दीपावली के बाद राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में वायु प्रदूषण की समस्या पर सर्वोच्च न्यायालय ने पंजाब सरकार को फटकार लगाते हुए कहा था कि “हम राज्य की हर मशीनरी को इसके लिए ज़िम्मेदार ठहराते हैं। आप इस तरह लोगों को मरने के लिए मजबूर नहीं कर सकते। दिल्ली का दम घुट रहा है, क्योंकि आप इस समस्या से निपटने के उपायों को लागू करने में सक्षम नहीं हैं।"
सरकार के तीन अंग हैं- विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका। तीनों अंगों के कार्यो को संविधान द्वारा निर्धारित कर दिया गया है। लेकिन जब नागरिकों के हितों के रक्षार्थ न्यायपालिका अपने निर्धारित क्षेत्राधिकार से बाहर जाकर विधायिका या कार्यपालिका के कार्यो में हस्तक्षेप करती है तो इसे न्यायिक सक्रियता कहते हैं। इसका उद्देश्य लोक कल्याण की भावना होती है।
न्यायिक सक्रियता की आवश्यकता
पाकिस्तान में लोकतंत्र के उतार-चढ़ाव का वर्णन कीजिये।
अगस्त 1947 में भारत की आजादी के साथ भारत का विभाजन भी हो गया और भारत से अलग पाकिस्तान नाम के नए राष्ट्र का निर्माण हुआ।उस समय पाकिस्तान के दो भाग थे,प्रथम पूर्वी पाकिस्तान जिसे आज बांग्लादेश देश कहा जाता है और दूसरा पश्चिमी पाकिस्तान जिसे वर्तमान में पाकिस्तान कहते हैं। चूँकि पाकिस्तान का जन्म 'दो राष्ट्रों के सिद्धांत' पर हुआ था, इसीलिए इसे इस्लामिक गणतंत्र का रूप दिया गया। 1956 में इसका संविधान लागू हुआ, जिसके तहत भारत की ही भांति पाकिस्तान में भी संसदीय शासन प्रणाली स्थापित की गयी। वास्तविक सत्ता प्रधानमंत्री सहित मंत्री परिषद को दी गई जो राष्ट्रीय व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदाई थी। राष्ट्रपति को नाम मात्र का अध्यक्ष बनाया गया। लेकिन यह प्रणाली ज्यादा समय तक नही चल सकी।सन 1958 में फील्ड मार्शल अय्यूब खां के नेतृत्व में यहां सैनिक शासन स्थापित हो गया। जिसने लोगों की मौलिक स्वतंत्रता को कुचल दिया।वास्तव में यह सैनिक तानाशाही थी जिसने लोकतंत्र का गला घोंट दिया था।
भारत पाकिस्तान युद्ध 1965 में भारत के हाथों पराजय का मुंह देखने से अय्यूब खां का नेतृत्व समाप्त हो गया। जनरल याहिया खां नए राष्ट्रपति बने। सन 1970 में आम चुनाव कराए गए। चुनाव के परिणामों के अनुसार पूर्वी पाकिस्तान की अवामी मुस्लिम लीग के नेता शेख मुजीबुर्रहमान को प्रधानमंत्री बनाया जाना चाहिए था लेकिन राष्ट्रपति ने इस चुनाव को अमान्य कर दिया।सैनिक शासन ने पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के अध्यक्ष जुल्फिकार अली भुट्टो को प्रधानमंत्री बनाया। बांग्लाबंधु शेख मुजीबुर्रहमान ने 26 मार्च 1971 को पूर्वी पाकिस्तान को स्वतंत्र बांग्लादेश में बदलने की घोषणा कर दी।लेकिन पाकिस्तान की सेना ने शेख को गिरफ्तार कर लिया तथा बड़ी संख्या में उनके समर्थकों की हत्या कर दी गई। जिससे घबराकर लोगों ने भारत के राज्यों पश्चिमी बंगाल, त्रिपुरा व असम में शरण लिए। अतः भारत पर शरणार्थियों के बढ़ते दबाव के कारण भारत को हस्तक्षेप करना पड़ा।दिसंबर 1971में बांग्लादेश के स्वतंत्रता के मुद्दे पर भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध हुआ।युद्ध में पाकिस्तान की पराजय हुई और भारत के सहयोग से पुर्वी पाकिस्तान स्वतंत्र राष्ट्र बांग्लादेश बन गया।
इस युद्ध में पराजित होने के कारण राष्ट्रपति याहिया खां ने पद से त्यागपत्र दे दिया। अब जुल्फिकार अली भुट्टो ने राष्ट्रपति का पद संभाला। 1972 में नया संविधान आया जिसमें फिर से संसदीय शासन प्रणाली स्थापित की गयी।भुट्टो प्रधानमंत्री बने तथा इलाही को राष्ट्रपति बनाया गया। लेकिन यह व्यवस्था भी ज्यादा दिन नही चल सकी।1977 में भुट्टो पर चुनाव में धांधली का आरोप लगा।अतः सेनाध्यक्ष जिया-उल-हक ने सत्ता छीन ली। भुट्टो को गिरफ्तार कर लिया गया। कुछ समय बाद उन्हें मृत्युदंड दिया गया। एक बार फिर सैनिक अधिनायकवाद स्थापित हुआ जो 1987 में जिया उल हक की हत्या तक चलता रहा।
सैनिक शासन को हटाने के उद्देश्य से पाकिस्तान में लोकतंत्र बहाली आंदोलन चल पड़ा। संविधान में संशोधन हुए जिससे संसदीय शासन प्रणाली को पुनः बहाल किया गया। चुनाव में पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी को सफलता मिली, इसलिए जुल्फिकार अली भुट्टो की विधवा बेगम बेनजीर भुट्टो को प्रधानमंत्री बनने का अवसर मिला। उनके बाद नवाज शरीफ ने प्रधानमंत्री का कार्यभार संभाला। जुलाई 1999 में कारगिल युद्ध में भारत से पराजय ने नवाज शरीफ को अलोकप्रिय बना दिया। तब सेना अध्यक्ष परवेज मुशर्रफ ने सत्ता हथिया ली। शरीफ देश छोड़कर चले गए। कुछ समय बाद लोक निर्णय का आडंबर रचा कर मुशर्रफ राष्ट्रपति बन गए। एक बार फिर लोकतंत्र का गला घोट दिया गया। अपनी व्यवस्था को लोकतांत्रिक जामा पहनाने के उद्देश्य से मुशर्रफ ने 2003 में चुनाव कराए। शौकत अजीज प्रधानमंत्री बने। 2008 के चुनाव के बाद राष्ट्रपति मुशर्रफ को त्यागपत्र देना पड़ा। लोकप्रिय शासन को स्थापित किया गया। सितंबर 2008 में दिवंगत बेनजीर भुट्टो के पति आसिफ अली जरदारी पाकिस्तान के राष्ट्रपति बने । इन्होंने अपना 5 वर्ष का कार्यकाल पूर्ण किया। तदुपरांत 9 सितंबर 2013 को ममनून हुसैन पाकिस्तान के राष्ट्रपति बने तथा प्रधानमंत्री का पद पुनः नवाज शरीफ ने सम्हाला।किन्तु कार्यकाल समाप्त होने से पूर्व ही नवाज शरीफ को पनामा केस में अयोग्य करार दिया गया, जिसके कारण उन्होंने जुलाई 2017 को त्याग पत्र दे दिया। अगस्त 2017 को शाहिद अब्बासी ने पद संभाला।
सन 2018 के आम चुनाव के बाद 'पाकिस्तान तहरीक-ए-हिंद' पार्टी के इमरान खान प्रधानमंत्री बने।लेकिन इमरान खान के खिलाफ भी मौलाना फजलुर्रहमान के नेतृत्व में लगातार विरोध प्रदर्शन हो रहा है।मौलाना का आरोप है कि फर्जी चुनाव के चलते ही इमारत खान की सरकार बनी है।इन्हें सत्ता में बने रहने का कोई हक नही है।
ऐसी घटनाएं दर्शाती है कि पाकिस्तान में लोकतंत्र का उतार-चढ़ाव चलता रहा है। जिसे वहां पर 'राजनीतिक विकास व राजनीतिक पतन' की संज्ञा दी जा सकती है। संविधान बनता है, बदलता है, समाप्त हो जाता है, नया संविधान आता है, वह भी बदलता है।इस प्रकार का शिलशिला चलता रहता है। पाकिस्तान के राजनेतागण संविधानवाद का अर्थ नहीं जानते। धर्मसापेक्ष राष्ट्र होने के नाते उलेमा सरकार पर दबाव बनाते रहते हैं कि प्रत्येक कार्य इस्लाम के तथाकथित सिद्धांतों के अनुरूप होना चाहिए। वे अपनी व्याख्याओं के अनुसार राजकीय कार्यों का मूल्यांकन करते हैं। जनमत बहुत दुर्बल है क्योंकि प्रेस व जनसंचार के साधनों एवं न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर कठोर अंकुश लगे हैं। सरकार और सेना की ओर से आतंकवादी तत्वों को समर्थन मिल रहा है जिससे पड़ोसी राष्ट्रों जैसे- अफगानिस्तान और भारत की सुरक्षा को गंभीर खतरा बना हुआ है।
भारत की भांति पाकिस्तान में लोकतंत्र की जड़ें मजबूत क्यों नहीं हो सकी जबकि दोनों ही देशों का इतिहास एक जैसा है?
