चूंकी चीन अमेरिका को अपना सबसे बड़ा प्रतिद्वंदी मानता है और अमेरिका भी चीन पर नियंत्रण रखने में भारत की महत्वपूर्ण भूमिका को देखते हुए लगातार भारत से अपने संबंधों को सुधार रहा है अतः भारत को लेकर चीन चिंतित है।
सहयोग के प्रमुख बिंदु
1- चीन हमारा सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार है। आज हमारे देश का लगभग 84 अरब डालर का व्यापार चीन के साथ है। हलाकि भुगतान संतुलन चीन के पक्ष में है जिसकी कुछ विशेषज्ञ आलोचना करते हैं। फिर भी दोनों देशों के बीच सहयोग का यह प्रमुख बिंदु है।
2- ब्रिक्स दोनों देशों का साझा मंच है जिसके माध्यम से दोनों देशों के बीच सहयोग को बढ़ावा दिया जा रहा है।
3- चीनी छात्र इंग्लिश एवं कम्प्यूटर की शिक्षा प्राप्त करने के लिये भारत आते हैं।
4- भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की चीन यात्रा 2013 के समय सिस्टर सिटी समझौता हुआ। जिसके तहत कलकत्ता-कुंसिंग, बेंगलुरु-चेंगदू तथा दिल्ली-बीजिंग को सिस्टर सिटी घोषित किया गया तथा इनके विकास हेतु परस्पर सहयोग का आस्वासन दिया गया। इसी प्रकार का समझौता प्रधानमंत्री मोदीजी की यात्रा के समय भी हुआ।
संबंधों में सुधार हेतु सुझाव
1- चीन को भारत का वह भूभाग वापस कर देना चाहिए जो 1962 के युद्ध में हड़पा था तथा नियंत्रण रेखा का सम्मान करना चाहिए।
2- भारत के बिरुद्ध पाकिस्तान की मदद करने से चीन को बाज आना चाहिए।
3- सयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिसद में भारत की स्थाई सदस्यता का चीन को समर्थन करना चाहिए।
4- चीन को इसलिए भी भारत की मदद करनी चाहिये क्योंकि भारत के शक्तिशाली होने पर बाहरी शक्तियो का एशिया में प्रवेश रुक जायेगा जो भारत की तुलना में चीन के लिये ज्यादा लाभप्रद होगा।
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भारत-पाकिस्तान संबंध
सन् 1947 के पूर्व पाकिस्तान भारत का ही हिस्सा था पर देश की आजादी के साथ भारत का विभाजन भी हो गया तथा विभाजन के कारण उत्पन्न समस्याओं से ही दोनों देशों में शत्रुता भी प्रारम्भ हो गया।अब तक दोनों देशों के मध्य छोटे-बड़े कुल चार युद्ध हो चुके हैं लेकिन लेकिन सभी समस्याएं पूर्वत बनी हुयी हैं।
शत्रुता का उदभव व विकास
15 अगस्त 1947 तक सभी देशी रियासतें भारत या पाकिस्तान में विलय हो चुकी थी लेकिन तीन रियासतें अभी भी स्वतन्त्र थी।इन रियासतों के विलय में सबसे बड़ा अड़पेच कश्मीर को लेकर था क्योंकि कश्मीर के डोगरा राजा हरि सिंह न तो इसे पाकिस्तान में विलय करना चाहते थे और न ही भारत में विलय।भारत इस मामले में चुप था लेकिन पाकिस्तान कश्मीर को हर हाल में पाना चाहता था इसलिए पहले तो उसने कश्मीर पर आर्थिक प्रतिबन्ध लगा दिया क्योंकि उस समय कश्मीर का ज्यादातर व्यापार पाकिस्तान से ही होता था जो की भौगोलिक रूप से सुविधाजनक था लेकिन इस प्रतिबन्ध का राजा हरिसिंह पर कोई प्रभाव नहीं पड़ते देख पाकिस्तान ने कश्मीर पर कबायली (किराये के आदिवासी सैनिक) आक्रमण करा दिया।कबायलियों ने कश्मीर में कत्लेआम शुरू कर दिए ।कश्मीर की सुरक्षा के लिए राजा हरिसिंह ने भारत से सहायता मांगी।भारतीय नेता नेहरू और पटेल सहायता देने के पक्ष में थे लेकिन गवर्नर जनरल माउन्टबेटन अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों का हवाला देकर यह कहा की जब तक कश्मीर का भारत में विलय नहीं हो जाता तब तक हम कश्मीर की सहायता नहीं कर सकते अतः मजबूर होकर कश्मीर के प्रधानमंत्री मेहरचंद महाजन ने इंस्ट्रूमेंट ऑफ अक्सेशन(विलय पत्र)पर हस्ताक्षर कर दिए।अतः शीघ्र ही भारतीय सेना हवाई मार्ग से कश्मीर भेजी गयी।भारतीय सेना को कश्मीर से कबायलियों को पीछे भगाने में सफलता मिल रही थी । कुछ और दिनों में भारतीय सेना कश्मीर को पाकिस्तान के कब्जे से पूर्णतया मुक्त करा पाती लेकिन इसी समय नेहरू जी मामले को यू एन ओ में ले गए । यू एन ओ मामले में हस्तक्षेप करके युद्ध विराम समझौता करा दिया।उस समय जितना भूभाग पाकिस्तान के कब्जे में था आजतक पाकिस्तान के कब्जे में बना हुआ है जिसे पाकिस्तान आजाद कश्मीर कहता है तथा भारत पाक अधिकृत कश्मीर।
हलाकि इस मामले को सुलझाने के लिए UNO ने एक आयोग का गठन किया था जिसकी रिपोर्ट में यह प्रस्ताव था की पाकिस्तान कश्मीर से अपनी सेना को वापस ले तो वहाँ जनमत संग्रह कराया जायेगा लेकिन पाकिस्तान ने पाक अधिकृत कश्मीर से सेना वापस लेने से इनकार कर दिया क्योंकि उसको इस बात का भय था की शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में बहुसंख्यक मुस्लिम भारत के पक्ष में मत व्यक्त करेंगे जिससे उसकी पराजय निश्चित थी।
अतः पाकिस्तान की हठधर्मिता के कारण कश्मीर समस्या आज तक बनी हुयी है जो भारत-पाक संबंधों में खटास का प्रमुख कारण है।
कश्मीर के सम्बन्ध में पाकिस्तान के तर्क
1- चूँकि भारत का विभाजन द्वि-राष्ट्र सिद्धांत के आधार पर हुआ था अतः मुस्लिम बहुल कश्मीर पर पाकिस्तान का हक़ है।इसी आधार पर भारत ने जूनागढ़ व हैदराबाद का बल पूर्वक विलय किया था।
2- भौगोलिक रूप से कश्मीर पाकिस्तान के ज्यादा करीब है।स्वतंत्रता से पूर्व कश्मीर का ज्यादातर व्यापार पाकिस्तान वाले क्षेत्र से ही होता था।
3- बिना जनमत संग्रह के कश्मीर का भारत में विलय अवैध है।
4- कश्मीरी जनता आज भी भारत से आजाद होना चाहती है।वह भारतीय झंडे के नीचे नहीं रहना चाहती है।
भारत के तर्क
1- कश्मीर का भारत में विलय पूर्णतया वैधानिक है ।भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 में यह प्रावधान था कि किस रियासत को किसके साथ सामिल होना है यह रियासत के शासक को निर्णय लेना था और जब राजा हरीसिंह ने कश्मीर का भारत में विलय कर दिया है तो अब पाकिस्तान का कोई भी तर्क बेबुनियाद है।
2- द्वि-राष्ट्र का सिद्धांत पाकिस्तान की अपनी बुद्धि की उपज है जिसे शासक मानने के लिए बाध्य नहीं होते।
3- जनमत संग्रह की पूर्व शर्त थी की पाकिस्तान कश्मीर से अपनी सेना वापस ले।जब उसने पहली शर्त मानने से इंकार कर दिया तो अब जनमत संग्रह का राग अलापने का कोई औचित्य नहीं है।
4- जम्मू कश्मीर की निर्वाचित संविधान सभा ने विधिवत प्रस्ताव पारित करके कश्मीर के भारत में विलय को स्वीकार कर लिया है तथा कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग घोषित किया है।
कश्मीर समस्या के सन्दर्भ में भारत द्वारा की गयी गलतियाँ
1- नेहरू द्वारा जनमत संग्रह की बात स्वीकार करना एक बड़ी भूल थी क्योंकि न तो राजा हरिसिंह ऐसी कोई शर्त रखी थी और न ही जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन लोकप्रिय नेता शेख अब्दुल्ला ने ही ऐसी कोई माँग की थी।
2- मामले को UNO में भारत को नहीं ले जाना चाहिए था क्योंकि भारतीय सेना उस समय आगे बढ़ रही थी तथा पाक सेना बैक फुट पर थी।कुछ दिनों में पुरे कश्मीर में मेरा कब्ज़ा हो जाता।
