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The Evolution of Indian Citizenship: Insights from Part 2 of the Constitution

भारतीय संविधान भाग 2: नागरिकता और सामाजिक न्याय की दिशा भारत का संविधान, दुनिया के सबसे विस्तृत और समावेशी संविधानों में से एक है, जो न केवल राज्य की संरचना और प्रशासन के ढांचे को निर्धारित करता है, बल्कि नागरिकों के अधिकारों और कर्तव्यों को भी स्पष्ट रूप से परिभाषित करता है। भारतीय संविधान का भाग 2 भारतीय नागरिकता से संबंधित है, जो एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के मूलभूत ताने-बाने को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। नागरिकता की परिभाषा और महत्व संविधान का भाग 2 भारतीय नागरिकता को परिभाषित करता है, यह स्पष्ट करता है कि एक व्यक्ति को भारतीय नागरिकता कब और कैसे प्राप्त होती है, और किन परिस्थितियों में यह समाप्त हो सकती है। नागरिकता, किसी भी देश में व्यक्ति और राज्य के बीच एक संप्रभु संबंध को स्थापित करती है। यह एक व्यक्ति को अपने अधिकारों का दावा करने का अधिकार देती है और साथ ही राज्य के प्रति उसकी जिम्मेदारियों को भी स्पष्ट करती है। भारतीय संविधान में नागरिकता की प्राप्ति के विभिन्न आधार हैं, जैसे जन्म, वंश, और पंजीकरण के माध्यम से। यह सुनिश्चित करता है कि कोई भी व्यक्ति, जो भारत...

आपके प्रश्न, हमारे उत्तर

 भारतीय संविधान के स्रोत 

भारतीय संविधान में सम्मिलित विभिन्न प्रावधान अलग-अलग स्रोतों से ग्रहण किए गए हैं। जिनका विवरण इस प्रकार है- 

1- भारत शासन अधिनियम 1935 

भारतीय संविधान का बहुसंख्यक भाग भारत शासन अधिनियम 1935 से ग्रहण किया गया है। संविधान के 395 अनुच्छेदों में से लगभग 200 अनुच्छेद हुबहू या थोड़े संशोधनों के साथ इसी अधिनियम द्वारा ग्रहण किए गए हैं। इस अधिनियम से ग्रहण किए गए प्रावधानों में संघीय शासन व्यवस्था, राज्यपाल का पद, तीनों सूचियां (संघ सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची) मुख्य हैं।

2- ब्रिटिश संविधान

 भारत का शासन 150 से अधिक वर्षों तक ब्रिटिश संसद द्वारा बनाए गए कानूनों द्वारा संचालित होता था। अतः भारतीय संविधान ब्रिटिश संविधान से प्रभावित होना स्वाभाविक था। ब्रिटिश संविधान द्वारा ग्रहण किए गए मुख्य प्रावधान इस प्रकार हैं - संसदीय शासन प्रणाली, विधि निर्माण प्रक्रिया, विधि का शासन, स्पीकर का पद, एकल नागरिकता तथा सापेक्ष मतों से चुनाव में जीत आदि।

3- अमेरिकी संविधान 

अमेरिकी संघात्मक व्यवस्था पूरे विश्व के लिए संघात्मक शासन के एक मॉडल के रूप में स्वीकारा जाता है। अतः जब भारतीय संविधान में संघीय शासन प्रणाली को अपनाने की बात होने लगी तो, अमेरिकी संघात्मक व्यवस्था का भारत पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था। इसके अतिरिक्त न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति, राष्ट्रपति की सैन्य शक्तियां, उपराष्ट्रपति का पद तथा मौलिक अधिकारों की व्यवस्था आदि प्रावधान अमेरिकी संविधान द्वारा ग्रहण किए गए हैं।

4- कनाडा का संविधान

 भारत में संघीय व्यवस्था तो अमेरिकी संविधान से लिया गया है लेकिन इसे कनाडा की संघीय व्यवस्था के तर्ज पर विकसित किया गया है। कनाडा के संविधान की ही भांति भारत में अवशिष्ठ शक्तियां संघ सरकार के पास है। कनाडा के संविधान की ही भांति भारत में राज्य विधान मंडल द्वारा पारित विधेयकों को राज्यपाल राष्ट्रपति के विचार हेतु सुरक्षित रख सकता है।