पाकिस्तान में भारत की तरफ लोकतंत्र की जड़ें मजबूत नहीं हो सकी यद्यपि 1947 में पाकिस्तान के निर्माण के समय लोकतांत्रिक पद्धति में विश्वास जताया गया था परंतु शीघ्र ही इस प्रक्रिया में बाधा तब पहुंची जब 1958 में अय्यूब खां ने पाकिस्तान में सैनिक तानाशाही लागू कर दी। तब से लेकर वर्तमान समय तक पाकिस्तान में कभी लोकतंत्र सफलतापूर्वक कायम नहीं रह पाया। अयूब खान के बाद याहिया खान तथा फिर जिया-उल-हक ने पाकिस्तान में सैनिक तानाशाही को बनाए रखा। पाकिस्तान में लोकतंत्र को कुछ हद तक सफलता 1990 के दशक में मिलती है जब पहले बेनजीर भुट्टो इसके बाद नवाज शरीफ ने लोकतांत्रिक ढंग से चुनाव जीतकर अपनी सरकार बनाई। इन दोनों सरकारों के बनने से यह आशा बनने लगी थी कि पाकिस्तान अब लोकतंत्र के मार्ग पर बिना किसी बाधा के चलता रहेगा परंतु यह आशा ज्यादा समय तक कायम नहीं रह सकी क्योंकि अक्टूबर 1999 में पाकिस्तानी सेना के जनरल परवेज मुशर्रफ ने नवाज शरीफ सरकार को हटाकर सत्ता अपने हाथों में ले ली। 2007 में बेनजीर भुट्टो की एक चुनाव रैली में हत्या कर दी गई। इससे पाकिस्तान में लोकतंत्र की बहाली को एक जोरदार झटका लगा। हलाकि 2008 से लेकर आज तक पाकिस्तान में लोकतंत्र को स्थापित करने का प्रयास चल रहा है लेकिन इसकी सफलता पर अभी भी संदेह है। पाकिस्तानी राजनीतिक दलों एवं नेताओं पर यह दायित्व है कि वे अपने यहां लोकतांत्रिक जड़ों को और मजबूत करें।
पाकिस्तान में लोकतंत्र की असफलता के लिए उत्तरदाई कारक
पाकिस्तान में लोकतंत्र की असफलता के लिए निम्नलिखित कारण जम्मेदार हैं-
1- सेना का राजनीतिक हस्तक्षेप - पाकिस्तान में लोकतंत्र के मार्ग में सेना ने सदैव बाधा उत्पन्न की है।लेकिन इसके बावजूद भी लोग सैनिक शासन को पसंद करते हैं।उनको लगता है कि इससे देश की सुरक्षा खतरे में नही पड़ेगी।
2- धर्म सापेक्षवाद - लोकतंत्र धर्मनिरपेक्ष देशों में ही चल सकता है।धर्म सापेक्ष देशो में उदारवादी प्रवित्तियां नही उभर सकती। पाकिस्तान में धार्मिक कट्टरता ने लोकतंत्र को सफलतापूर्वक संचालित नही होने दिया।
3- पश्चिमी देशों के समर्थन का अभाव- पश्चिमी देशों ने अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए पाकिस्तान में लोकतंत्र को सफल नहीं होने दिया।आश्चर्य की बात है कि अमेरिका जैसा लोकतांत्रिक देश भी अपने निजी स्वार्थों के कारण सैनिक शासकों का समर्थन किया।
4-धर्मगुरु और भूस्वामी- पाकिस्तानी समाज के अभिजात वर्ग हैं लेकिन सैनिक शासन को अपने लिए अधिक सुविधाजनक मानते हैं।
5- दरिद्रता व अज्ञानता - जनसाधारण गरीबी व अज्ञानता से पीड़ित हैं जो लोगतंत्र के महत्व को नही समझते।
6-आतंकवाद- राजनेताओं की तुलना में आतंकवादियों की लोकप्रियता अधिक होने के कारण सरकार को आम जनता का पर्याप्त सहयोग नहीं मिल पा रहा है जिसके कारण लोकतंत्र की जड़े मजबूत नही हो पा रही।
अर्थात सेना, कट्टरपंथी, आतंकवादी, भूस्वामी,और धर्मगुरु सभी कमजोर शासन ही देखना चाहते हैं जिससे कि उनकी मनमर्जी चल सके और आम जनता इससे अनभिज्ञ है।
पाकिस्तान में लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत करने हेतु सुझाव
1- पाकिस्तान में सेना की भूमिका को कम करना होगा, विशेषकर इसके राजनीतिक हतक्षेप पर नियंत्रण लगाना होगा।
2- पाकिस्तान में लोकतंत्र को सफल बनाने के लिए वहां बढ़ने वाले धार्मिक उन्माद पर नियंत्रण लगाना होगा।
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भारत-पाकिस्तान संबंध
सन् 1947 के पूर्व पाकिस्तान भारत का ही हिस्सा था पर देश की आजादी के साथ भारत का विभाजन भी हो गया तथा विभाजन के कारण उत्पन्न समस्याओं से ही दोनों देशों में शत्रुता भी प्रारम्भ हो गया।अब तक दोनों देशों के मध्य छोटे-बड़े कुल चार युद्ध हो चुके हैं लेकिन लेकिन सभी समस्याएं पूर्वत बनी हुयी हैं।
शत्रुता का उदभव व विकास
15 अगस्त 1947 तक सभी देशी रियासतें भारत या पाकिस्तान में विलय हो चुकी थी लेकिन तीन रियासतें अभी भी स्वतन्त्र थी।इन रियासतों के विलय में सबसे बड़ा अड़पेच कश्मीर को लेकर था क्योंकि कश्मीर के डोगरा राजा हरि सिंह न तो इसे पाकिस्तान में विलय करना चाहते थे और न ही भारत में विलय।भारत इस मामले में चुप था लेकिन पाकिस्तान कश्मीर को हर हाल में पाना चाहता था इसलिए पहले तो उसने कश्मीर पर आर्थिक प्रतिबन्ध लगा दिया क्योंकि उस समय कश्मीर का ज्यादातर व्यापार पाकिस्तान से ही होता था जो की भौगोलिक रूप से सुविधाजनक था लेकिन इस प्रतिबन्ध का राजा हरिसिंह पर कोई प्रभाव नहीं पड़ते देख पाकिस्तान ने कश्मीर पर कबायली (किराये के आदिवासी सैनिक) आक्रमण करा दिया।कबायलियों ने कश्मीर में कत्लेआम शुरू कर दिए ।कश्मीर की सुरक्षा के लिए राजा हरिसिंह ने भारत से सहायता मांगी।भारतीय नेता नेहरू और पटेल सहायता देने के पक्ष में थे लेकिन गवर्नर जनरल माउन्टबेटन अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों का हवाला देकर यह कहा की जब तक कश्मीर का भारत में विलय नहीं हो जाता तब तक हम कश्मीर की सहायता नहीं कर सकते अतः मजबूर होकर कश्मीर के प्रधानमंत्री मेहरचंद महाजन ने इंस्ट्रूमेंट ऑफ अक्सेशन(विलय पत्र)पर हस्ताक्षर कर दिए।अतः शीघ्र ही भारतीय सेना हवाई मार्ग से कश्मीर भेजी गयी।भारतीय सेना को कश्मीर से कबायलियों को पीछे भगाने में सफलता मिल रही थी । कुछ और दिनों में भारतीय सेना कश्मीर को पाकिस्तान के कब्जे से पूर्णतया मुक्त करा पाती लेकिन इसी समय नेहरू जी मामले को यू एन ओ में ले गए । यू एन ओ मामले में हस्तक्षेप करके युद्ध विराम समझौता करा दिया।उस समय जितना भूभाग पाकिस्तान के कब्जे में था आजतक पाकिस्तान के कब्जे में बना हुआ है जिसे पाकिस्तान आजाद कश्मीर कहता है तथा भारत पाक अधिकृत कश्मीर।
हलाकि इस मामले को सुलझाने के लिए UNO ने एक आयोग का गठन किया था जिसकी रिपोर्ट में यह प्रस्ताव था की पाकिस्तान कश्मीर से अपनी सेना को वापस ले तो वहाँ जनमत संग्रह कराया जायेगा लेकिन पाकिस्तान ने पाक अधिकृत कश्मीर से सेना वापस लेने से इनकार कर दिया क्योंकि उसको इस बात का भय था की शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में बहुसंख्यक मुस्लिम भारत के पक्ष में मत व्यक्त करेंगे जिससे उसकी पराजय निश्चित थी।
अतः पाकिस्तान की हठधर्मिता के कारण कश्मीर समस्या आज तक बनी हुयी है जो भारत-पाक संबंधों में खटास का प्रमुख कारण है।
कश्मीर के सम्बन्ध में पाकिस्तान के तर्क