3- भारत ने इस मामले को UN सुरक्षा परिषद में चार्टर के गलत अनुच्छेद के तहत उठाया।मामले को चार्टर के अध्याय 7 के अनु. 39 के तहत उठाना चाहिए था जो शांति के उल्लंघन और आक्रमण की कारवाही से सम्बंधित है।यदि ऐसा होता तो पाकिस्तान को आक्रमणकारी घोषित किया जाता परन्तु भारत ने मामले को अध्याय 6 के अनु.35 के तहत उठाया जो विवादों के शांति पूर्ण निपटारे से सम्बंधित है।ऐसा करके भारत स्वयं विश्व को यह सन्देश दिया की मामला विवादित है।
4- भारत को युद्ध विराम समझौता तभी करना चाहिए था जब पुरे कश्मीर पर भारतीय सेना का कब्जा हो जाता क्योंकि उस समय भारतीय सेना जीत के करीब थी।
भारत और पाकिस्तान के मध्य विवाद के महत्वपूर्ण बिंदु
1- पाक समर्थित आतंकवाद- भारत-पाक युद्ध 1965 तथा 1971 द्वारा यह साबित हो गया की आमने-सामने के युद्ध में भारत को पराजित नहीं किया जा सकता तो पाकिस्तान ने छदम् युद्ध(proxy war) का सहारा लिया, जिसका एक रूप आतंकवाद है।दोनों देशों के रिश्ते सामान्य नहीं हो पा रहे हैं इसका मुख्य कारण अतंकवाद है।अभी हाल ही में जब वार्ता का दौर प्रारम्भ हो ही रहा था की पठानकोट आतंकी हमला हो गया जिससे वार्ता को कुछ दिन के लिए टाल दिया गया है।
2- नदी जल विवाद- पाकिस्तान में प्रवाहित नदियां सिंधु झेलम चनाव रावी सतलज व्यास उदगम् के बाद पहले भारत में प्रवाहित होती हैं फिर पाकिस्तान में अतः पानी के बटवारे को लेकर विवाद प्रारम्भ से ही था लेकिन विश्व बैंक की मध्यस्थता से1960 में सिंधु और उसकी सहायक नदियों के जल बटवारे से सम्बंधित समझौता हुआ।जिसके तहत सिंधु झेलम चेनाव के जल का आधे से अधिक भाग पर पाकिस्तान का घोषित किया गया जबकि रावी सतलज व्यास पर इसीप्रकार भारत के अधिकार को स्वीकार किया गया।लेकिन भारत जब भी सिंधु झेलम चेनाव पर कोई परियोजना स्थापित करने लगता है तो पाकिस्तान हाय तोबा मचाता है।ऐसी ही परियोजनाओं में किशनगंगा परियोजना,बगलिहार परियोजना,तुलबुल परियोजना तथा बुंजी परियोजना हैं।
3- सियाचिन विवाद- सियाचिन उत्तरी कश्मीर में स्थित ग्लेशियर है जिसे कश्मीर अपना बतलाता है तथा बीच-बीच में अपने पर्वतारोही और सैनिक भेजता रहता है जिससे बीच-बीच में झड़पें होती रहती हैं इससे निपटने के लिए भारतीय सेना यहाँ ऑपरेशन मेघदूत चला रही है।यह विश्व का सबसे ऊँचा युद्ध स्थल माना जाता है।
4- सर क्रिक विवाद- भारत के पश्चिमी गुजरात और पाकिस्तान के सिंध प्रान्त का तटवर्ती दलदली उथला समुद्री क्षेत्र के बटवारे को लेकर विवाद है।चूँकि इस क्षेत्र का बटवारा सर क्रिक नामक अंग्रेज अधिकारी के नेतृत्व में हुआ था इस लिए इसे सर क्रिक विवाद कहा जाता है।चूँकि इस क्षेत्र में प्राकृतिक गैस और पेट्रोलियम के भण्डार होने की संभावना है इस लिए दोनों ही देश इस पर अपना दावा प्रस्तुत करते रहते हैं।सन् 1965 में इस मुद्दे को लेकर युद्ध भी हो चूका है लेकिन आजतक कोई समाधान नहीं निकाला जा सका है।
5- पाकिस्तान-चीन की नजदीकियां- पाकिस्तान पाक अधिकृत कश्मीर का लगभग 5000 वर्ग कि मी भाग चीन को दे रखा है जिसे अक्साई चिन कहा जाता है।यह क्षेत्र सामरिक महत्त्व का है जो भारत के सुरक्षा हितों के प्रतिकूल है।चीन इस क्षेत्र से कराकोरम राजमार्ग बना लिया है जिसके माध्यम से पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह को जोड़ने वाला गलियारा बना कर अरब सागर में अपनी उपस्थिति दर्ज करना चाहता है जोकि भारत के सामरिक हितों के प्रतिकूल है।
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भारत की परमाणु नीति
अमेरिका द्वारा प्रथम परमाणु परीक्षण न्यू मैक्सिको की मरुभूमि में जुलाई 1945 में किया गया था तथा द्वितीय विश्वयुद्ध के अंतिम चरण में परमाणु बम नामक महादानवी अस्त्र का सर्वप्रथम प्रयोग किया गया।अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रूमैन ने द्वितीय विश्वयुद्ध के अंत मे जापान के दो नगरों हिरोशिमा व नागासाकी पर क्रमशः 6 अगस्त और 9 अगस्त 1945 को परमाणु बम गिराने का निर्णय लेकर परमाणु युद्ध का श्रीगणेश किया गया।इसके बाद रूस इंग्लैंड और फ्रांस भी परमाणु शक्ति सम्पन्न बनने के लिए प्रयास तेज कर दिए।इसमें सर्वप्रथम 1949 में सोवियत रूस को सफलता मिली।इसके बाद 1952 में में ब्रिटेन,1960 में फ्रांस तथा 1964 में चीन ने भी यह क्षमता अर्जित कर ली।
चीन के परमाणु शक्ति सम्पन्न होते ही भारत ने भी इस ओर प्रयास तेज कर दिए तथा 18 मई 1974 को अपना पहला परमाणु परीक्षण पोखरन-1 किया। इसके 24 साल बाद 11 मई व 13 मई 1998 में पोखरन-2 के तहत अपना दूसरा परमाणु परीक्षण किया।
अब सवाल यह पैदा होता है कि जब भारत परमाणु शक्ति सम्पन्न हो गया है तो उसकी कोई न कोई परमाणु नीति होनी चाहिए, आखिर भारत इस दानवी शिशु को क्यों पाल रहा है?
परमाणु नीति का विकास
सन 1948 में भारतीय संसद ने परमाणु शक्ति में छिपी संभावनाओं को समझते हुए परमाणु शक्ति अधिनियम पारित किया गया और परमाणु ऊर्जा विभाग की स्थापना की।
नेहरूजी ने यह स्पष्ट किया कि भारत परमाणु ऊर्जा को शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए विकसित करेगा। इसी प्रकार 1955 में डॉ होमी जहांगीर भाभा ने जेनेवा में प्रथम अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में कहा कि भारत जैसे विकासशील राष्ट्र के औद्योगिक तकनीकी और आर्थिक विकास के लिए परमाणु ऊर्जा का शान्ति पूर्ण प्रयोग काफी महत्वपूर्ण हो सकता है।
इस तरह 1947 से 1964 तक भारत का मानना था कि परमाणु हथियारों का परीक्षण भी उसके प्रयोग से कम खतरनाक नही है।यही वजह है कि भारत ने आंशिक परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि (PTBT) पर हस्ताक्षर किए।अर्थात भारत की आरंभिक परमाणु नीति शांतिपूर्ण और विकास की अवधारणा पर आधारित थी।
लेकिन 1962 में चीन द्वारा मिली अपमान जनक पराजय और 1964 में चीन के परमाणु शक्ति सम्पन्न बनने के बाद भारत सरकार के ऊपर इस बात का दबाव बढ़ने लगा कि हमें भी परमाणु हथियार बनाना चाहिए।अतः तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने परमाणु परीक्षण को आवश्यक बताते हुए इसके विकास की अनुमति दे दी। इस प्रकार अब भारत की परमाणु नीति सामरिक सुरक्षा से युक्त हो गयी और भारत ने 18 मई 1974 में पोखरन में अपना पहला परमाणु परीक्षण किया।परीक्षण के बाद भी भारत ने यह घोषित किया कि वह शांतिपूर्ण कार्यो के लिए परमाणु शक्ति के विकास कार्यक्रम को प्राथमिकता देगा।
भारत की परमाणु नीति के प्रमुख विंदु
1- भारत किसी भी राष्ट्र पर पहले परमाणु हथियारों का प्रयोग नही करेगा।
2- भारत गैर परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्र पर परमाणु हथियारों का प्रयोग नही करेगा।
3- भारत अपनी परमाणु क्षमता का विकास राष्ट्र की सुरक्षा और शांतिपूर्ण कार्यो के लिए करेगा।
4- भारत न्यूनतम भरोसेमंद परमाणु क्षमता को अर्जित करने का प्रयास करेगा। लेकिन यह न्यूनतम भरोसेमंद क्षमता प्रतिरोधी राष्ट्र की क्षमता के सापेक्ष है।
5- भारत आगे अब कोई परीक्षण नही करेगा।