5- आयरलैंड का संविधान

 भारतीय संविधान में शामिल किए गए नीति निदेशक तत्व, राज्यसभा में राष्ट्रपति द्वारा नामित सदस्यों की व्यवस्था आयरलैंड के संविधान से ग्रहण किया गया है।

6- ऑस्ट्रेलिया का संविधान

 भारतीय संविधान में तीन सूचियों की व्यवस्था है।प्रथम संघ सूची जिसमें सम्मिलित विषयों पर कानून बनाने की शक्ति केन्द्र सरकार को है। दूसरी राज्य सूची जिसमें सम्मिलित विषयों पर कानून बनाने की शक्ति राज्यों को है।तीसरी समवर्ती सूची जिसमें सम्मिलित विषयों पर कानून बनाने की शक्ति केंद्र और राज्य दोनों को है। समवर्ती सूची की यह व्यवस्था ऑस्ट्रेलिया के संविधान से ग्रहण किया गया है। 

7- जर्मनी का वाइमर संविधान

 भारत की शासन व्यवस्था संघात्मक है, लेकिन आपातकाल में यह एकात्मक रूप धारण कर सकती है। संविधान की इसी व्यवस्था को आपातकालीन उपबंध कहते हैं। इस व्यवस्था को जर्मनी के संविधान से ग्रहण किया गया है।

 8- जापान का संविधान 
भारत ने न्यायपालिका की न्यायिक पुनरीक्षण की शक्ति अमेरिका से ग्रहण किया है। लेकिन अमेरिकी शब्दावली 'विधि की उचित प्रक्रिया' के स्थान पर जापानी शब्दावली 'विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया' को ग्रहण करके न्यायपालिका की न्यायिक पुनरीक्षण की शक्ति को सीमित कर दिया गया है।

9- फ्रांस का संविधान 

भारत में स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का सिद्धांत तथा गणतंत्रात्मक व्यवस्था फ्रांस के संविधान से ग्रहण किया गया है।

 10- रूस (पूर्व सोवियत संघ ) का संविधान

 मूल संविधान में मौलिक कर्तव्यों का उल्लेख नहीं था। इसे 42वें संशोधन द्वारा संविधान में जोड़ा गया।भारतीय संविधान में मौलिक कर्तव्यों की यह व्यवस्था पूर्व सोवियत संघ के संविधान से ग्रहण किया गया है

11- दक्षिण अफ्रीका का संविधान

देश और काल की परिस्थितियों के अनुरूप भारतीय संविधान को संशोधित किया जा सकता है।भारतीय संविधान में यह व्यवस्था दक्षिण अफ्रीका के संविधान से ग्रहण किया गया है।

12- विभिन्न न्यायिक निर्णय

न्यायालय के विभिन्न निर्णय आगे चलकर संविधान का हिस्सा बन जाते हैं। जैसे- केशवानंद भारती वाद (1973) में न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि संसद संविधान के किसी भी भाग में संशोधन कर सकती है, लेकिन संविधान के मूल ढांचे में बदलाव नही कर सकती है।आज यह निर्णय संविधान का हिस्सा बन चुका है।


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भारतीय संविधान की प्रस्तावना के महत्व पर प्रकाश डालिए।   अथवा