1- चूँकि भारत का विभाजन द्वि-राष्ट्र सिद्धांत के आधार पर हुआ था अतः मुस्लिम बहुल कश्मीर पर पाकिस्तान का हक़ है।इसी आधार पर भारत ने जूनागढ़ व हैदराबाद का बल पूर्वक विलय किया था।
2- भौगोलिक रूप से कश्मीर पाकिस्तान के ज्यादा करीब है।स्वतंत्रता से पूर्व कश्मीर का ज्यादातर व्यापार पाकिस्तान वाले क्षेत्र से ही होता था।
3- बिना जनमत संग्रह के कश्मीर का भारत में विलय अवैध है।
4- कश्मीरी जनता आज भी भारत से आजाद होना चाहती है।वह भारतीय झंडे के नीचे नहीं रहना चाहती है।
भारत के तर्क
1- कश्मीर का भारत में विलय पूर्णतया वैधानिक है ।भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 में यह प्रावधान था कि किस रियासत को किसके साथ सामिल होना है यह रियासत के शासक को निर्णय लेना था और जब राजा हरीसिंह ने कश्मीर का भारत में विलय कर दिया है तो अब पाकिस्तान का कोई भी तर्क बेबुनियाद है।
2-द्वि-राष्ट्र का सिद्धांत पाकिस्तान की अपनी बुद्धि की उपज है जिसे शासक मानने के लिए बाध्य नहीं होते।
3- जनमत संग्रह की पूर्व शर्त थी की पाकिस्तान कश्मीर से अपनी सेना वापस ले।जब उसने पहली शर्त मानने से इंकार कर दिया तो अब जनमत संग्रह का राग अलापने का कोई औचित्य नहीं है।
4- जम्मू कश्मीर की निर्वाचित संविधान सभा ने विधिवत प्रस्ताव पारित करके कश्मीर के भारत में विलय को स्वीकार कर लिया है तथा कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग घोषित किया है।
कश्मीर समस्या के सन्दर्भ में भारत द्वारा की गयी गलतियाँ
1- नेहरू द्वारा जनमत संग्रह की बात स्वीकार करना एक बड़ी भूल थी क्योंकि न तो राजा हरिसिंह ऐसी कोई शर्त रखी थी और न ही जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन लोकप्रिय नेता शेख अब्दुल्ला ने ही ऐसी कोई माँग की थी।
2- मामले को UNO में भारत को नहीं ले जाना चाहिए था क्योंकि भारतीय सेना उस समय आगे बढ़ रही थी तथा पाक सेना बैक फुट पर थी।कुछ दिनों में पुरे कश्मीर में मेरा कब्ज़ा हो जाता।
3- भारत ने इस मामले को UN सुरक्षा परिषद में चार्टर के गलत अनुच्छेद के तहत उठाया।मामले को चार्टर के अध्याय 7 के अनु. 39 के तहत उठाना चाहिए था जो शांति के उल्लंघन और आक्रमण की कारवाही से सम्बंधित है।यदि ऐसा होता तो पाकिस्तान को आक्रमणकारी घोषित किया जाता परन्तु भारत ने मामले को अध्याय 6 के अनु.35 के तहत उठाया जो विवादों के शांति पूर्ण निपटारे से सम्बंधित है।ऐसा करके भारत स्वयं विश्व को यह सन्देश दिया की मामला विवादित है।
4- भारत को युद्ध विराम समझौता तभी करना चाहिए था जब पुरे कश्मीर पर भारतीय सेना का कब्जा हो जाता क्योंकि उस समय भारतीय सेना जीत के करीब थी।
भारत और पाकिस्तान के मध्य विवाद के महत्वपूर्ण बिंदु
1- पाक समर्थित आतंकवाद- भारत-पाक युद्ध 1965 तथा 1971 द्वारा यह साबित हो गया की आमने-सामने के युद्ध में भारत को पराजित नहीं किया जा सकता तो पाकिस्तान ने छदम् युद्ध(proxy war) का सहारा लिया, जिसका एक रूप आतंकवाद है।दोनों देशों के रिश्ते सामान्य नहीं हो पा रहे हैं इसका मुख्य कारण अतंकवाद है।अभी हाल ही में जब वार्ता का दौर प्रारम्भ हो ही रहा था की पठानकोट आतंकी हमला हो गया जिससे वार्ता को कुछ दिन के लिए टाल दिया गया है।
2- नदी जल विवाद- पाकिस्तान में प्रवाहित नदियां सिंधु झेलम चनाव रावी सतलज व्यास उदगम् के बाद पहले भारत में प्रवाहित होती हैं फिर पाकिस्तान में अतः पानी के बटवारे को लेकर विवाद प्रारम्भ से ही था लेकिन विश्व बैंक की मध्यस्थता से1960 में सिंधु और उसकी सहायक नदियों के जल बटवारे से सम्बंधित समझौता हुआ।जिसके तहत सिंधु झेलम चेनाव के जल का आधे से अधिक भाग पर पाकिस्तान का घोषित किया गया जबकि रावी सतलज व्यास पर इसीप्रकार भारत के अधिकार को स्वीकार किया गया।लेकिन भारत जब भी सिंधु झेलम चेनाव पर कोई परियोजना स्थापित करने लगता है तो पाकिस्तान हाय तोबा मचाता है।ऐसी ही परियोजनाओं में किशनगंगा परियोजना,बगलिहार परियोजना,तुलबुल परियोजना तथा बुंजी परियोजना हैं।
3- सियाचिन विवाद- सियाचिन उत्तरी कश्मीर में स्थित ग्लेशियर है जिसे कश्मीर अपना बतलाता है तथा बीच-बीच में अपने पर्वतारोही और सैनिक भेजता रहता है जिससे बीच-बीच में झड़पें होती रहती हैं इससे निपटने के लिए भारतीय सेना यहाँ ऑपरेशन मेघदूत चला रही है।यह विश्व का सबसे ऊँचा युद्ध स्थल माना जाता है।
4- सर क्रिक विवाद- भारत के पश्चिमी गुजरात और पाकिस्तान के सिंध प्रान्त का तटवर्ती दलदली उथला समुद्री क्षेत्र के बटवारे को लेकर विवाद है।चूँकि इस क्षेत्र का बटवारा सर क्रिक नामक अंग्रेज अधिकारी के नेतृत्व में हुआ था इस लिए इसे सर क्रिक विवाद कहा जाता है।चूँकि इस क्षेत्र में प्राकृतिक गैस और पेट्रोलियम के भण्डार होने की संभावना है इस लिए दोनों ही देश इस पर अपना दावा प्रस्तुत करते रहते हैं।सन् 1965 में इस मुद्दे को लेकर युद्ध भी हो चूका है लेकिन आजतक कोई समाधान नहीं निकाला जा सका है।
5- पाकिस्तान-चीन की नजदीकियां- पाकिस्तान पाक अधिकृत कश्मीर का लगभग 5000 वर्ग कि मी भाग चीन को दे रखा है जिसे अक्साई चिन कहा जाता है।यह क्षेत्र सामरिक महत्त्व का है जो भारत के सुरक्षा हितों के प्रतिकूल है।चीन इस क्षेत्र से कराकोरम राजमार्ग बना लिया है जिसके माध्यम से पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह को जोड़ने वाला गलियारा बना कर अरब सागर में अपनी उपस्थिति दर्ज करना चाहता है जोकि भारत के सामरिक हितों के प्रतिकूल है।
भारत पाकिस्तान संबंध
सन् 1947 के पूर्व पाकिस्तान भारत का ही हिस्सा था पर देश की आजादी के साथ भारत का विभाजन भी हो गया तथा विभाजन के कारण उत्पन्न समस्याओं से ही दोनों देशों में शत्रुता भी प्रारम्भ हो गया।अब तक दोनों देशों के मध्य छोटे-बड़े कुल चार युद्ध हो चुके हैं लेकिन लेकिन सभी समस्याएं पूर्वत बनी हुयी हैं।
शत्रुता का उदभव व विकास