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"विदेश नीति का निर्धारण घरेलू जरूरत और अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों के दोहरे दबाव में होता है।" 1960 के दशक में भारत द्वारा अपनायी गयी विदेश नीति से एक उदाहरण देते हुए अपने उत्तर की पुष्टि कीजिए। (NCERT)
यह बात सत्य है कि विदेश नीति का निर्धारण घरेलू जरूरत और अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों के दोहरे दबाव में होता है। जब भारत 1947 में स्वतंत्र हुआ तो उसके सामने देश के पुनर्निर्माण और विकास की चुनौती थी और इस चुनौती को पूरा करने के लिए हमें शांति और आर्थिक सहायता की जरूरत थी।चूंकि उस समय पूरा विश्व शीत युद्ध और गुटबंदी के दौर से गुजर रहा था। यदि भारत किसी एक गुट में सम्मिलित होता तो शीत युद्ध की लपटें भारत तक पहुंच जाती तथा भारत की शांतिपूर्ण विकास की इच्छा अधूरी रह जाती। इसी प्रकार यदि भारत दोनों गुटों में से किसी एक गुट में सम्मिलित हो जाता तो दूसरे गुट से प्राप्त होने वाली आर्थिक सहायता से वंचित रह जाता और देश के पुनर्निर्माण और विकास का कार्यक्रम प्रभावित होता। इसीलिए भारत ने गुटनिरपेक्षता की नीति को अपनी विदेश नीति का मुख्य आधार बनाया।
भारत की गुटनिरपेक्षता की नीति की ही सफलता है कि हम भारत-चीन युद्ध 1962 व खाद्यान्न संकट 1965-66 के समय अमेरिका से सहायता प्राप्त कर सके। वहीं जब भारत-पाकिस्तान युद्ध 1971 में अमेरिका पाकिस्तान के साथ था तो हम रूस से सहायता प्राप्त कर सके। अर्थात हम दोनों ही गुटों से अपनी घरेलू जरूरतों के अनुसार सहायता प्राप्त कर सके।
लेकिन अब जब पूरा देश एक ध्रुवीय हो गया है और भारत की घरेलू जरूरतें (रक्षा तकनीकी व परमाणु ऊर्जा) अमेरिका से पूरी होती दिख रही हैं तो भारत अमेरिका से लगातार नजदीकियां बढ़ा रहा है।
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किसी राष्ट्र का राजनीतिक नेतृत्व किस तरह उस राष्ट्र की विदेश नीति पर असर डालता है? भारत की विदेश नीति के उदाहरण देते हुए इस प्रश्न पर विचार कीजिए।(NCERT)
किसी राष्ट्र की विदेश नीति पर उसके राजनीतिक नेतृत्व का प्रभाव अवश्य पड़ता है।यह बात भारत के लिए भी सत्य है।क्योंकि भारत में भी सरकार बदलने पर या प्रधानमंत्री बदलने पर भारत की विदेश नीति प्रभावित हुई है।प्रारंभिक दौर में नेहरू जी के प्रभाव के कारण हमारी विदेश नीति में आदर्शवादी प्रभाव ज्यादा दिखाई देता है।वहीं लालबहादुर शास्त्री व इंदिरा गांधी के कार्यकाल में भारतीय विदेश नीति में यथार्थवादी प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है।इसी प्रकार प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी के कार्यकाल में भारत की विदेश नीति पर उदारवादी प्रभाव दिखता है जिसे विशेषज्ञ सॉफ्ट पॉवर डिप्लोमेसी (Soft Power Diplomacy) की संज्ञा देते हैं।वर्तमान प्रधानमंत्री मोदीजी की विदेश नीति में अटलजी के सॉफ्ट पॉवर डिप्लोमेसी का स्थान हार्ड पॉवर डिप्लोमेसी ने ले लिया है। सर्जिकल स्ट्राइक,एयर स्ट्राइक,डिजिटल स्ट्राइक और इजरायल व अमेरिका से संबंध मजबूत करना इसी प्रकार की डिप्लोमेसी का हिस्सा है।
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नेपाल में लोकतंत्र की बहाली और भारत से संबंध
नेपाल के लोग अपने देश में लोकतंत्र को बहाल करने में कैसे सफल हुए? अथवा
1990 से नेपाल में लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया किस प्रकार चल रही है ?
आधुनिक नेपाल का उदय सन 1768 में होता है जब महाराज पृथ्वी नारायण शाह ने नेपाल का एकीकरण करके एक राजतंत्र की स्थापना की।लेकिन आगे चलकर 1846 में नेपाल में एक महत्वपूर्ण राजनीतिक घटना में घटित होती है। राणा जंगबहादुर वास्तविक सत्ता अपने अधीन कर लेते हैं,और राजा मात्र एक नाममात्र के राष्ट्राध्यक्ष रह जाते हैं। अर्थात नेपाल में राणाओं का निरंकुश शासक प्रारंभ हो गया। राणाओं के इस शासन से राजा और नेपाल की जनता दोनों त्रस्त आ चुके थे।अतः सन 1950 में नेपाली कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में जनता ने राजा त्रिभुवन को समर्थन देकर क्रांति के माध्यम से नेपाल को निरंकुश और अक्षम राणाओं के शासन से मुक्त कर दिया। सन 1955 में राजा त्रिभुवन की मृत्यु के पश्चात उनके पुत्र महेंद्र राजा बने।राजा महेंद्र ने ऐसी संसदीय शासन प्रणाली की स्थापना की जिसमें प्रधानमंत्री को सत्ताधारी बनाया गया, किन्तु राजा की प्रभावी स्थिति को भी बरकरार रखा गया।1959 में गिरजा प्रसाद कोइराला निर्वाचित प्रधानमंत्री बने।जनवरी 1961 में राजा महेन्द्र ने पंचायत व्यवस्था की घोषणा की जो लोकतंत्र को जमीनी स्तर पर ले आने की पहल थी। लेकिन अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए राजा ने इस व्यवस्था में राजनीतिक दलों के प्रवेश को वर्जित कर दिया।विरोध करने पर विपक्षी नेताओं को जेल में बंद कर दिया।लोगों की स्वतंत्रता प्रतिबंधित कर दी गई।ऐसा लगा कि नरेश अपने देश में दलहीन पंचायती लोकतंत्र स्थापित करना चाहते थे। सन 1962 में नया संविधान(पंचायत संविधान) लागू हुआ जिसकी मुख्य विशेषताएं निम्न थी-
1- हिन्दू राज्य की स्थापना
2- सक्रिय राजशाही का नेतृत्व
3- दलहीन व्यवस्था
4- सामाजिक वर्गो के बीच समन्वय
5- मिश्रित अर्थव्यवस्था
जनवरी1972 में राजा महेंद्र के निधन के बाद उनके पुत्र वीरेंद्र राजा बने।उन्होंने इस संविधान में अनेक संशोधन किए। लेकिन विपक्षी सक्रिय राजतंत्र की आलोचना करते रहे। जून 2001 में बड़ी दुर्घटना हुई जब राजकुमार ने राजा वीरेंद्र, रानी ऐश्वर्या तथा शाही घराने के कई लोगों की हत्या करके स्वयं आत्महत्या कर ली।तब राजा के छोटे भाई ज्ञानेंद्र राजा बने।अब तक साम्यवादी चीन की प्रेरणा से माओवादियों ने अपनी ताकत बड़ा ली थी।हलाकि 1990 के दशक से ही नेपाल में माओवादियों के प्रभाव दिखने लगे थे। अब राजा, लोकतंत्र समर्थक और माओवादियों में संघर्ष प्रारम्भ हो गया।अतः सन 2005 में नेपाल के राजा ज्ञानेंद्र ने आपातकाल की घोषणा करते हुए संसद को भंग करके सेना के बल पर शासन की बागडोर अपने हाथ में ले ली। जिससे नेपाल में लोकतंत्र का संकट पैदा हो गया। इसके विरोध में नेपाल में व्यापक आंदोलन चला। लोगों की स्वतंत्रता को समाप्त करके नेताओं को नजरबंद कर दिया गया। इसके विरोध में राजनीतिक दलों ने अपना आंदोलन और तेज कर दिया। 7 राजनीतिक दलों ने मिलकर 19 दिनों तक नेपाल नरेश के विरुद्ध हिंसक आंदोलन चलाया गया। जिसमें 21 लोग मारे गए तथा 5000 से अधिक लोग घायल हुए। धीरे-धीरे नेपाल नरेश पर बाहरी दबाव भी पढ़ना शुरू हो गया अंततः अप्रैल 2006 में नेपाल नरेश को आपातकाल की घोषणा वापस लेनी पड़ी। संसद को पुनः बहाल करना पड़ा तथा गिरिजा प्रसाद कोइराला को देश का अंतरिम प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया। अप्रैल 2008 में नेपाल में संविधान सभा के लिए चुनाव हुए जिनमें माओवादियों को बहुमत मिला। इस संविधान सभा ने जुलाई 2008 में राम बरन यादव को नेपाल का पहला राष्ट्रपति चुना जबकि 15 अगस्त 2008 को सीपीएन(एम) नेता पुष्प कमल दहल 'प्रचंड' प्रधानमंत्री चुना। इस प्रकार 2008 में पिछले 240 वर्षों से चले आ रहे राजतंत्र का सदैव-सदैव के लिए अंत हो गया। 20 दिसंबर 2015 को नेपाल का नया संविधान लागू किया गया।इस संविधान के तहत नेपाल को भारत की भांति धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित किया गया। वर्तमान में विद्यादेवी भंडारी नेपाल की राष्ट्रपति तथा के पी शर्मा ओली प्रधानमंत्री हैं।