 भारतीय संविधान की प्रस्तावना भारतीय संविधान का मूलभूत दर्शन है, स्पष्ट कीजिए।

संविधान निर्माण हेतु गठित संविधान सभा में 13 दिसंबर 1946 को जवाहरलाल नेहरू उद्देश्य प्रस्ताव प्रस्तुत किए थे। इसमें उन आदर्शों और मूल्यों का उल्लेख था जिसकी दिशा में संविधान सभा को कार्य करना था। इस उद्देश्य प्रस्ताव को 22 जनवरी 1947 को विस्तृत विचार विमर्श के बाद सर्वसम्मति से पारित कर दिया गया था। संविधान निर्माण का कार्य संपन्न हो जाने के बाद इस उद्देश्य प्रस्ताव को थोड़े संशोधनों के साथ संविधान के प्रारंभ में उद्देशिका या प्रस्तावना के रूप में सम्मिलित कर लिया गया। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में यह बात स्पष्ट कर दिया है कि संविधान का जो भाग अस्पष्ट है, उसकी व्याख्या हेतु उद्देशिका को प्रकाश स्तंभ के रूप में देखा जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त हमारी उद्देशिका हमारे संविधान के उन आदर्शों का स्पष्टीकरण भी करती है जिसकी स्थापना हेतु संविधान सभा का गठन किया गया था। इसके महत्व के संदर्भ में डॉ सुभाष कश्यप का कहना है कि "प्रस्तावना का एक एक शब्द एक एक चित्र है,ऐसा चित्र जो बोलता है, एक कहानी कहता है तपस्या, त्याग और बलिदान की कहानी।" सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में यह बात भी स्पष्ट कर दिया कि संविधान की प्रस्तावना संविधान का अभिन्न अंग है तथा यह संविधान के मूलभूत ढांचे का हिस्सा है। अतः संसद इसमें परिवर्तन करने में तो सक्षम है लेकिन इसके मौलिक सिद्धांतों में परिवर्तन नहीं कर सकती। कुछ विचारक इसे संविधान की आत्मा भी मानते हैं।

 वर्तमान में भारतीय प्रस्तावना का स्वरूप इस प्रकार है- 

"हम भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय; विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता; प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता को बढ़ाने के लिए दृढ़संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज दिनांक 26 नवंबर 1949 ई. ( मिति मार्गशीष शुक्ल सप्तमी, संवत 2006 विक्रमी) को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।"

उपरोक्त प्रस्तावना का विश्लेषण करते हुए इसे चार भागों में बांटा जा सकता है ।
1- सत्ता के स्रोत की जानकारी 
2- शासन के स्वरूप की जानकारी
3- संविधान या शासन के उद्देश्य की जानकारी 
4- संविधान को अंगीकृत करने की तिथि की जानकारी 

1-सत्ता के स्रोत की जानकारी 

संविधान की प्रस्तावना का प्रारंभिक कथन "हम भारत के लोग......... इस संविधान को अंगीकृत अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।" से यह पता चलता है कि भारत में संप्रभुता का अंतिम स्रोत भारत की संपूर्ण जनता है।

2- शासन के स्वरूप की जानकारी

 प्रस्तावना में प्रयुक्त पांच शब्द संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष , लोकतांत्रिक, गणराज्य शासन के स्वरूप की जानकारी देते हैं। उपरोक्त शब्दावलियों का अर्थ इस प्रकार है-

 संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न

इसका तात्पर्य यह है कि भारत आंतरिक रूप से सर्वोच्च तथा वाह्य रूप से स्वतंत्र है। अर्थात किसी भी बाहरी शक्ति या संगठन के अधीन नहीं है।

 समाजवादी 

इसका अर्थ यह है कि सरकार की नीति इस प्रकार हो कि अमीर और गरीब के बीच के अंतर को कम किया जा सके। 
इसी उद्देश्य के तहत भारत में मिश्रित अर्थव्यवस्था तथा आर्थिक नियोजन जैसे कार्यक्रमों को अपनाया गया है ।

पंथनिरपेक्षता 

इसका तात्पर्य है कि भारत किसी भी धर्म को राष्ट्रीय धर्म नहीं घोषित किया है । यहां सभी धर्मो को समान रूप से संरक्षण प्राप्त है। यहां के सभी नागरिकों को अपने पसंद के धर्म मानने तथा उसके अनुसार आचरण करने की स्वतंत्रता है ।

 लोकतंत्रात्मक

 इसका तात्पर्य है कि भारत में जनता द्वारा चुनी गई सरकार है।

 गणराज्य 

इसका तात्पर्य है कि भारत का राष्ट्राध्यक्ष वंशानुगत नहीं होकर निर्वाचित व्यक्ति होता है। 

3- संविधान या शासन के उद्देश्यों की जानकारी 

भारतीय संविधान की प्रस्तावना में संविधान या शासन के 4 उद्देश्यों को सम्मिलित किया गया है। ये उद्देश्य इस प्रकार हैं -