15 अगस्त 1947 तक सभी देशी रियासतें भारत या पाकिस्तान में विलय हो चुकी थी लेकिन तीन रियासतें अभी भी स्वतन्त्र थी।इन रियासतों के विलय में सबसे बड़ा अड़पेच कश्मीर को लेकर था क्योंकि कश्मीर के डोगरा राजा हरि सिंह न तो इसे पाकिस्तान में विलय करना चाहते थे और न ही भारत में विलय।भारत इस मामले में चुप था लेकिन पाकिस्तान कश्मीर को हर हाल में पाना चाहता था इसलिए पहले तो उसने कश्मीर पर आर्थिक प्रतिबन्ध लगा दिया क्योंकि उस समय कश्मीर का ज्यादातर व्यापार पाकिस्तान से ही होता था जो की भौगोलिक रूप से सुविधाजनक था लेकिन इस प्रतिबन्ध का राजा हरिसिंह पर कोई प्रभाव नहीं पड़ते देख पाकिस्तान ने कश्मीर पर कबायली (किराये के आदिवासी सैनिक) आक्रमण करा दिया।कबायलियों ने कश्मीर में कत्लेआम शुरू कर दिए ।कश्मीर की सुरक्षा के लिए राजा हरिसिंह ने भारत से सहायता मांगी।भारतीय नेता नेहरू और पटेल सहायता देने के पक्ष में थे लेकिन गवर्नर जनरल माउन्टबेटन अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों का हवाला देकर यह कहा की जब तक कश्मीर का भारत में विलय नहीं हो जाता तब तक हम कश्मीर की सहायता नहीं कर सकते अतः मजबूर होकर कश्मीर के प्रधानमंत्री मेहरचंद महाजन ने इंस्ट्रूमेंट ऑफ अक्सेशन(विलय पत्र)पर हस्ताक्षर कर दिए।अतः शीघ्र ही भारतीय सेना हवाई मार्ग से कश्मीर भेजी गयी।भारतीय सेना को कश्मीर से कबायलियों को पीछे भगाने में सफलता मिल रही थी । कुछ और दिनों में भारतीय सेना कश्मीर को पाकिस्तान के कब्जे से पूर्णतया मुक्त करा पाती लेकिन इसी समय नेहरू जी मामले को यू एन ओ में ले गए । यू एन ओ मामले में हस्तक्षेप करके युद्ध विराम समझौता करा दिया।उस समय जितना भूभाग पाकिस्तान के कब्जे में था आजतक पाकिस्तान के कब्जे में बना हुआ है जिसे पाकिस्तान आजाद कश्मीर कहता है तथा भारत पाक अधिकृत कश्मीर।
हलाकि इस मामले को सुलझाने के लिए UNO ने एक आयोग का गठन किया था जिसकी रिपोर्ट में यह प्रस्ताव था की पाकिस्तान कश्मीर से अपनी सेना को वापस ले तो वहाँ जनमत संग्रह कराया जायेगा लेकिन पाकिस्तान ने पाक अधिकृत कश्मीर से सेना वापस लेने से इनकार कर दिया क्योंकि उसको इस बात का भय था की शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में बहुसंख्यक मुस्लिम भारत के पक्ष में मत व्यक्त करेंगे जिससे उसकी पराजय निश्चित थी।
अतः पाकिस्तान की हठधर्मिता के कारण कश्मीर समस्या आज तक बनी हुयी है जो भारत-पाक संबंधों में खटास का प्रमुख कारण है।
कश्मीर के सम्बन्ध में पाकिस्तान के तर्क
1- चूँकि भारत का विभाजन द्वि-राष्ट्र सिद्धांत के आधार पर हुआ था अतः मुस्लिम बहुल कश्मीर पर पाकिस्तान का हक़ है।इसी आधार पर भारत ने जूनागढ़ व हैदराबाद का बल पूर्वक विलय किया था।
2- भौगोलिक रूप से कश्मीर पाकिस्तान के ज्यादा करीब है।स्वतंत्रता से पूर्व कश्मीर का ज्यादातर व्यापार पाकिस्तान वाले क्षेत्र से ही होता था।
3- बिना जनमत संग्रह के कश्मीर का भारत में विलय अवैध है।
4- कश्मीरी जनता आज भी भारत से आजाद होना चाहती है।वह भारतीय झंडे के नीचे नहीं रहना चाहती है।
भारत के तर्क
1- कश्मीर का भारत में विलय पूर्णतया वैधानिक है ।भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 में यह प्रावधान था कि किस रियासत को किसके साथ सामिल होना है यह रियासत के शासक को निर्णय लेना था और जब राजा हरीसिंह ने कश्मीर का भारत में विलय कर दिया है तो अब पाकिस्तान का कोई भी तर्क बेबुनियाद है।
2-द्वि-राष्ट्र का सिद्धांत पाकिस्तान की अपनी बुद्धि की उपज है जिसे शासक मानने के लिए बाध्य नहीं होते।
3- जनमत संग्रह की पूर्व शर्त थी की पाकिस्तान कश्मीर से अपनी सेना वापस ले।जब उसने पहली शर्त मानने से इंकार कर दिया तो अब जनमत संग्रह का राग अलापने का कोई औचित्य नहीं है।
4- जम्मू कश्मीर की निर्वाचित संविधान सभा ने विधिवत प्रस्ताव पारित करके कश्मीर के भारत में विलय को स्वीकार कर लिया है तथा कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग घोषित किया है।
कश्मीर समस्या के सन्दर्भ में भारत द्वारा की गयी गलतियाँ
1- नेहरू द्वारा जनमत संग्रह की बात स्वीकार करना एक बड़ी भूल थी क्योंकि न तो राजा हरिसिंह ऐसी कोई शर्त रखी थी और न ही जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन लोकप्रिय नेता शेख अब्दुल्ला ने ही ऐसी कोई माँग की थी।
2- मामले को UNO में भारत को नहीं ले जाना चाहिए था क्योंकि भारतीय सेना उस समय आगे बढ़ रही थी तथा पाक सेना बैक फुट पर थी।कुछ दिनों में पुरे कश्मीर में मेरा कब्ज़ा हो जाता।
3- भारत ने इस मामले को UN सुरक्षा परिषद में चार्टर के गलत अनुच्छेद के तहत उठाया।मामले को चार्टर के अध्याय 7 के अनु. 39 के तहत उठाना चाहिए था जो शांति के उल्लंघन और आक्रमण की कारवाही से सम्बंधित है।यदि ऐसा होता तो पाकिस्तान को आक्रमणकारी घोषित किया जाता परन्तु भारत ने मामले को अध्याय 6 के अनु.35 के तहत उठाया जो विवादों के शांति पूर्ण निपटारे से सम्बंधित है।ऐसा करके भारत स्वयं विश्व को यह सन्देश दिया की मामला विवादित है।
4- भारत को युद्ध विराम समझौता तभी करना चाहिए था जब पुरे कश्मीर पर भारतीय सेना का कब्जा हो जाता क्योंकि उस समय भारतीय सेना जीत के करीब थी।
भारत और पाकिस्तान के मध्य विवाद के महत्वपूर्ण बिंदु
1- पाक समर्थित आतंकवाद- भारत-पाक युद्ध 1965 तथा 1971 द्वारा यह साबित हो गया की आमने-सामने के युद्ध में भारत को पराजित नहीं किया जा सकता तो पाकिस्तान ने छदम् युद्ध(proxy war) का सहारा लिया, जिसका एक रूप आतंकवाद है।दोनों देशों के रिश्ते सामान्य नहीं हो पा रहे हैं इसका मुख्य कारण अतंकवाद है।अभी हाल ही में जब वार्ता का दौर प्रारम्भ हो ही रहा था की पठानकोट आतंकी हमला हो गया जिससे वार्ता को कुछ दिन के लिए टाल दिया गया है।
3- सियाचिन विवाद- सियाचिन उत्तरी कश्मीर में स्थित ग्लेशियर है जिसे कश्मीर अपना बतलाता है तथा बीच-बीच में अपने पर्वतारोही और सैनिक भेजता रहता है जिससे बीच-बीच में झड़पें होती रहती हैं इससे निपटने के लिए भारतीय सेना यहाँ ऑपरेशन मेघदूत चला रही है।यह विश्व का सबसे ऊँचा युद्ध स्थल माना जाता है।
4- सर क्रिक विवाद- भारत के पश्चिमी गुजरात और पाकिस्तान के सिंध प्रान्त का तटवर्ती दलदली उथला समुद्री क्षेत्र के बटवारे को लेकर विवाद है।चूँकि इस क्षेत्र का बटवारा सर क्रिक नामक अंग्रेज अधिकारी के नेतृत्व में हुआ था इस लिए इसे सर क्रिक विवाद कहा जाता है।चूँकि इस क्षेत्र में प्राकृतिक गैस और पेट्रोलियम के भण्डार होने की संभावना है इस लिए दोनों ही देश इस पर अपना दावा प्रस्तुत करते रहते हैं।सन् 1965 में इस मुद्दे को लेकर युद्ध भी हो चूका है लेकिन आजतक कोई समाधान नहीं निकाला जा सका है।