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भारत-नेपाल संबंध
नेपाल भारत का सामरिक रूप से महत्वपूर्ण पड़ोसी देश है। दोनों देशों के मध्य प्राचीन काल से ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक संबंध रहे हैं। नेपाल के उत्तर में स्थित तिब्बत पर जब से चीन का प्रभुत्व स्थापित हो गया है तब से नेपाल की स्थिति भारत के लिए पहले से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गई है । भारत और नेपाल के रिश्ते प्रायः सामान्य रहते हैं परंतु जैसे ही नेपाल में राजनैतिक उतार-चढ़ाव होता है तो दोनों देशों के बीच पुराने विवाद विस्फोटक रूप ले लेते हैं। इन्हीं परिस्थितियों का लाभ उठाकर भारत विरोधी शक्तियां यथा चीन तथा पाकिस्तान वहां सक्रिय होकर भारत की सुरक्षा के लिए गंभीर चुनौती उत्पन्न करने लगती हैं । आइये जानते हैं कि नेपाल की तरफ से भारत की सुरक्षा के लिए चुनौती उत्पन्न करने वाले कारक कौन कौन से हैं।
नेपाल की पहचान संसार में एकमात्र हिंदू राष्ट्र के रूप में की जाती है। यह एक स्थल रुद्ध देश है। भारत और चीन दो एशियाई दिक्कत देशों के साथ इसकी सीमाएं मिलती हैं। तीन ओर से( पूर्व पश्चिम एवं दक्षिण) यह भारत से तथा एक ओर उत्तर से यह तिब्बत (चीन अधिकृत) से घिरा है। नेपाल को भारत और चीन के मध्य एक बफर स्टेट माना जाता है। भारत के पांच राज्य सिक्किम, पश्चिमी बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड नेपाल के साथ 1751 किलोमीटर लंबी सीमा बनाते हैं।
विश्व में भारत नेपाल जैसा संबंध अन्यत्र कहीं और देखने को नहीं मिलता। सामाजिक और सांस्कृतिक आधार पर दोनों देशों में इतनी अधिक समानता है कि दोनों के बीच राजनीतिक विभाजन कठिन हो जाता है। दोनों देश न केवल खुला बॉर्डर साझा करते हैं बल्कि लोगों का बिना किसी बाधा आवागमन भी होता है। दोनों तरफ के लोग वैवाहिक संबंधों के द्वारा भावनात्मक रूप से भी जुड़े हैं। इन्हीं संबंधों की विशिष्टता को इंगित करते हुए पुष्पेश पंत कहते हैं कि सीमावर्ती इलाके में रहने वाले भारतीय और नेपाली लोग किसी अंतरराष्ट्रीय सीमा को रुकावट के रूप में नहीं देखते। यहां के गांवों और कस्बों के निवासियों के बीच रोटी-बेटी का संबंध है। इनके आर्थिक जीवन के ताने-बाने भी आपस में जुड़े हैं।
भारत और नेपाल के मध्य ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक संबंधों की शुरुआत प्राचीन काल से ही हो चुकी थी। परंतु राजनीतिक संबंधों की स्थापना 1950 में मान सकते हैं। जब दोनों देश 31 जुलाई 1950 को भारत नेपाल 'शांति और मैत्री संधि' पर हस्ताक्षर किए। इस संधि के माध्यम से भारत यह चाहता था कि दोनों देशों के मध्य समानता पर आधारित संबंध स्थापित किए जाएं। अतः इस संधि में निम्नलिखित प्रावधान किए गए-
1- दोनों देश किसी विदेशी आक्रमण या उसकी सुरक्षा के लिए उत्पन्न संकट को सहन नहीं करेगा।
2- अपने प्राचीन संबंधों के आधार पर दोनों देश चिरकालीन शांति एवं मैत्री बनाए रखेंगे तथा परस्पर संप्रभुता अखंडता एवं स्वतंत्रता को पूर्ण सम्मान देंगे।
3- सामान्य रूप से नेपाल अपने प्रयोग के लिए युद्ध सामग्री भारत से खरीदेगा तथा किसी अन्य देश से युद्ध सामग्री खरीदने से पूर्व वह भारत से परामर्श करेगा।
4- तिब्बत नेपाल और भूटान के मध्य के दर्रों पर निगरानी रखने के लिए भारतीय और नेपाली सेनाएं संयुक्त रूप से तैनात की जाएंगी।
5- नेपाली नागरिकों को भारत में नागरिकों का दर्जा दिया जाएगा।
6- दोनों देशों के नागरिकों को मुक्त आवागमन की सुविधा प्रदान की जाएगी।
इसी संधि के अनुसार दोनों देशों के संबंध बेहतर ढंग से संचालित होते रहे हैं। इसी संधि का लाभ उठाकर लगभग 6 लाख भारतीय नेपाल में रह रहे हैं, जिसमें बिजनेसमैन, डॉक्टर, इंजीनियर, आई.टी विशेषज्ञ और श्रमिक सम्मिलित हैं। जो निश्चित रूप से नेपाल की राजनीति को प्रभावित करते हैं। इस संधि से न केवल भारत को अपितु नेपाल को भी अत्यधिक लाभ हो रहा है। भारत में नेपाली लोगों की संख्या लगभग आठ लाख है। दोनों देशों के गहरे विश्वास व मित्रता को हम इस तथ्य से परख सकते हैं कि नेपाल का दो तिहाई वैश्विक व्यापार भारत के साथ है।
परंतु नेपाल को वर्तमान में इस संधि पर आपत्ति है और वह लगातार इसे रद्द करने की मांग कर रहा है। नेपाल का मानना है कि यह संधि 1950 में हुई थी, तब नेपाल में राजतंत्रात्मक शासन था परंतु वर्तमान में वह संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य बन चुका है। इसके अलावा नेपाल एक भूमि आबद्ध देश है परंतु इस संधि ने उसे भारत आबद्ध बना दिया है। इसके अतिरिक्त नेपाल द्वारा भारत के अलावा किसी अन्य देश से युद्ध सामग्री खरीदने से पूर्व भारत से परामर्श लेने की बात नेपाली संप्रभुता के विरुद्ध है। इन्ही आपत्तियों को आधार बनाकर आज नेपाल में भारत विरोधी जनमत का निर्माण किया जा रहा है।
नेपाल में मधेशी समस्या
नेपाल में पहाड़ी तथा तराई क्षेत्रों के मध्य क्षेत्र को मधेसी क्षेत्र कहा जाता है। यह क्षेत्र भारत की सीमा से लगा हुआ है। मधेशी क्षेत्रों की समस्या का प्रभाव भारत के सीमावर्ती क्षेत्रों पर पड़ना स्वाभाविक है। इस मधेसी क्षेत्र में नेपाल के 22 जिले शामिल हैं। इनमें भारतीय मूल के मधेशी भी सम्मिलित हैं। चूंकि यह मधेसी मैथिली भोजपुरी एवं हिंदी भाषा का प्रयोग करते हैं अतः इनके सांस्कृतिक एवं वैवाहिक संबंध भारतीयों के साथ सदियों से चले आ रहे हैं। यही मधेसी लोग नए संविधान में अपने लिए दो अलग राज्य की मांग कर रहे हैं। जिसका नाम मिथिलांचल और जनकपुर होना है। किंतु सितंबर 2015 में लागू नए संविधान में उनके प्रतिनिधित्व की उपेक्षा की गई। इसका कारण यह था कि नेपाल के संविधान में निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन भौगोलिक आधार पर किया गया। जिससे संविधान का झुकाव मधेशी लोगों की तुलना में पहाड़ी क्षेत्र के प्रबुद्ध वर्ग की ओर हो गया। चूंकि नेपाल विगत दो दशकों से राजनीतिक उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा है। पहले उसे माओवादी हिंसा का सामना करना पड़ा जिससे तकरीबन 20 हजार लोगों को जान गंवानी पड़ी। उसके बाद लंबी राजनीतिक उठापटक चली, फिर 2015 में आए भूकंप ने वहां भारी तबाही मचाई जिससे संपत्ति के साथ मनोवैज्ञानिक नुकसान भी हुआ। उम्मीद की जा रही थी कि नए संविधान के अमल में आने के बाद वहां स्थिरता आएगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ नए संविधान के लागू होते ही वहां पर विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए। मधेशी समूहों ने भारत-नेपाल सीमा को बंद कर दिया, जिससे वहां भूकंप से प्रभावित क्षेत्रों में राहत सामग्री यथा दवाइयां, खाद्य सामग्री की आपूर्ति बंद हो गई। इस नाकेबंदी के लिए माओवादियों ने भारत को जिम्मेदार माना। माओवादी पहले से ही मधेसियों को भारत समर्थक मानते आ रहे हैं, इसीलिए माओवादियों और मधेसियों के बीच कई बार हिंसक संघर्ष भी हुए हैं । मधेसियों के भारी विरोध प्रदर्शन को देखते हुए नेपाल सरकार ने जनवरी 2016 में पहला संविधान संशोधन करके जनसंख्या के आधार पर निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन की व्यवस्था कर दी गई। मधेसी आंदोलन भले ही औपचारिक रूप से समाप्त हो गया हो किंतु इसके दूरगामी प्रभाव भारत-नेपाल संबंधों पर पड़े हैं।