न्याय

 प्रस्तावना में सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय की स्थापना की बात की गई है। जिसका तात्पर्य यह है कि समाज में अमीर-गरीब, उच्च-निम्न, छुआ-छूत का भेदभाव नहीं किया जाएगा तथा सबको समान रूप से शासन प्रक्रिया में भाग लेने का अधिकार है।

 स्वतंत्रता 

प्रस्तावना में सभी व्यक्तियों को विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता का उल्लेख किया गया है। इसका तात्पर्य यह है कि व्यक्तियों को अपने विचारों को व्यक्त करने की स्वतंत्रता है। अपने पसंद के धर्म को मानने तथा उसके अनुसार आचरण करने की स्वतंत्रता है।

समता 

संविधान की प्रस्तावना में प्रतिष्ठा एवं अवसर की समता की बात की गई है। जिसका तात्पर्य यह है कि सभी व्यक्ति समान है, कोई विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग नहीं है। अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए सबको समान अवसर प्राप्त होने चाहिये। इसके साथ ही सरकारी नौकरियों तक सबकी पहुंच समान रूप से हो।

बंधुता 

संविधान में व्यक्ति की गरिमा, राष्ट्र की एकता और अखंडता को सुनिश्चित करने वाली बंधुता की बात कही गई है अर्थात सभी भारतवासी मिल जुल कर गरिमा के साथ रहें, ऐसी व्यवस्था की स्थापना की जाए।

 4- संविधान को अंगीकृत के जाने की तिथि की जानकारी

 प्रस्तावना के अंत में संविधान को अंगीकार और अधिनियमित करने की तिथि 26 नवंबर 1949 बतलाई गई है।

 उपरोक्त विश्लेषण से यह पता चलता है कि भारतीय संविधान की प्रस्तावना भारतीय संविधान का मूलभूत दर्शन है।इसीलिए डॉ सुभाष कश्यप का कहना है कि "संविधान शरीर है तो प्रस्तावना उसकी आत्मा, प्रस्तावना आधारशिला है तो संविधान उस पर खड़ी हुई इमारत।"

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शीत युद्ध काल में भारत सोवियत संघ के संबंधों पर प्रकाश डालिए।

भारत - सोवियत रूस संबंध

भारत और सोवियत रूस के संबंधों को इतिहास के आईने में देखा जाए तो यह पता चलता है कि प्रारंभ से ही रूस हमारा विश्वसनीय मित्र रहा है। इस मित्रता एवं सहयोग को चरणबद्ध तरीके से निम्न प्रकार से व्यक्त किया जा सकता है-

 भारत ने जब गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाई, तो अमेरिका ही नहीं बल्कि रूस भी, भारत की इस नीति पर संदेह करता था। अतः रूस में भारतीय राजदूत सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने रूसी राष्ट्रपति स्टालिन को गुटनिरपेक्षता की नीति को समझाने की कोशिश किए जिसमें वे सफल भी हुए। इसी समय जब कोरिया युद्ध के दौरान अमेरिकी सेना 38 अंश अक्षांश के ऊपर बढ़ने लगी तो भारत ने अमेरिका की इस कार्यवाही का विरोध किया, जिससे रूस बहुत प्रभावित हुआ और भारत एवं रूस के मध्य सहयोगात्मक संबंधों की दिशा में सकारात्मक पहल प्रारंभ हो गई।

 भारत की आर्थिक नीतियों में रूस का सहयोग स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। पंचवर्षीय योजनाओं का निर्माण रूस से ही नकल किया गया था। द्वितीय योजना काल में भिलाई इस्पात संयंत्र एवं तृतीय योजना काल में बोकारो इस्पात संयंत्र की स्थापना रूस के सहयोग से ही की गई थी।

 सन 1965 में जब भारत पाकिस्तान युद्ध चल रहा था, उस समय पहले तो रूस चुप्पी साधे रहा, लेकिन जब भारतीय सेना का इस्लामाबाद तक कब्जा हो गया, तब चीन ने भारत को धमकी दी कि यदि भारत अपने सैनिकों को पीछे नहीं लेता है तो चीन पाकिस्तान की तरफ से भारत पर आक्रमण कर देगा। इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए रूस ने चीन को कड़े शब्दों में फटकारते हुए कहा कि 'आग में घी डालने से बाज आए अन्यथा परिणाम भयंकर होंगे।' युद्ध की समाप्ति के पश्चात भारत और पाकिस्तान के मध्य ताशकंद समझौता(1966) कराने में रूस का ही योगदान है। हलाकि इस समझौते से भारत को कोई फायदा नहीं हुआ था।