5- पाकिस्तान-चीन की नजदीकियां- पाकिस्तान पाक अधिकृत कश्मीर का लगभग 5000 वर्ग कि मी भाग चीन को दे रखा है जिसे अक्साई चिन कहा जाता है।यह क्षेत्र सामरिक महत्त्व का है जो भारत के सुरक्षा हितों के प्रतिकूल है।चीन इस क्षेत्र से कराकोरम राजमार्ग बना लिया है जिसके माध्यम से पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह को जोड़ने वाला गलियारा बना कर अरब सागर में अपनी उपस्थिति दर्ज करना चाहता है जोकि भारत के सामरिक हितों के प्रतिकूल है।
कुछ लोग सवाल करते हैं कि जब भारत का संविधान 26 नवम्बर 1949 को बन कर तैयार हो गया था, तो उसे लागू करने में दो महीने की देरी क्यों की गई? तो इसका जवाब है कि 26 जनवरी का ऐतिहासिक महत्व है। सन् 1929 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को युवा अध्यक्ष के रूप में पंडित जवाहर लाल नेहरु मिले। इन्होंने 31 दिसंबर 1929 को लाहौर में रावी नदी के किनारे आजाद भारत के प्रतीक तिरंगा झंडा फहरा कर यह संकल्प लिया कि पूर्ण आजादी से कम हम कुछ भी नहीं स्वीकार करेंगे और अपने इस संकल्प को तरोताजा रखने के लिए यह भी प्रस्ताव पास किया गया कि अगले 26 जनवरी को सांकेतिक रूप से स्वतंत्रता दिवस मनाएंगे। इस प्रकार 1930 से हम 26 जनवरी को स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाते चले आरहे थे लेकिन देश की आजादी के बाद 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस मनाने लगे। तब यह निर्णय हुआ कि 26 जनवरी को हम संविधान को लागू करके गणतंत्र दिवस के रूप में मनाएंगे। अर्थात हमारा देश न केवल संप्रभु संपन्न है अपितु गणतंत्र भी है अर्थात हमारा राष्ट्राध्यक्ष वंशानुगत न होकर जनता का चुना हुआ प्रतिनिधि होगा और यह सब संविधान के द्वारा किया गया।
हमारा संविधान गीता कुरान बाइबल की तरह पवित्र और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसी के द्वारा हमें गरिमामय जीवन जीने का अधिकार मिला है। संविधान लागू होने के बाद ही हम नागरिक बने हैं क्योंकि अधिकार विहीन जनता प्रजा कहलाती है, जबकि अधिकार युक्त जनता नागरिक। इससे पूर्व हम भारत की प्रजा थे क्योंकि इससे पूर्व हमारे केवल कर्तव्य थे अधिकार नहीं थे और ये कर्तव्य निरंकुश शासन द्वारा हमारे ऊपर थोपे गए थे। यदि हम इन कर्तव्यों पालन नहीं करते थे तो हमें कठोर दंड मिलता था।
समानता के अधिकार हमें संविधान द्वारा ही मिले हैं। आज कानून का शासन है और कानून की नजर में राजा और रंक एक समान हैं। सबको कानून का समान रूप से संरक्षण प्राप्त है। सार्वजनिक स्थलों पर नस्ल, जाति, धर्म, लिंग या अन्य किसी भी आधार पर विभेद निषेध किया गया है। सरकारी सेवाओं में सबको समान अवसर उपलब्ध कराया गया है। इतना ही नहीं समाज के कमजोर और गरीब वर्ग के लोगों को विशेष सुविधाएं भी दी गई हैं। संविधान लागू होने से पहले समाज का एक वर्ग अछूत माना जाता था, उनका तिरस्कार किया जाता था अतः संविधान के द्वारा अस्पृश्यता निषेध किया गया। ऐसे वर्ग के लोगो को समाज में बराबरी का दर्जा दिया गया।
पहले राजनीतिक पदों को पाने का अधिकार समाज के अगड़े वर्ग के लोगों तक ही सीमित था लेकिन आज कोई भी व्यक्ति चाहे जिस जाति धर्म लिंग का हो, नीचे से ऊपर तक के सभी पदों के लिए पात्र समझा जाता है। इतना ही नहीं अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों को शासन व्यवस्था में पर्याप्त भागीदारी प्रदान करने के लिए उनकी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण भी दिया गया है। पहले महिलाओं का कार्यक्षेत्र घर की चारदीवारी तक सीमित था, आज उन्हें मताधिकार प्राप्त है, उन्होंने अपनी योग्यता और क्षमता से प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के पदों को भी शुशोभित किया है। यह सब हमारे संविधान की देन है।
आजादी के पूर्व ब्रिटिश शासन के अधीन भारत की दुर्दशा से सभी परिचित हैं लेकिन इसके पहले भी भारत की सामाजिक व राजनीतिक व्यवस्था संतोष जनक नहीं थी। सामंतवादी व्यवस्था में गरीबों, किसानों और मजदूरों के खून पसीने की कमाई सामंत व राजपरिवार के लोग अपनी महत्वाकांक्षा को पूरी करने के लिए बर्बाद करते थे। उत्पादन के साधनों पर समाज के एक वर्ग का एकाधिकार था। अमीर वर्ग द्वारा गरीबों का विभिन्न प्रकार से शोषण होता था। अतः संविधान द्वारा बलातश्रम, बेगारश्रम, बंधुआ मजदूरी, बाल मजदूरी, दास प्रथा, देवदासी प्रथा का निषेध किया गया।
मध्यकाल में बलात धर्म परिवर्तन कराया जाता था अतः संविधान द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को अपने पसंद के धर्म को मानने और उसके अनुसार आचरण करने का अधिकार दिया गया है, बलात धर्म परिवर्तन निषेध किया गया है। देश के सभी नागरिकों को वाक् अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी गई है।
संपत्ति को अर्जित करने, उसका संग्रहण करने, उसका उपभोग करने तथा उसका विक्रय करने का प्रत्येक नागरिक को विधिक अधिकार दिया गया। इतना ही नहीं इन अधिकारों के संरक्षण का भी अधिकार दिया गया।
इसके अतिरिक्त आने वाली सरकारों को यह भी निर्देश दिया गया है वे सामाजिक व आर्थिक न्याय की स्थापना की दिशा में आवश्यक कदम उठाएगी। अमीरों और गरीबों के बीच की दूरी को कम करने का प्रयास करेंगी। कार्य के न्यायोचित दशाओं की बात की गई है। समाज के कमजोर और गरीब वर्ग के लोगों को शिक्षा एवं रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने हेतु विशेष प्रावधान किए जाने की बात कही गई है। बेगार बीमार वृद्ध निःशक्त लोगो को विशेष सहायता हेतु निर्देशित किया गया है। इतना ही नहीं विश्व शांति की बात भी हमारे संविधान में की गई है। संविधान में हमारे कर्तव्यों की भी बात की गई है। अब हमारा कर्तव्य है कि हम संविधान का अनुसरण करें, अपने कर्तव्यों का पालन करें। कुछ लोग अपने कर्तव्यों की बात नहीं करते केवल अधिकारों की बात करते हैं, उनको यह पता नहीं कि आपके कर्तव्य ही दूसरों के अधिकार है। ऐसे लोग फिर संविधान को दोष देने लगते हैं। इस संदर्भ में मै संविधान सभा में डॉक्टर अंबेडकर द्वारा दिए गए अंतिम उद्बोधन (25 नवम्बर 1949 को) का उल्लेख करना चाहता हूँ कि " संविधान चाहे जितना अच्छा हो यदि उसे संचालित करने वाले लोग बुरे हैं तो वह निश्चित ही बुरा साबित होगा। "