भारत की सुरक्षा चिंताएं
नेपाल भारत के लिए खुले तौर पर सुरक्षा संबंधित कोई खतरा पैदा नहीं करता लेकिन नेपाल में चीन और पाकिस्तान की मौजूदगी भारत की सुरक्षा संबंधी चिंता का कारण जरूर है। दोनों देशों के मध्य मुक्त पारगमन का प्रावधान होने के कारण भारत-नेपाल सीमा पर लगातार अपराध बढ़ रहे हैं। भारत में अपराधिक घटना को अंजाम देने वाले तत्व नेपाल में प्रवेश कर जाते हैं। नशीली दवाओं का अवैध व्यापार, नकली नोटों का कारोबार एवं तस्करी भारत-नेपाल सीमा पर होती रहती है जो भारत की सुरक्षा के लिए नवीन खतरा पैदा कर रहा है। नेपाल में माओवादी उग्रवाद हमेशा से ही भारत की सुरक्षा के लिए चिंता का कारण रहा है। नेपाल के रास्ते माओवादी भारत में भी अपने पैर जमाने की कोशिश में लगे हैं। नेपाल में पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई की संदिग्ध गतिविधियां लगातार बढ़ रही हैं। आईएसआई द्वारा खुफिया ऑपरेशन के लिए नेपाल की सीमा का प्रयोग किया जा रहा है। हाल के वर्षों में नेपाल आतंकवादियों के लिए एक सुरक्षित स्थान माना जा रहा है। इसका कारण यह है कि यहां हथियारों की खरीद-फरोख्त बहुत ही आसानी से हो जाती है।
नेपाल में चीन की बढ़ती गतिविधियां
नेपाल और चीन के बीच राजनीतिक संबंध 1956 में स्थापित हुए। तब से लेकर अब तक चीन ने नेपाल को अपनी ओर आकर्षित करने का लगभग हर संभव प्रयास किया और आज इस दिशा में वह सफलता भी प्राप्त कर चुका है। इसका स्पष्ट प्रमाण है नेपाल की विदेश नीति का चीन की ओर स्पष्ट झुकाव। अभी तक नेपाल में भारत से ही निवेश होता आ रहा था लेकिन हाल के वर्षों में वहां की राजनीतिक अस्थिरता का लाभ उठाकर चीन नेपाल में बड़ी परियोजनाओं में निवेश कर रहा है। दुर्भाग्य से नेपाल में 2015 में आए भूकंप के दौरान मधेसियों द्वारा आर्थिक नाकेबंदी ने चीन को एक अच्छा मौका दे दिया। इस दौरान चीन ने नेपाल को पारगमन के नवीन रास्ते उपलब्ध कराएं। इसी के तहत दोनों देशों के बीच सीमा व्यापार मार्ग खोलने पर सहमति बनी। नेपाल को अंतरराष्ट्रीय व्यापार के लिए चीन ने अपने पत्तनों की सुविधा भी उपलब्ध कराने की घोषणा की है। इसी दौरान अक्टूबर 2015 में नेपाल सरकार ने पेट्रोलियम आयात करने के लिए चीन से करार किया। इन सब के अतिरिक्त चीन ने नेपाल सरकार से तिब्बत की राजधानी ल्हासा से काठमांडू तक रेल लाइन बिछाने का समझौता भी किया है। जहां तक चीन नेपाल के ढांचागत संरचना में निवेश कर रहा है तो इससे भारत को कोई समस्या नहीं है, नेपाल की सामरिक स्थिति महत्वपूर्ण होने के कारण उसे दोनों देशों से ही लाभ उठाने की स्वतंत्रता है किंतु नेपाल और चीन के बीच सैनिक संबंधों को भी बढ़ावा दिया जा रहा है जो भारत की सुरक्षा के लिए चिंता का विषय है। दिसंबर 2016 में चीन ने नेपाल के साथ अपने पहले संयुक्त सैन्याभ्यास की घोषणा की, जिसे नेपाल ने स्वीकार भी कर लिया। यह भारत-नेपाल शांति और मैत्री संधि 1950 का खुले तौर पर उल्लंघन है क्योंकि ऐसा करने से पहले नेपाल को भारत को सूचित या उससे परामर्श करना चाहिए था।
नेपाल का एक तपका (माओवादी) भारत को हमेशा से ही एक साम्राज्यवादी देश मानता हैं। चीन सदैव इसी स्थिति का लाभ उठाकर नेपाल में भारत की भूमिका को इस तरह पेश किया कि भारत नेपाल के लिए सबसे बड़ा खतरा है। इसी को आधार बनाकर चीन समर्थित माओवादियों ने भारत विरोध को आम जनता तक पहुंचाया। इस प्रकार यह मानने में अब कोई शक नहीं है कि नेपाल द्वारा चीन के साथ मजबूत संबंधों का प्रयास नेपाल के राष्ट्रीय हितों के मुकाबले भारत को प्रति संतुलित करने के भावना से ज्यादा प्रेरित है। लेकिन पिछले कुछ वर्षो से भारत नेपाल के संबंधों में संतुलन स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा है। इसकी शुरुआत भारतीय प्रधानमंत्री मोदी जी की नेपाल यात्रा 26 मई 2014 से हुई है।लेकिन अभी हाल ही में कालापानी एवं लिपुलेख विवाद ने फिर से रिश्तों में कड़वाहट पैदा कर दी है।
निष्कर्ष वैश्वीकरण के इस दौर में किसी भी देश का विश्व व्यवस्था से अलग रहना उसके राष्ट्रीय हित के लिए उचित नहीं है और ना ही वह देश अन्य देशों के सहयोग के बिना नित नई चुनौतियों का सामना कर सकता है। यही बात नेपाल पर भी लागू होता है। इसके अलावा अंतरराष्ट्रीय राजनीति में पड़ोसी का कोई विकल्प नहीं होता, इसे दोनों देशों को समझना होगा। नेपाल को यह भी समझना होगा कि चीन उसके ढांचागत संरचना में चाहे कितना भी निवेश कर ले, किंतु वह भूगोल की मुश्किलों को नहीं बदल सकता। किसी भी प्राकृतिक आपदा के समय चीन से कहीं अधिक त्वरित सहायता भारत से नेपाल को पहुंच सकती है। भारत भी अपने पड़ोसी देशों के साथ साझेदारी व सहयोग के द्वारा ही अपनी अर्थव्यवस्था और राष्ट्रीय सुरक्षा को मजबूत कर सकता है।
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भारत - श्रीलंका संबंध
श्रीलंका में जातीय संघर्ष की समस्या को स्पष्ट कीजिए तथा इसके कारण भारत - श्रीलंका के रिश्ते कैसे प्रभावित हो रहे हैं? स्पष्ट कीजिए।
श्रीलंका भारत के दक्षिण में स्थित हिंद महासागर में एक छोटा सा द्वीपीय देश है। भारत के साथ प्राचीन काल से ही इसके धार्मिक एवं सांस्कृतिक संबंध रहे हैं। सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार - प्रसार हेतु अपने पुत्र महेंद्र और पुत्री संघमित्रा को श्रीलंका भेजा था। अंग्रेजी शासन काल में भारत और श्रीलंका दोनों ही ब्रिटेन के उपनिवेश थे। 15 अगस्त 1947 को भारत तथा 4 जनवरी 1948 को श्रीलंका को आजादी मिली। लेकिन आजादी के साथ ही दोनों देशों के मध्य कुछ मतभेद भी उभर कर आए, जिन्हें आज तक सुलझाया नहीं जा सका है। यही मतभेद दोनों देशों के संबंधों को प्रभावित कर रहे हैं।
श्रीलंका में जातीय संघर्ष की समस्या