जब सन 1971 में बांग्लादेश की स्वतंत्रता के मुद्दे पर भारत पाकिस्तान के बीच युद्ध चल रहा था, तो अमेरिका ने अपना सबसे शक्तिशाली सातवाँ समुद्री बेड़ा पाकिस्तान की मदद के लिए भेजा। जिससे सुरक्षा प्राप्त करने के लिए भारत ने कूटनीतिक पहल करते हुए रूप से 20 वर्षीय मैत्री समझौता किया। जिसका पता चलते ही अमेरिका सक्ते में आ गया और जब रूस ने अपने जंगी जहाजों का बेड़ा अरब सागर में भेज दिया, तो अमेरिका ने अपना बेड़ा वापस ले लिया।अतः भारत को पाकिस्तान से निपटना आसान हो गया।

कश्मीर मुद्दे पर अमेरिका लगातार पाकिस्तान का समर्थन कर रहा था।ऐसी स्थिति में यदि सोवियत रूस भारत का समर्थन नहीं किया होता तो शायद पूरा कश्मीर पाकिस्तान के कब्जे में चला गया होता।कश्मीर के मुद्दे पर रूस का एक कथन उल्लेखनीय है-
"कश्मीर मुद्दे पर यदि भारत हिमालय की चोटी से भी सहायता के लिए आवाज लगाता है तो रूस भारत की मदद के लिए दौड़ा दौड़ा चला आएगा।"

 सन 1974 में भारत ने पोखरण-1 के तहत अपना पहला परमाणु परीक्षण किया तो अमेरिका नाराज हो गया। जिस पर रूस प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि जब पश्चिमी देश विकासशील देशों को सुरक्षा की गारंटी नहीं दे सकते तथा परमाणु शक्ति संपन्न देश अपना परमाणु निशस्त्रीकरण नहीं कर सकते तो उन्हें अन्य देशों पर इस प्रकार का प्रतिबंध लगाने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है। इतना ही नही रूस ने भारत के परमाणु रिएक्टरों को चलाने हेतु कुछ हद तक यूरेनियम की सप्लाई भी की थी।

 गोर्बाच्योव जब रूस के राष्ट्रपति बने, तो इनकी नीतियां उदारवादी थी। इनके कार्यकाल में आर्थिक सहयोग समझौता हुआ। जिसके तहत रूस ने भारत के टिहरी बांध परियोजना (उत्तराखंड), बोकारो इस्पात संयंत्र के प्रसार, झरिया कोयला उत्खनन एवं बंगाल की खाड़ी में तेल संभावनाओं का पता लगाने हेतु आवश्यक तकनीकी उपलब्ध कराने में सहयोग दिया।

 लेकिन सोवियत संघ के विघटन के पश्चात भारत और रूस के संबंधों को पुनः स्थापित करने की चुनौती थी। जिसके लिए 1993 में पुनः एक संधि पर हस्ताक्षर किया गया। जिसके तहत रूस ने विभिन्न अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कश्मीर मुद्दे पर भारत का समर्थन करने का आश्वासन दिया तथा दोनों देशों के मध्य सैन्य एवं तकनीकी सहयोग समझौता भी हुआ। इस समझौते में कुछ ऐसे प्रावधान भी थे, जिन्हें गुप्त रखा गया था। लेकिन जब भारत का रुझान अमेरिका की तरफ बढ़ने लगा तो भारत रूस संबंधों में थोड़ी शिथिलता आई।परन्तु 1998 में जब भारत ने पोखरण-2 के तहत 5 परमाणु परीक्षण किया तो अमेरिका नाराज होकर भारत पर प्रतिबंध लगा दिया, जबकि रूस ने इस प्रकार के प्रतिबंधों की निंदा की। इस प्रकार वर्तमान में भारत - चीन के मध्य उपजे तनाव के दौर में चीन की कड़ी आपत्तियों के बावजूद भी रूस ने दुनिया का सबसे ताकतवर एयर डिफेंस मिसाइल सिस्टम S-400 का समय पर डिलीवरी का आश्वासन दिया।

उपरोक्त घटनाओं से यह साबित हो गया है कि रूस ही ऐसा मित्र है जिसे समय की कसौटी पर खरा माना जा सकता है। इसीलिए तो भारत ने रूस को Time-Tested Friend की संज्ञा दी है।

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संविधान सभा का गठन

 भारतीय संविधान कैसे बना?