यदि ईश्वर का भी पृथ्वी पर अवतरण होता है तो वे भी लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना चाहेंगे। ऐसी दशा में वे वहीं कुछ करेंगे जैसा की हमारा संविधान कहता है। अतः यह कहा जा सकता है कि हमारा संविधान ईश्वर की इच्छा की अभिव्यक्ति है। यह हमारे लिए उतना ही पूज्य और अनुकरणीय है जितना कि गीता कुरान बाइबल। मेरे समझ से संविधान दिवस नहीं बल्कि संविधान सप्ताह मनाया जाना चाहिए। इस सप्ताह में संविधान के प्रावधानों विशेषकर प्रस्तावना, मौलिक अधिकार, नीति निदेशक तत्व, मौलिक कर्तव्य और पंचायती राज व्यवस्था पर कार्यशालाओं का आयोजन किया जाना चाहिए। जन जागरूकता फैलाने के लिए विभिन्न प्रकार के कार्यक्रम जैसे निबंध लेखन प्रश्नमंच आदि का भी आयोजन होना चाहिए।
एक समान सिविल संहिता की व्यवस्था मूल संविधान में ही किया जाना चाहिए था लेकिन पंडित नेहरू का मानना था कि अभी अभी साम्प्रदायिक आधार पर देश का विभाजन हुआ है और भारत के मुस्लिम भाई असहज महसूस कर रहे हैं, ऐसी स्थिति में यदि उनके व्यक्तिगत मामलों में कानूनी हस्तक्षेप किया जाएगा तो वे भारत में अपने भविष्य को लेकर सशंकित हो जाएंगे। लेकिन इसके बावजूद भी एक समान सिविल संहिता के प्रावधान को संविधान के भाग-4 में नीति निदेशक तत्वों के अंतर्गत अनुच्छेद-44 में जगह दिया गया। इसमें यह कहा गया कि राज्य देश के समस्त भाग में रहने वाले नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता के निर्माण का प्रयास करेगा अर्थात आने वाली सरकारों का यह कर्तव्य होगा कि वे एक समान सिविल संहिता को लागू करने की दिशा में आवश्यक कदम उठाएंगी। परन्तु नीति निदेशक प्रावधान न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय नहीं है, यह सरकार की इच्छा पर निर्भर है कि उसे लागू करें या नहीं करे इसीलिए आज तक यह मामला पेंडिंग है।
संविधान निर्माण काल में ही डॉक्टर अंबेडकर एक समान सिविल संहिता को लागू करने की दिशा में कानून बनाने के पक्षधर थे लेकिन नेहरू जी चाहते थे कि पहले हिंदू समाज से जुड़े नियमों कानूनों में संशोधन किया जाए। महिलाओं को संपत्ति का अधिकार दिया जाए। एकल विवाह की व्यवस्था की जाए। महिलाओं को तलाक लेने का अधिकार दिया जाए। बच्चे को गोद लेने के लिए जातीय बंधन समाप्त किए जाए। लेकिन डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद का मानना था कि इतनी शीघ्रता से हजारों वर्ष पुरानी हिंदू परम्परा से छेड़छाड़ करना उचित नहीं और वैसे भी हम प्रत्यक्ष रूप से जनता के चुने हुए प्रतिनिधि नहीं हैं। इस विषय में आम चुनाव के बाद विचार होना चाहिए। उन्होंने इतना तक कहा कि यदि सरकार ऐसा कोई विधेयक पास करके मेरे पास अनुमति के लिए भेजती है तो मै सदन के पास पुनर्विचार के लिए वापस लौटा दूंगा। अतः ऐसा कोई बिल सदन में नहीं प्रस्तुत किया जा सका।
नेहरू जी इलाहाबाद के फूलपुर संसदीय क्षेत्र से प्रथम आम चुनाव लड़ रहे थे जहाँ उनका मुकाबला एक सन्यासी प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी से था। ब्रह्मचारी जी केवल हिन्दू कोड बिल के मुद्दे पर ही मतों का ध्रुवीकरण करके चुनाव जीतना चाहते थे। मतदाताओं की हवा का रूख देखते हुए नेहरू जी बैकफुट पर हो गए और हिन्दू कोड बिल को वापस ले लिए और जनता में यह संदेश प्रसारित किए कि हिंदू कोड बिल में जन भावनाओं का सम्मान करते हुए संशोधन किया जाएगा उसके बाद ही सदन में प्रस्तुत किया जाएगा। नेहरू जी के इस वक्तव्य से अम्बेडकर ही इतने नाराज हो गए कि कैबिनेट से इस्तीफा दे दिए और निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव में उतरे। शायद जनता अम्बेडकर जी से नाराज थी जिसके कारण अम्बेडकर जी चुनाव हार गए लेकिन नेहरू जी और उनकी पार्टी की जीत हुई।
अब हिंदू कोड बिल को सदन में पास कराना नेहरू जी की अकेले की जिम्मेदारी थी। अतः उन्होंने हिन्दू कोड बिल को कई हिस्सो में तोड़कर अलग अलग बिल के रूप में पास करवाकर कानून का रूप दिए। इसके बाद महिलाओं को संपत्ति का उत्तराधिकार प्राप्त हुआ। तलाक का अधिकार मिला। एकल विवाह की व्यवस्था की गई। किसी बच्चे को गोद लेने में जातीय बंधन समाप्त कर दिया गया। लेकिन हिंदू कोड बिल के व्यापक जन विरोध के अनुभव और उससे उपजे भय के कारण आगे की सरकारें एक समान सिविल संहिता को लागू करने की इच्छा शक्ति नहीं दिखा पा रही हैं। उनको पता है कि हिन्दू समाज से कहीं ज्यादा मुस्लिम समाज कंजरवेटिव हैं। वे अपने व्यक्तिगत कानूनों को धर्म सम्मत और अल्लाह की आवाज मानते हैं। यदि उनके व्यक्तिगत मामलों में बल पूर्वक हस्तक्षेप की कोशिश की गई तो परिणाम हिन्दू कोड बिल से भी ज्यादा भयानक हो सकते हैं। रही बात भाजपा कि तो अयोध्या फैसले के बाद कुछ लोग भारत में ऐसा माहौल बनाने का प्रयास कर रहे हैं कि भाजपा हिंदुत्व और संघ का एजेंडा आगे बढ़ा रही है अतः यह उचित समय नहीं कहा जा सकता। नेहरू जी की चिंता आज भी हमारे शीर्ष नेताओं में विद्यमान है। हाँ धीरे धीरे आम सहमति से इस दिशा में आगे अवश्य बढ़ा जा सकता है।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जब पूरा विश्व शीत युद्ध और गुटबंदी के दौर से गुजर रहा था तब नव स्वतंत्र भारत के सम्मुख अपनी स्वतंत्र विदेश स्थापित करने की चुनौती थी। चूंकि भारत शांति पूर्वक अपना नवनिर्माण व विकास करना चाहता था तथा इसके लिए दोनों ही गुटों से आर्थिक व तकनीकी सहायता की आवश्यकता थी इसलिए भारत ने गुटनिरपेक्षता की नीति का अनुसरण किया। यदि हम किसी एक गुट में शामिल होते तो हमारी विदेश नीति स्वतंत्र नहीं रह पाती (जैसा कि नेहरू जी का कहना था कि हम किसी देश के उपग्रह नहीं बनना चाहते) तथा भारत की
लेकिन कुछ विशेषज्ञों की राय है कि आज के बदले वैश्विक परिदृश्य में भी NAM की प्रासंगिकता बनी हुई है। इसके पक्ष में कई बिंदु हैं लेकिन तीन महत्वपूर्ण बिंदु निम्न हैं
1- पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद को समाप्त करने तथा टेरर फंडिंग पर लगाम लगाने के लिए यह मंच महत्वपूर्ण साबित हो सकता है।
2- जब संयुक्त राष्ट्र संघ का गठन हुआ था उस समय इसमें केवल 51 सदस्य थे, लेकिन आज सदस्यों की संख्या बढ़कर 193 हो गई।
3- भारत के लिए NAM इस लिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि विकसित देश विश्व व्यापार संगठन के माध्यम से अपनी नव उपनिवेशवादी नीतियों को विकासशील देशों पर थोपते रहते हैं इसलिए विकसित देशों पर दबाव बनाने के लिए तृतीय विश्व के देशों को एकजुट रहना होगा।
आइये इतिहास के आईने में भारत चीन के रिश्तों को समझने का प्रयास करते हैं।