ब्रिटिश उपनिवेश काल में अंग्रेज, भारतीय तमिल क्षेत्र के मजदूरों को श्रीलंका के चाय बागानों में काम करने हेतु ले जाया करते थे, जो बाद में वही बस गए। अतः श्रीलंका के उत्तरी भाग जिसे जाफना प्रायद्वीप कहा जाता है, में तमिलों की बहुलता हो गई। जब वहां के मूल निवासी अर्थात बहुसंख्यक सिंहली लोगों को यह प्रतीत होने लगा कि तमिलों के कारण हमारे अधिकारों व अवसरों में कमी हो रही है, तो वे तमिलों से ईर्ष्याभाव रखने लगे तथा श्रीलंका सरकार पर दबाव डालने लगे कि तमिलों को देश से निष्कासित कर दिया जाए। अतः श्रीलंका सरकार ने 1949 में एक नागरिकता अधिनियम पारित किया। जिसके तहत वही लोग श्रीलंका के नागरिक समझे जाएंगे, जिनका जन्म या जिनके माता-पिता का जन्म श्रीलंका में हुआ हो तथा 1939 से श्रीलंका में रह
रहे हों। इस कानून के प्रभाव में आने पर लाखों की संख्या में तमिल विदेशी हो गए अर्थात उनकी श्रीलंका की नागरिकता समाप्त हो गई। यही श्रीलंका में जातीय संघर्ष और भारत से संबंधों में तनाव का मुख्य कारण बना।
दोनों देशों के मध्य कई चारणों में वार्ता के उपरांत भारतीय प्रधानमंत्री नेहरू और श्रीलंका के प्रधानमंत्री जॉन कोटलेवाला के मध्य सन 1954 में एक समझौता हुआ। जिसके महत्वपूर्ण प्रावधान इस प्रकार थे-
1- जो तमिल श्रीलंका की नागरिकता चाहते हैं उन्हें नागरिकता प्रदान की जाए।
2- जो श्रीलंका की नागरिकता नहीं चाहते हैं उन्हें श्रीलंका छोड़ना होगा।
3- तमिलों को भी श्रीलंका की संसद में प्रतिनिधित्व दिया जाए।
लेकिन श्रीलंका सरकार ने ऐसे दांव-पेच अपनाए कि केवल 75000 तमिलों को ही श्रीलंका की नागरिकता दी जा सकी। शेष तमिलों को बलपूर्वक विमानों में बिठाकर भारत रवाना किया जाने लगा लेकिन भारत सरकार ने इन्हें लेने से इनकार कर दिया। अतः दोनों देशों के मध्य रिश्तो में कड़वाहट उत्पन्न हो गई। लेकिन शास्त्री जी के प्रयासों से 1964 में श्रीलंका की प्रधानमंत्री श्रीमती भंडारनायके के साथ एक और समझौता हुआ। इसके तहत 3 लाख तमिलों को श्रीलंका की नागरिकता दी गई तथा 5.5 लाख तमिलों को 15 वर्ष के अंदर अपना काम समेट कर देश को खाली करना था। लेकिन इस समझौते के बाद भी श्रीलंका में जातीय-विवाद नही सुलझ सका। सन 1977, 1981 और 1993 में तमिलों और सिंहली लोगों के मध्य हिंसात्मक संघर्ष हुए। इन संघर्षों में श्रीलंका सरकार के हाथ होने की बात भी प्रकाश में आई। अतः तमिलों ने सरकार से प्रत्यक्ष रूप से निपटने की योजना बनाई। विभिन्न तमिल संगठनों का उदय हुआ, इसमें सबसे महत्वपूर्ण संगठन LITTE (लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम) था। जिसका प्रमुख प्रभाकरण था। अब लिट्टे और श्रीलंका की सेना के मध्य प्रत्यक्ष गृहयुद्ध शुरू हो गया। युद्ध की विभीषिका को देखते हुए भारतीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने मध्यस्थता किए। अतः सन 1987 में राजीव गांधी एवं श्रीलंका के तत्कालीन राष्ट्रपति जयवर्धने के मध्य एक समझौता हुआ। जिसके महत्वपूर्ण प्रावधान इस प्रकार थे-
1- भारतीय और श्रीलंका की सेनाएं संयुक्त रूप से लिट्टे को 48 घंटे के अंदर युद्ध विराम हेतु तथा 72 घंटे के अंदर हथियार डालने हेतु मजबूत करेंगी।
2- तमिल बहुल जाफना क्षेत्र में एक परिषद गठित की जाएगी।
3- सिंहली के अतिरिक्त तमिल और अंग्रेजी को भी राजभाषा का दर्जा दिया जाएगा।
इस समझौते को अमल में लाने हेतु भारत सरकार ने श्रीलंका में शांति रक्षक दल या शांति सेना भेजी। यह सेना पूरी इमानदारी से शांति स्थापित करने का प्रयास किया, लेकिन दोनों ही गुटों (सिंहली और तमिल) ने भारत पर अविश्वास किया।श्रीलंका यात्रा के समय राजीव गांधी को श्रीलंका की सेना ने सलामी दी, इसके बाद जब राजीव गांधी परेड (सलामी दल) का निरीक्षण कर रहे थे उसी समय परेड में सम्मिलित एक सैनिक ने उन पर जानलेवा हमला किया। इसी प्रकार लिट्टे ने भी राजीव गांधी को जान से मारने का षड्यंत्र किया और मई 1991 में एक चुनाव सभा के दौरान तमिलनाडु में उनकी हत्या कर दी। राजीव गांधी की हत्या के बाद भारत सरकार ने लिट्टे पर प्रतिबंध लगा दिया, जिससे श्रीलंका की सरकार खुश हो गई।अतः भारत से रिश्तो को सुधारने हेतु प्रयास होने लगे। 1994 में राष्ट्रपति चंद्रिका कुमार तुंग भारत की यात्रा पर आयी। दोनों देशों के मध्य संबंध सुधार हेतु कई समझौते हुए। इसमें मुख्य रूप से 1998 का मुक्त व्यापार समझौता माना जा सकता है। यह समझौता सन 2000 से लागू हुआ। वर्तमान में लिट्टे और प्रभाकरन का खात्मा (2009) हो गया है, लेकिन तमिल समस्या अभी भी बनी हुई है। तमिलों पर श्रीलंका सरकार द्वारा मानवाधिकारों का उल्लंघन अभी भी जारी है।
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भारत-बांग्लादेश संबंध
भारत और बांग्लादेश के बीच पारस्परिक संबंधों में मतभेदों का विश्लेषण कीजिये।
अभी हाल ही में बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना साहिबा भारत की यात्रा पर थी। इस यात्रा के दौरान भारतीय प्रधानमंत्री मोदी जी और शेख हसीना साहिबा के बीच कई महत्वपूर्ण मुद्दों जैसे राष्ट्रीय नागरिक पंजी, रोहिंग्या शरणार्थी, नदी जल बटवारा, आतंकवाद, शांति और सुरक्षा पर चर्चा हुई तथा कुछ समझौतों पर हस्ताक्षर भी हुए। आइये इतिहास के आईने में जानते हैं कि हमारे बांग्लादेश से संबंध कैसे रहे हैं?
भारत-बांग्लादेश सम्बन्ध
भारतीय आजादी के पूर्व बांग्लादेश भारत का ही हिस्सा था तथा भारत विभाजन के पश्चात् पूर्वी पाकिस्तान के रूप में पाकिस्तान का भाग बना। लेकिन पश्चिमी पाकिस्तान द्वारा लगातार उपेक्षा किये जाने के कारण पूर्वी पाकिस्तान अपने आप को स्वतन्त्र राष्ट्र के रूप में स्थापित करने हेतु पश्चिमी पाकिस्तान के विरुद्ध आंदोलन छेड़ दिया। अतः इस आंदोलन को समाप्त करने के लिए पाकिस्तान सरकार ने दमन चक्र प्रारम्भ कर दिया। जिससे लाखों की संख्या में शरणार्थी अपने जीवन के रक्षार्थ भारत में आने लगे। जब भारत पर शरणार्थियो का दबाव बढ़ने लगा तो भारत सरकार ने मामले में हस्तक्षेप किया। जिसके कारण भारत और पाकिस्तान के बीच सन् 1971 में युद्ध प्रारम्भ हो गया। इस युद्ध का परिणाम भारत के पक्ष में रहा। अतः भारत के सहयोग से सन् 1971 में बांग्लादेश के रूप में एक नए राष्ट्र का उदय हुआ।
चूँकि बांग्लादेश का उदय भारतीय सहयोग से ही हुआ था इसलिए भारत के साथ बांग्लादेश के सम्बन्ध प्रारंभिक चरण में मित्रतापूर्ण थे। बांग्लादेश के पहले राष्ट्रपति शेख मुजीबुर्रहमान भारत का धन्यवाद प्रकट करने भारत आये। इसी अवसर पर भारत बांग्लादेश के बीच सन् 1972 में 25 वर्षीय मैत्री समझौता हुआ। जिसके तहत एक दूसरे पर आक्रमण तथा आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने की बात कही गयी। इसके साथ भारत ने बांग्लादेश के पुनर्निर्माण हेतु 25 करोड़ रुपया आर्थिक सहायता के तौर पर दिया। इसी प्रकार सन् 1974 में भारत और बांग्लादेश के बीच सीमा-समझौता हुआ। जिसके तहत दाहग्राम तथा अमरकोट पर बांग्लादेश के अधिकार को स्वीकार किया गया जबकि बेरुबारी पर भारत के अधिकार को मान्यता दी गयी।