संविधान सभा का गठन कैबिनेट मिशन योजना 1946 के तहत किया गया। इसका गठन ब्रिटिश भारतीय प्रान्तों की विधानसभा के सदस्यों द्वारा चुने गए 292 सदस्य, देशी रियासतों व आयुक्त क्षेत्रों  (दिल्ली,अजमेर,मोरवाड़ा, कुर्ग और ब्रिटिश बलूचिस्तान) द्वारा नामित क्रमशः 93 व 4 सदस्यों अर्थात कुल 389 सदस्यों के द्वारा किया गया था। संविधान सभा के प्रतिनिधियों का चुनाव प्रत्यक्ष रूप से जनता द्वारा नहीं किया गया था। इसका कारण यह है कि यह एक खर्चीली एवं अधिक समय लगने वाली प्रक्रिया है। चूंकि तत्कालीन समय के कुछ महीने पूर्व ही राज्य विधानसभाओं के लिए चुनाव हुआ था ।अतः विधानसभाओं के सदस्यों को जनता का वास्तविक प्रतिनिधि मानकर संविधान सभा के सदस्यों के चुनाव हेतु बनाए गए निर्वाचक मंडल में शामिल कर लिया गया। निर्वाचन के पश्चात संविधान सभा में कांग्रेस का स्पष्ट रूप से वर्चस्व था। उसे कुल 208 सीटें प्राप्त हुई थी जबकि उसकी मुख्य प्रतिद्वंदी पार्टी मुस्लिम लीग को मात्र 73 सीटें प्राप्त हुई। अतः अपनी कमजोर स्थिति को देखते हुए मुस्लिम लीग ने संविधान सभा का बहिष्कार किया और पृथक पाकिस्तान का राग अलापना शुरू कर दिया।आगे चलकर देश के विभाजन के साथ ही संविधान सभा का भी विभाजन हो गया।जो सदस्य तत्कालीन पाकिस्तान क्षेत्र से चुनकर आए थे, वे संविधान सभा से अलग हो गए। अतः सदस्य संख्या घटकर 299 हो गई , तथा जब भारत का संविधान बन कर तैयार हुआ, तब तक सदस्य संख्या घट कर 284 रह गई थी। इन्हीं 284 सदस्यों ने संविधान को हस्ताक्षर करके अंगीकृत किया था।

संविधान निर्माण प्रक्रिया

 संविधान सभा के सदस्यों की प्रथम बैठक 9 दिसंबर 1946 को आयोजित की गई। जिसकी अध्यक्षता संविधान सभा के सबसे वरिष्ठ सदस्य डॉ सच्चिदानंद सिन्हा (अस्थाई अध्यक्ष) ने किया।इस दिन संविधान सभा के सभी सदस्यों का शपथ ग्रहण कराया गया।  इसके पश्चात 11 दिसंबर 1946 को संविधान सभा ने सर्वसम्मति से डॉ राजेंद्र प्रसाद को अपना स्थाई अध्यक्ष चुना। 13 दिसंबर 1946 को पंडित जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा में उद्देश्य प्रस्ताव प्रस्तुत किया। इसमें एक राष्ट्र की आकांक्षाओं और मूल्यों का प्रतिबिंब सम्मिलित किया गया था। इस उद्देश्य प्रस्ताव को परिचर्चा तथा थोड़े संशोधनों के साथ 22 जनवरी 1947 को सर्वसम्मति से पारित कर दिया गया। यही उद्देश्य प्रस्ताव अंतिम रूप से निर्मित संविधान की उद्देशिका या प्रस्तावना का आधार बना।