भारत चीन संबंधों की ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक परंपरा रही है किन्तु बदलते परिदृश्य में आज भारत-चीन संबंधों में एक खास प्रकृति नजर आती है। आज भारत-चीन प्रतिद्वंदी एवं सहयोगी दोनों हैं। जहाँ एक तरफ राजनीतिक एवं सामरिक प्रतिद्वंदिता है वहीँ दूसरी ओर सामाजिक एवं आर्थिक सहयोग भी है। राजनीतिक एवं सामरिक संबंधों के तहत चीन एशिया में भारत को घेरने की कोशिश कर रहा है, जिसे उसकी ‘मोतियों की माला की निति’ कहा जा रहा है। इसके साथ ही साथ वह भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार भी है।
भारत चीन संबंधो में उतार-चढाव
सन् 1949 में जब साम्यवादी चीन का उदय होता है तो गैर साम्यवादी देशों में सबसे पहले भारत ने उसे मान्यता दी जिससे भारत चीन संबंधों के प्रारंभिक चरण में मित्रता के दौर दिखाई दिये। जब चीन ने तिब्बत पर कब्ज़ा कर लिया तब भारत ने उसका विरोध नहीं किया बल्कि 1954 में भारत चीन के मध्य पंचशील समझौता हुआ तथा तिब्बत पर चीन के अधिकार को स्वीकार कर लिया गया। लेकिन 1959 में जब चीन ने तिब्बतवाशियो पर दमन चक्र प्रारम्भ किया तो दलाईलामा के नेतृत्व में कुछ शरणार्थी भारत में शरण ली। जससे चीन नाराज हो गया और भारत तथा चीन के मध्य आरोप-प्रत्यारोप का दौर प्रारम्भ हो गया। इसी समय चीन भारतीय सीमाओ का अतिक्रमण करने लगा तथा 20 अगस्त 1962 को भारत पर आक्रमण कर दिया। चुकी भारतीय सेना इस अप्रत्याशित घटना से निपटने के लिये तैयार नहीं थी इसलिये पराजय का मुह देखना पड़ा। इस आक्रमण के समय चीन ने भारत की लगभग 38000 वर्ग कि.मी जमींन पर कब्ज़ा कर लिया जो आज भी उसके कब्जे में है। इस घटना के बाद से ही हमारे रिश्तों में तनाव के दौर प्रारम्भ हो गए जो आज तक बरकरार है।
सन् 1962 के बाद भारत-चीन राजनयिक सम्बन्ध समाप्त हो गए थे। इसी समय 1964 में चीन अपना पहला परमाणु परीक्षण किया, जिसके बाद भारत ने अपनी परमाणु निति पर पुनर्विचार करके परमाणु परीक्षण करने की तैयारी शुरू कर दी। ध्यातव्य है कि भारत की परमाणु निति नेहरू काल में शांतिपूर्ण कार्यो तक ही सिमित थी। सन् 1974 में श्रीमती गांधी के कार्यकाल में भारत ने अपना प्रथम परमाणु परिक्षण पोखरण-1 किया। जिससे दोनों देशों के बीच प्रतिद्वंदिता और बढ़ गयी।
अब चीन भारत के परम् प्रतिद्वंदी पाकिस्तान की सैन्य साज-सामानों से मदद करने लगा जिससे दोनों देशों के रिश्ते सुधर नहीं सकते थे। लेकिन श्रीमती गाँधी के प्रयासों से सन्1976 में पुनः राजनयिक संबंधो की बहाली होती हैं। जब भारत में जनतापार्टी की सरकार बनती है तो विदेश मंत्री श्री वाजपेयी की चीन यात्रा होती है। रिश्तों के सुधार की दिशा में कुछ सकारात्मक बात होती लेकिन इसी समय चीन द्वारा वियतनाम पर आक्रमण किये जाने के कारण वाजपेयी जी राजनयिक यात्रा पूर्ण होने के पहले ही लौट आये। लेकिन जब भारत में श्री राजीव गाँधी प्रधानमंत्री बनते हैं तो रिश्तो में थोड़ा सुधार होता है तथा सन् 1988 की श्री राजीव गांधी की चीन यात्रा इस दिशा में ऐतिहासिक माना जाता है। सन् 1993 में भारतीय प्रधानमंत्री श्री नरसिम्हा राव की चीन यात्रा होती है। इस समय एक ऐतिहासिक समझौता होता है जिसके तहत राजनीतिक एवं सामरिक मुद्दों को अलग रख कर आर्थिक एवं सामाजिक क्षेत्रों में रिश्तों को सुधारने की बात की जाती है। जिससे दोनों देशों के बीच व्यापारिक सम्बन्ध सकारात्मक दिशा में आगे बढ़ते हैं।
अब धीरे-धीरे पाकिस्तान की तरफ से चीन का मोह थोडा कम होने लगा इसीलिए जब 1999 में कारगिल पर पाकिस्तान अधिकार कर लिया था तो चीन ने पाकिस्तान पर कारगिल को खाली करने का दबाव डाला जिसे भारत की कूटनीतिक विजय माना गया। इसीलिए भारतीय प्रधानमंत्री श्री वाजपेयी जी ने 2003 में चीन की यात्रा की। इसी समय सर्वप्रथम चीन ने शिक्किम को भारत का अभिन्न हिस्सा स्वीकार किया तथा शिक्किम के नाथुला दर्रा को खोलने से सम्बंधित समझौता हुआ हलाकि यह दर्रा 2006 में खोला गया।
भारत एवं चीन के सुधरते रिश्तों के कारण सन् 2007 से भारत और चीन के मध्य संयुक्त सैन्याभ्यास ‘हैण्ड इन हैण्ड’ आयोजित किया जाने लगा लेकिन सन् 2009 में जब चीन ने जम्मू-कश्मीर के लोगों
को स्टेपल वीजा (विवादित क्षेत्र के निवासी मानकर) जारी किया तो यह युद्धाभ्यास रोक दिया गया। परन्तु 2013 से इस प्रकार का सैन्याभ्यास पुनः प्रारम्भ किया गया।
दोनों देशों के मध्य सम्बन्ध सुधारने हेतु सन् 2013 में भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की चीन यात्रा होती है जिस दौरान 9 महत्वपूर्ण बिन्दुओ पर सहयोग समझौता हुआ। लेकिन रिश्तों के सुधार की दिशा में महत्व पूर्ण कदम चीनी राष्ट्रपति शी जिन पिंग की भारत यात्रा 2014 तथा भारतीय प्रधानमंत्री मोदीजी की चीन यात्रा 2015 को माना जा सकता है। दोनों ही नेता अपने गृह शहर में एक दूसरे का प्रोटोकॉल तोड़कर स्वागत करते हैं। मोदीजी की यात्रा शियान प्रान्त से प्रारम्भ होती है। जिसका ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक महत्व है। इस यात्रा के दौरान दोनों देशों के बीच आर्थिक व्यापार विज्ञानं टेक्नोलॉजी तथा संस्कृति के क्षेत्र में कुल 24 समझौते हुए। रेलवे खान खनिज अंतरिक्ष पर्यटन व्यापार व्यवशायिक शिक्षा तथा कौशल विकास के क्षेत्र में सहयोग की बात कही गयी। भारत और चीन के बीच रक्षा सहयोग बढ़ाने हेतु दोनों देशों के सैन्य प्रमुखों के मध्य हॉट लाइन शुरू करने पर सहमति बनी। अतः आशा की जा सकती है की दोनों देशों के बीच निकट भविष्य में विश्वास वहाली होगी।
विवाद के प्रमुख बिंदु
1- सीमा विवाद
जिन कारणों से भारत चीन सम्बन्ध सबसे ज्यादा प्रभावित है उनमे सीमा विवाद सबसे महत्वपूर्ण है। भारत-चीन युद्ध 1962 के दौरान चीन भारत के लगभग 38 हजार वर्ग कि.मी भू-भाग पर कब्जा कर लिया था जो आज भी उसी के कब्जे में है। पाक अधिकृत कश्मीर का लगभग 5 हजार वर्ग कि.मी भू-भाग पाकिस्तान चीन को दे रखा है जिस पर चीन एक राजमार्ग बना लिया है जो भारत के सामरिक हितों के प्रतिकूल है।
2- जल विवाद
ब्रह्मपुत्र नदी उदगम के पश्चात् पहले चीन में प्रवाहित होती है उसके पश्चात अरुणांचल प्रदेश से भारत में प्रवेश करती है। चीन ब्रह्मपुत्र नदी पर बाँध बनाकर उसके मार्ग में परिवर्तन करना चाहता है जिस पर भारत लगातार अपनी आपत्ति जताता रहा है।
3-चीन द्वारा पाकिस्तान की मदद