लेकिन ये मित्रतापूर्ण सम्बन्ध ज्यादा दिन तक नहीं रह सके। भारत और बांग्लादेश के मित्रतापूर्ण संबंधों के प्रतीक शेख मुजीबुर्रहमान (बांग्लादेश के राष्ट्रपिता) की कट्टरपंथी ताकतों द्वारा सन् 1975 में हत्या हो जाती है तथा जनरल जियाउल हक के नेतृत्व में सैन्य शासन स्थापित होता है। इसके बाद भारत-बांग्लादेश के रिश्ते बिगड़ते चले जाते हैं तथा इनमें सुधार तभी होता है जब सन्1996 में शेख मुजीबुर्रहमान की बेटी शेख हसीना के नेतृत्व में लोकतांत्रिक सरकार का गठन होता है।
बांग्लादेश में मुख्य रूप से दो पार्टियां हैं-
प्रथम अवामी लीग जिसकी मुखिया शेख मुजीबुर्रहमान की बेटी शेख हसीना हैं। यह पार्टी धर्मनिरपेक्ष तथा भारत समर्थक है। जब-जब इस पार्टी की बांग्लादेश में सरकार बनती है तब-तब भारत के रिश्ते बांग्लादेश से सुधरने लगते हैं।
दूसरी पार्टी है – बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी(BNP) जिसकी मुखिया जनरल जियाउल हक की विधवा बेगम खालिदा जिया हैं। यह पार्टी कट्टरपंथी तथा पाकिस्तान समर्थक है। जब-जब बांग्लादेश में BNP की सरकार बनती है, तब-तब भारत बांग्लादेश के रिश्ते बिगड़ने लगते हैं। इसीलिए विशेषज्ञों ने भारत और बांग्लादेश के रिश्तों को युति-वियुति की संज्ञा देते हैं। हलाकि इस समय अवामी लीग की सरकार है।
भारत और बांग्लादेश के मध्य विवाद के प्रमुख बिंदु
1- सीमा विवाद
भारत और बांग्लादेश के बीच 4096 किमी लम्बी राजनीतिक सीमा है जहाँ पर मिजोरम मेघालय असम त्रिपुरा और पश्चिमी बंगाल में जगह-जगह सीमा विवाद है। सीमाओं का खुला होने के कारण तथा सीमांकन सही ढंग से न होने के कारण बांग्लादेशी नागरिक आसानी से भारत में प्रवेश कर देश की अंतरिक् सुरक्षा के लिए खतरा उत्पन्न कर रहे हैं।
सीमा विवाद की पहली समस्या यह है कि दोनों देशों की सीमाओं की कुल लम्बाई का 6.4 किमी भाग तथा समुद्री सीमा का रेखांकन नहीं किया गया है जिससे समय-समय पर नागरिकों की पहचान में समस्या होती है। हलाकि भारत बांग्लादेश के साथ समुद्री सीमा विवाद पर अंतर्राष्ट्रीय न्यायलय के फैसले को मंजूर कर चूका है जो बांग्लादेश के पक्ष में गया है।
सीमा विवाद की दूसरी समस्या बसाहटों (Enclaves-अन्तःक्षेत्र) को लेकर है। इन बसाहटों की सुरुआत तब हुयी जब कूच बिहार के राजा तथा रंगपुर के राजा पांसे के खेल में हार जाने पर एक-दूसरे को ये क्षेत्र सौप देते थे। 1947 तक कोई समस्या नहीं थी लेकिन 1947 के भारत-पाक विभाजन के बाद जब कूच बिहार भारत को तथा रंगपुर पूर्वी पाकिस्तान को सौपा गया अर्थात कूच बिहार (भारत) के कुछ क्षेत्र पूर्वी पाकिस्तान में चले गए जबकि रंगपुर(बांग्लादेश) के कुछ क्षेत्र भारत में चले गए। यही से विवादों की शुरुआत हुयी। वर्तमान में कुल 162 बसाहटों की समस्या है। जिसमे 111 भारतीय बसाहटें बांग्लादेश में हैं जबकि 51बांग्लादेशी बसाहटें भारत में हैं। सन् 1974 के सीमा समझौते में इनकी परस्पर अदला-बदली का प्रावधान था लेकिन नागरिकता एवं क्षेत्रों के हस्थानंतरण के मुद्दे पर कोई संतोषजनक समाधान के आभाव में यह संभव नहीं हो सका। परन्तु जुलाई 2011 में भारत और बांग्लादेश के द्वारा सयुक्त जनगणना करायी गयी जिसमें इन क्षेत्रों की अधिकांश आबादी ने जहाँ हैं वहीँ रहने की इच्छा व्यक्त करी। तद् अनुसार 6 सितम्बर 2011को दोनों देशों के मध्य बसाहटों की अदला-बदली से सम्बंधित समझौता हुआ जिसे ‘मनमोहन-शेख हसीना समझौता-2011’ के नाम से जाना जाता है। लेकिन भारत का कोई भी भूभाग बिना संविधान संसोधन के किसी को सौंपा नहीं जा सकता अतः संविधान संशोधन विधेयक (119वां) लाया गया। UPA सरकार के समय भाजपा तथा तृणमूल कांग्रेस के विरोध के कारण यह पास नहीं हो सका था लेकिन NDA सरकार ने इसे मई 2015 में संसद से पारित करा लिया है। यह संशोधन विधेयक 100 वां संविधान संशोधन अधिनियम कहलाया। इसके प्रावधानों के तहत केवल लैंड की अदला-बदली की गई न कि जनसँख्या की। यह लोगों पर छोड़ दिया गया कि वे कहां रहना चाहते हैं। शांतिपूर्ण ढंग से सीमा विवाद हल हो जाने की दिशा में इसे ऐतिहासिक माना गया।
2- नदी जल विवाद
भारत और पाकिस्तान की भाँति भारत और बांग्लादेश के मध्य भी नदी जल विवाद संबंधो में खटास का प्रमुख कारण है। क्योकि कई नदियां जैसे- गंगा ब्रह्मपुत्र भारत में प्रवाहित होने के पश्चात् बांग्लादेश में प्रवेश करती हैं। जब भी भारत इन नदियों पर कोई परियोजना स्थापित करना चाहता है तो बांग्लादेश इसलिए विरोध करता है कि उसके यहाँ पानी कम पहुँचेगा जिससे उसके आर्थिक हितों को नुकसान पहुँचेगा। ऐसे ही विवादों में मुख्य हैं- फरक्का बांध विवाद, तीस्ता नदी जल विवाद, फेनी नदी जल विवाद तथा तिपाईमुख परियोजना। जिसमे से भारत की उदारता के कारण सन् 1996 में भारतीय प्रधानमंत्री देवगौड़ा एवम् बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना के मध्य हुए समझौते के द्वारा फरक्का बांध विवाद को सुलझा लिया गया है। शेष विवाद अभी अनसुलझे हैं। आशा यह की जा रही थी कि भारतीय प्रधानमंत्री मोदीजी की बांग्लादेश यात्रा (6 जून 2015) के दौरान तीस्ता नदी जल विवाद सुलझा लिया जायेगा लेकिन पश्चिमी बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से सहमति न बन पाने के कारण यह विवाद अनसुलझा रह गया।
3- न्यू मुर द्वीप विवाद
यह द्वीप बंगाल की खाड़ी में स्थित है जिसकी कोलकाता से दुरी 6 किमी तथा ढाका से दुरी 7.5 किमी है। कानूनन इस पर भारत का अधिकार होना चाहिए लेकिन बांग्लादेश इसे अपने अधिकार में लेना चाहता है जिसके कारण यह द्वीप दोनों देशों के मध्य विवादों में रहा है। सन् 1981 में जनरल जियाउल हक 8 युद्धपोत यहाँ भेजा था जिससे कारण द्वीप को खाली कराने हेतु भारतीय नौसेना एक्सन में आ गयी थी। इस समय युद्ध की स्थिति तैयार हो गयी थी लेकिन इसी समय जनरल जियाउल हक की हत्या हो जाती है तथा बांग्लादेश के शासन की बागडोर जनरल इरसाद के हाथों में आ जाती है जिन्होंने उस समय द्वीप पर भारत की संप्रभुता को स्वीकार कर लिया था। लेकिन बीच-बीच में यह विवाद फिर खड़ा हो जाता है। हलाकि पता चला है कि यह द्वीप इस समय समुद्र में डूब चुका है।
4- शरणार्थियों की समस्या
भारत और बांग्लादेश की अंतर्राष्ट्रीय सीमा पूर्णतया कृत्रिम है। अतः बांग्लादेश से लोग चोरी छुपे भारत आते रहते हैं। बांग्लादेश से सटे भारतीय राज्य पश्चिमी बंगाल असम मेघालय त्रिपुरा तथा मिजोरम में बांग्लादेश से आये हुए शरणार्थियों की संख्या कहीं-कहीं इतनी अधिक हो गयी है कि यहाँ मूल भारतियों की स्थिति अल्पसंख्यक की है। भारत के 25 विधानसभा क्षेत्रों में स्थिति ऐसी है कि वहाँ कौन प्रत्यासी चुनाव में विजयी होगा, यह बांग्लादेश से आये हुए आदेश पर निर्भर करता है। इस समस्या के कारण कभी-कभी सांप्रदायिक दंगे भी हो जाते हैं जैसा की अगस्त 2012 में असम में हुआ था। जिसके प्रभाव से बेंगलुरु हैदराबाद मुम्बई तथा इलाहाबाद में भी दंगे हुए।
5- तस्करी की समस्या
बांग्लादेशी भारत के सीमावर्ती क्षेत्रों में लगातार मादक द्रव्यों एवम् सेक्स वर्केर्स की सप्लाई करते रहते हैं जो भारतीय नवयुवकों के नैतिक पतन में सबसे ज्यादा खतरनाक कारण साबित हो रहा है।