 इसके पश्चात संविधान सभा के विभिन्न कार्यों को निष्पादित करने के लिए विभिन्न समितियों का गठन किया गया। जिसमें से कुछ मुख्य समितियां इस प्रकार थी-
# संघ संविधान समिति
# राज्य संविधान समिति
# मौलिक अधिकारों से संबंधित समिति
# झंडा समिति 
# बाद में गठित प्रारूप समिति 

 विभिन्न समितियों द्वारा प्राप्त प्रतिवेदनों तथा विभिन्न देशों के संविधानों के अध्ययन के आधार पर संविधान सभा के संवैधानिक सलाहकार सर बेनेगल नरसिंह राव ने प्रथम प्रारूप संविधान को तैयार किया, जिसमें 243अनुच्छेद और 13अनुसूचियां थी। इस प्रारूप संविधान पर विचार करने हेतु प्रारूप समिति का गठन किया गया, जिसके अध्यक्ष डॉ भीमराव अंबेडकर थे। प्रारूप संविधान पर विधिवत विचार-विमर्श, मूल्यांकन एवं आवश्यक संशोधनों के पश्चात द्वितीय प्रारूप संविधान बना। प्रारूप समिति द्वारा संशोधित द्वितीय प्रारूप संविधान में 315 अनुच्छेद और 8 अनुसूचियां थी। इस द्वितीय प्रारूप संविधान पर विचार करने हेतु संविधान सभा का प्रथम वाचन आयोजित किया गया। जिसमें एक-एक अनुच्छेद पर विस्तृत परिचर्चा हुयी। द्वितीय वाचन में विभिन्न प्रकार के संशोधन प्रस्तावित किए गए। कुल मिलाकर 7635 संशोधन प्रस्तावित किए गए थे, जिसमें से 2473 संशोधनों को स्वीकार कर लिया गया। इस प्रकार अंतिम रूप से संविधान बन कर तैयार हो गया। जिसमे 395 अनुच्छेद और 8 अनुसूचियां थी। अंत में 26 नवंबर 1949 को अंबेडकर जी ने अंतिम रूप संविधान को संविधान सभा के सदस्यों को पारित करने के लिए कहा। जिसे संविधान सभा के 284 सदस्यों ने सर्वसम्मति से पारित और मूल संविधान पर हस्ताक्षर करके अंगीकृत किया। संविधान के कुछ प्रावधान उसी दिन लागू कर दिए गए थे- जैसे नागरिकता एवं निर्वाचन से संबंधित प्रावधान। शेष प्रावधान 26 जनवरी 1950 को ऐतिहासिक महत्व का दिन होने के कारण लागू किया गया। जिसे आज गणतंत्र दिवस के रूप में मनाया जाता है।
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किसी संविधान को समर्थ और प्रभावी बनाने वाले तत्व 

सभी तरह की शासन व्यवस्था, चाहे लोकतंत्र हो,या राजतंत्र या तानाशाही, प्रत्येक में संविधान अवश्य होता है।संविधान लिखित भी हो सकता है और अलिखित भी,लेकिन संविधान अवश्य होता है।इसीलिए तो जेलिनेक का कथन है कि "संविधान के बिना राज्य,राज्य न होकर अराजकता होगी।" हां यह बात और है कि कुछ देशों के संविधान समर्थ और प्रभावी होते हैं जबकि कुछ देशों के संविधान केवल कागज का पुलिंदा मात्र ,उनमे कोई जीवंत अस्तित्व नही होता।आइये जानते हैं वे कौन से तत्व हैं, जो एक संविधान को समर्थ और प्रभावी बनाते हैं?

1- संविधान को प्रचलन में लाने का तरीका

किसी भी संविधान की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि वह अस्तित्व में कैसे आया तथा किसके द्वारा व किन परिस्थितियों में संविधान का निर्माण किया गया है।भारतीय संविधान को सर्वाधिक वैधता मिली क्योंकि यह राष्ट्रीय आंदोलन के बाद निर्मित हुआ तथा इसके निर्माण प्रक्रिया में सभी वर्ग,जाति के प्रतिनिधि सम्मिलित थे। यह संविधान समानता और स्वतंत्रता के सिद्धांतों पर आधारित है। संविधान निर्माण जनता के ऐसे  लोकप्रिय प्रतिनिधियों के द्वारा किया गया, जिन पर उनकी अटूट आस्था थी।