चीन लगातार सैन्य साज-सामानों से भारत के परम प्रतिद्वंदी पाकिस्तान की मदद करता रहा है जो भारत -चीन संबंधो में खटास का प्रमुख कारण रहा है। चीन पाकिस्तान में न्यूक्लियर रिएक्टर स्थापित कर रहा है इसके साथ ही साथ अरब सागर मे पाकिस्तान के बंदरगाह ग्वादर को विकसित कर रहा है तथा ग्वादर को चीन के उरुमची से जोड़ने वाला 46 अरब डॉलर का गलियारा बना रहा है। जो भारत के सामरिक हितों के प्रतिकूल है। हालाकि चीन की यह नीति पाकिस्तान से दोस्ती बढ़ाना नहीं है बल्कि भारत के ऊपर दबाव बनाने की नीति है।
4-चीन की बढ़ती महत्वाकांक्षा
एशिया में प्रभुत्व स्थापित करने की महत्वाकांक्षा के कारण चीन भारत को अपना प्रतिद्वंदी मानता है। अतः वह नहीं चाहता की भारत को क्षेत्रीय शक्ति का दर्जा प्राप्त हो इसी लिये वह भारत की सयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिसद में स्थायी सदस्यता का समर्थन नहीं करता।
5 – चीन की मोतियो की माला की निति
चीन की यह लगातार नीति रही है की वह हिन्द महासागर में भारत के प्रसार को सिमित कर दे तथा अपने आर्थिक हितों की सुरक्षा कर सके। इसलिए उसने भारत को घेरने के लिए ‘मोतियो की माला की निति’ अपनायी है। जिसके तहत वह भारत के पड़ोसी देशों में नौ सैनिक बेस बना रहा है। अपनी इसी महत्वकांक्षी योजना के तहत म्यांमार के सितवे बन्दरगाह, बांग्लादेश के चटगांव बंदरगाह, श्रीलंका के हम्बनटोटा बंदरगाह, मालदीव के मराओ द्वीपीय बंदरगाह एवं पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह पर को अपने सामरिक हितों के अनुकूल विकसित कर रहा है।
6- अमेरिका फैक्टर
चूंकी चीन अमेरिका को अपना सबसे बड़ा प्रतिद्वंदी मानता है और अमेरिका भी चीन पर नियंत्रण रखने में भारत की महत्वपूर्ण भूमिका को देखते हुए लगातार भारत से अपने संबंधों को सुधार रहा है अतः भारत को लेकर चीन चिंतित है।
सहयोग के प्रमुख बिंदु
1- चीन हमारा सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार है। आज हमारे देश का लगभग 84 अरब डालर का व्यापार चीन के साथ है। हलाकि भुगतान संतुलन चीन के पक्ष में है जिसकी कुछ विशेषज्ञ आलोचना करते हैं। फिर भी दोनों देशों के बीच सहयोग का यह प्रमुख बिंदु है।
2 – ब्रिक्स दोनों देशों का साझा मंच है जिसके माध्यम से दोनों देशों के बीच सहयोग को बढ़ावा दिया जा रहा है।
3-चीनी छात्र इंग्लिश एवं कम्प्यूटर की शिक्षा प्राप्त करने के लिये भारत आते हैं।
4- भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की चीन यात्रा 2013 के समय सिस्टर सिटी समझौता हुआ। जिसके तहत कलकत्ता-कुंसिंग, बेंगलुरु-चेंगदू तथा दिल्ली-बीजिंग को सिस्टर सिटी घोषित किया गया तथा इनके विकास हेतु परस्पर सहयोग का आस्वासन दिया गया। इसी प्रकार का समझौता प्रधानमंत्री मोदीजी की यात्रा के समय भी हुआ।
संबंधों में सुधार हेतु सुझाव
1-चीन को भारत का वह भूभाग वापस कर देना चाहिए जो 1962 के युद्ध में हड़पा था तथा नियंत्रण रेखा का सम्मान करना चाहिए।
2-भारत के बिरुद्ध पाकिस्तान की मदद करने से चीन को बाज आना चाहिए।
3- सयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिसद में भारत की स्थाई सदस्यता का चीन को समर्थन करना चाहिए।
4- चीन को इसलिए भी भारत की मदद करनी चाहिये क्योंकि भारत के शक्तिशाली होने पर बाहरी शक्तियो का एशिया में प्रवेश रुक जायेगा जो भारत की तुलना में चीन के लिये ज्यादा लाभप्रद होगा
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इस बुराई का प्रारंभ अमेरिका में प्रतिनिधि सभा के चुनाव में अधिक सीटें पाने के लिए राजनीतिक दलों द्वारा किया गया लेकिन यह बुराई अब सभी देशों में फैल गई है।
उदाहरण के तौर पर यदि विपक्षी पार्टी के समर्थक मतदाताओं का संकेन्द्रण किसी क्षेत्र विशेष में बड़े पैमाने पर है जिससे उस क्षेत्र में सत्तारूढ़ पार्टी की हार निश्चित होने की दशा में सत्तारूढ़ दल द्वारा परिसीमन इस प्रकार कराया जाए कि उक्त विपक्षी पार्टी के समर्थक मतदाता दो या तीन निर्वाचन क्षेत्रों में वितरित हो जाये जिससे उनकी ताकत काम हो जाये और अगले चुनाव में सत्तारूढ़ पार्टी को सभी निर्वाचन क्षेत्रों में जीत प्राप्त हो जाये।
टामस बेली ने लोकमत की तुलना एक ऐसे राक्षस से की है, जो सोया रहता है, किन्तु जब जागता है तो अच्छे से अच्छे शासन को भी उखाड़ फेकता है।
लोकमत जनता और सरकार के मध्य विचारों में सामंजस्य स्थापित करने की कड़ी है। लोकमत वह कसौटी है जिससे आधार पर सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों का परीक्षण होना चाहिए और इसी के आधार पर उन्हें स्वीकार या अस्वीकार करना चाहिए।
डॉ. आशीर्वादम ने कहा है "जागरूक और सचेत लोकमत स्वस्थ लोकतंत्र की प्रथम आवश्यकता है। "
स्वस्थ लोकमत के निर्माण के लिए जनता को जागरूक बनना होगा अन्यथा चालाक नेता लोग जनमत को अपने पक्ष में करने के लिए भ्रामक खबरे सोशल मीडिया पर फैलाते रहते हैं अतः हम सब को सावधान रहना होगा।
तो आप आसानी से उत्तर दे लेंगे।
इसी प्रकार आपसे पूछा जाए कि पहले आपका बचपन आएगा या जवानी?
इसका भी उत्तर आसानी से दे लेंगे।
अब आप समझिए कि अंडा जीवन की शुरुआत है अतः वह पहले आएगा। अंडा प्रारंभिक काल में एक कोशिक होता है और मुर्गी बहु कोशिक होती है। चूंकि विज्ञान यह प्रमाणित करता है कि बहुकोशिक जीवों का विकाश एक कोशिक जीवों से हुआ हैं। अतः अंडा पहले आएगा।
मै समझता हूँ कि आप समझ गए होंगे। लेकिन आपके मन में ये विचार अभी भी होगा कि वो अंडा कहां से आया होगा जिससे पहली मुर्गी जन्मी होगी तो इसका उत्तर होगा कि वो मुर्गी से मिलती जुलती किसी दूसरे पक्षी का रहा होगा। जैव विकास की थ्योरी यह प्रमाणित कर दिया है कि एक प्रजाति के जीवों से दूसरे प्रजाति के जीवों का विकास हुआ है और इस विकास में वातावरण का प्रभाव सबसे ज्यादा है। इसके अलावा कभी कभी दो प्रजातियों के संकरण से भी नई प्रजाति का जन्म हो जाता है जैसे घोड़े और गधे से खच्चर।
जैव विकास की थ्योरी यह भी मानती है कि पक्षी वर्ग का विकास सरीसृप वर्ग से हुआ है और सरीसृप अंडे देते हैं इस लिए वह अंडा जिससे पहले पक्षी का जन्म हुआ होगा वो सरीसृप का अंडा रहा होगा।
Q-1 I am graduate with economics,political science, psychology and B.Ed. Can I become a social science teacher?
Ans- yes.
K P Sharma - तनाव शैथिल्य का दौर कब शुरू हुआ? Sir ye question ncert se h kya)?
Ans- क्यूबा मिसाइल संकट1962 के बाद तनाव शैथिल्य का दौर प्रारंभ हुआ।हिडेन रूप से यह प्रश्न NCERT में है इसलिए एनपीटी LTBT साल्ट स्टार्ट संधियों की चर्चा है।
आप भी यहाँ👇 कमेंट सेक्शन में कोई प्रश्न पूछ सकते हैं।
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