6- आतंकवाद की समस्या
पूर्वोत्तर में कुछ ऐसे संगठन सक्रीय हैं जो सेवन सिस्टर स्टेट्स को भारत से अलग कर देना चाहते हैं। ऐसे ही संगठनों में प्रमुख है-ULFOSS ( यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ़ सेवन सिस्टर्स )। इसे बांग्लादेश की कट्टरपंथी ताकतों तथा ISI का समर्थन प्राप्त है। इसके लिए पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी ISI मदद भी कर रही है। इनको प्रशिक्षण देने हेतु बांग्लादेश में शिविर स्थापित किये गए हैं। यह सभी भारत विरोधी गतिविधियां भारतीय संप्रभुता के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं।
7- चीन फैक्टर
चीन भारत को घेरने की अपनी मोतियों की माला नीति में बांग्लादेश को भी शामिल किया हुआ है। वह बांग्लादेश को अपने पक्ष में करने हेतु लगातार उसकी आर्थिक मदद कर रहा है। बांग्लादेश के चटगांव बंदरगाह पर अपना नौ-सैनिक बेस स्थापित कर रहा है जो भारत के सामरिक हितों के प्रतिकूल है।
सहयोग के प्रमुख बिंदु
बांग्लादेश की वर्तमान सरकार भारत के साथ संबंधों के सुधार की दिशा में अच्छा प्रयास कर रही है जिसके चलते वर्तमान में बांग्लादेश की भूमि से भारत विरोधी गतिविधियां धीमी हो गयी हैं। इसके अलावा भारत व बांग्लादेश के बीच प्रत्यर्पण संधि न होते हुए भी वर्तमान सरकार ने उल्फा के टॉप कमांडरों को भारत को सौपा है। वर्तमान में पाक (ISI) की गतिविधियां बांग्लादेश में सक्रीय नहीं हो पा रही हैं अतः ISI बांग्लादेश के कट्टरपंथी तत्वों के सहयोग से शेख हसीना सरकार को अपदस्थ करने का निरंतर प्रयास कर रही है। जिससे बांग्लादेश में पाक समर्थित सरकार की स्थापना की जाय तथा बांग्लादेश की भूमि से भी भारत विरोधी गतिविधियां सक्रीय की जा सके। शेख हसींन के इसी सहयोग के कारण घरेलू राजनीति में उन पर
‘भारत की कठपुतली’ होने के आरोप भी लगते रहे हैं।दोनों देशों के मध्य सम्बन्ध सुधार हेतु ढाका – कोलकाता के बीच मैत्री एक्सप्रेस 2008 में प्रारम्भ किया गया। भारतीय प्रधानमंत्री मोदीजी की बांग्लादेश यात्रा (6 जून 2015) के दौरान कोलकाता-ढाका-अगरतला तथा ढाका-शिलांग-गुवाहाटी के बीच बस सेवा प्रारम्भ की गयी। इस दिशा में और भी कार्य हो रहे हैं। बांग्लादेश की स्वतंत्रता में योगदान हेतु पूर्व भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी को बांग्लादेश ने ‘स्वाधीनता सम्मानोना पुरस्कार’ दिया है। इसी कड़ी में पूर्व भारतीय प्रधानमंत्री अटल विहारी वाजपेयी को ‘फ्रेंड्स ऑफ बांग्लादेश लिबरेशन वार अवॉर्ड’ से सम्मानित किया गया। उन्हें यह सम्मान 1971 में बांग्लादेश के गठन में सहयोग के लिए दिया गया, तब वे सांसद थे।
निष्कर्ष
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि भारत-बांग्लादेश सम्बन्ध बांग्लादेश में सत्ता परिवर्तन से प्रभावित होता है, जिससे संबंधों में मजबूती नहीं आ पाती है। जबकि भारत बांग्लादेश की मदद के लिए बड़े भाई की तरह सदैव तैयार रहता है। भारत बांग्लादेश के विकास हेतु पर्याप्त धन मुहैया कराता है।भारत और बांग्लादेश का साझा इतिहास रहा है लेकिन सिर्फ इतिहास साझा होने से रिश्ते नहीं बनते इसके लिए दोनों देशों को एक दूसरे को समझना होगा।
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इसका पूरा नाम दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन है। इसकी स्थापना दिसंबर 1985 में बांग्लादेशी राष्ट्रपति जिया-उल-रहमान के प्रयासों से ढाका सम्मेलन से हुई। प्रारंभ में इसमें सात सदस्य थे, लेकिन भारत में आयोजित सार्क के 14वें शिखर सम्मेलन 2007 में अफ़गानिस्तान की सदस्यता के बाद सदस्यों की संख्या 8 हो गई है।
यह सदस्य निम्न हैं-
भारत
पाकिस्तान
बांग्लादेश
श्रीलंका
नेपाल
भूटान
मालदीप
अफ़गानिस्तान
सार्क के उद्देश्य
यूरोपीय संघ और आसियान से प्रभावित सार्क के मुख्य उद्देश्य निम्न हैं-
सदस्य राष्ट्रों के मध्य आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक और तकनीकी सहयोग को बढ़ावा देना है।
सदस्य राष्ट्रों के मध्य व्यापार को बढ़ावा देने हेतु आयात-निर्यात से जुड़ी समस्याओं को दूर करना एवं मुक्त व्यापार क्षेत्र की स्थापना करना।
सदस्य देशों के नागरिकों के कल्याण एवं जीवन स्तर को ऊंचा उठाने हेतु परस्पर सहयोग करना।
दक्षिण एशिया के देशों में सामूहिक आत्मनिर्भरता को प्रोत्साहित करना।
एक-दूसरे की समस्याओं को समझना एवं पारस्परिक विश्वास बढ़ावा देना।
अन्य विकासशील देशों के साथ सहयोग को बढ़ावा देना।
अन्य अंतर्राष्ट्रीय संगठनों से संबंध बढ़ाकर अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा देना।
साफ्टा (SAFTA)
इसका पूरा नाम South Asian Free Trade Area है। इस समझौते पर हस्ताक्षर सार्क के 12वें शिखर सम्मेलन 4 जनवरी 2004 इस्लामाबाद में हुए और इसे 1जनवरी 2006 से लागू किया गया। इस समझौते का मुख्य लक्ष्य, सदस्य देशों के बीच आपसी व्यापार में लगने वाले सीमा शुल्क की दरों में धीरे-धीरे कमी लाया जाए। कुछ छोटे देश सोचते हैं कि भारत साफ्टा के माध्यम से उनके बाजारों में सेंध मारना चाहता है और अपनी व्यवसायिक मौजूदगी के जरिए उनके समाज और राजनीति पर असर डालना चाहता है। जबकि भारत का मानना है कि इससे न केवल आर्थिक एवं व्यापारिक सहयोग बल्कि राजनीतिक मामलों में भी सहयोग को बढ़ावा मिलेगा।
सार्क का महत्व
दक्षिण एशिया में सामाजिक आर्थिक एवं सांस्कृतिक सहयोग हेतु स्थापित यह क्षेत्रीय संगठन अपने वास्तविक उद्देश्यों को प्राप्त करने में पूर्णतया सफल नही हुआ। इसका कारण, सदस्य राष्ट्रों के मध्य आपसी मतभेद व राजनीतिक अस्थिरता है। लेकिन इसके बावजूद भी कृषि, ग्रामीण विकास, शिक्षा एवं तकनीकी क्षेत्र में सहयोग के साथ पूंजी निवेश भी हुआ है। भारत लगातार नेपाल, भूटान, बांग्लादेश व अफ़गानिस्तान को विभिन्न प्रकार की सहायता देता चला आ रहा है। चूंकि सार्क के 5 देशों की तटीय सीमा हिंद महासागर से मिलती है अतः हिंद महासागर को शान्ति क्षेत्र बनाने हेतु संयुक्त प्रयास की जरूरत है।
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गुजराल डॉक्ट्रिन से क्या तात्पर्य है?
गुजराल डॉक्ट्रिन भारत की विदेश नीति का प्रमुख सिद्धांत है। यह सिद्धांत भारत के पूर्व प्रधानमंत्री इन्द्र कुमार गुजराल ने दिया था अतः उनके नाम के साथ ही इसे जाना जाता है। इसके अनुसार हमें अपने पड़ोसियों से रिश्ते सुधारने के लिए स्वयं पहल करनी चाहिए न कि पड़ोसियों की पहल का इंतजार अर्थात हमारी भूमिका बिग ब्रदर की होनी चाहिए। पड़ोसियों की छोटी मोटी गलतियों को नजरंदाज करते हुए उनसे संबंध सुधारने के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेई जी इसी नीति को प्रसारित करते हुए कहा था कि हम केवल पड़ोसी के व्यवहार को बदल सकते हैं न कि पड़ोसी को।
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