2- संविधान के मौलिक प्रावधान 

एक सफल संविधान की यह विशेषता होती है कि प्रत्येक व्यक्ति के पास संविधान का सम्मान करने का कोई ठोस कारण अवश्य हो। कोई भी संविधान अपने में पूर्ण नहीं हो सकता परंतु इसे जनता को यह विश्वास दिलाने में सफलता अवश्य मिलनी चाहिए कि यह संविधान न्यायपूर्ण समाज की स्थापना कराने में समर्थ है तथा यह अपने सभी नागरिकों की स्वतंत्रता और समानता के अधिकारों की रक्षा कर सकता है।

3- संस्थाओं की संतुलित रूपरेखा 

संविधान के द्वारा विभिन्न संस्थाओं में शक्ति संतुलित रूप से विभाजित हो। किसी संस्था के पास समस्त शक्तियों का एकाधिकार ना हो। भारतीय संविधान समस्त शक्तियों का विभाजन विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका के बीच न्याय पूर्ण तरीके से किया गया है।जिससे कोई भी संस्था संविधान को नष्ट नहीं कर सकती और ना ही दूसरी संस्थाओं की शक्ति का अतिक्रमण कर सकती है।

4- संविधान प्रभावी होने की कसौटी यह है कि वह केवल कागजों पर मौजूद ना हो

सरकारों से अपेक्षा की जाती है कि संविधान में जिन बातों का वादा किया गया है उन्हें वह साकार रूप प्रदान करें।अन्यथा संविधान की गरिमा समाप्त हो जाती है केवल एक कागज का पुलिंदा बन कर रह जाता है।

5- संविधान एक जीवंत दस्तावेज

संविधान निर्माताओं को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि संविधान समय और परिस्थितियों के अनुसार अपने आप को ढाल सके। इसके लिए संविधान न तो बहुत अधिक कठोर होना चाहिए और न ही बहुत अधिक लचीला, बल्कि दोनों के बीच उचित सामंजस्य होना चाहिए।

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शॉक थेरेपी 

सोवियत संघ के विघटन के पश्चात रूस, पूर्वी यूरोप व मध्य एशिया के देशों ने विश्व बैंक एवं अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के दबाव में आकर साम्यवाद से पूंजीवादी व्यवस्था में परिवर्तित होने का निर्णय लिया, जिसके लिए उन्होंने शॉक थेरेपी मॉडल का सहारा लिया । परंतु यह मार्ग आसान नहीं था, साम्यवादी व्यवस्था का लोकतांत्रिक पूंजीवादी व्यवस्था में यह संक्रमण कष्टप्रद मार्ग से गुजरा।आइये जानते हैं, क्या है शॉक थेरेपी और क्या हैं इसके दुष्परिणाम ?

शॉक थेरेपी का अर्थ

 सोवियत संघ के पतन के बाद रूस, पूर्वी यूरोप व मध्य एशिया के देशों में साम्यवाद से पूंजीवाद की ओर संक्रमण के लिए एक विशेष मॉडल को अपनाया गया जिसे शॉक थेरेपी (आघात पहुंचा कर उपचार करना) कहा जाता है। विश्व बैंक एवं अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMG) के द्वारा इस मॉडल को प्रस्तुत किया गया । शॉक थेरेपी में निजी स्वामित्व, राज्य संपदा के निजीकरण और व्यवसायिक स्वामित्व के ढांचे को अपनाना, पूंजीवादी पद्धति से कृषि करना तथा मुक्त व्यापार को पूर्ण रुप से अपनाना शामिल है। वित्तीय खुलेपन तथा मुद्राओं की आपसी परिवर्तनीयता भी महत्वपूर्ण मानी गई।इसे ही एलपीजी अर्थात उदारीकरण निजीकरण और वैश्वीकरण की नीति भी कहा जाता है।भारत में भी इसका प्रभाव 1991के बाद देखा गया।1991में सोवियत संघ के पतन के बाद दूसरी दुनिया के देशों की व्यवस्था में अमूलचूल परिवर्तन देखने को मिले।इस नई व्यवस्था को उत्तर-साम्यवादी व्यवस्था का नाम दिया गया।

उत्तर-साम्यवादी व्यवस्था की विशेषताएं-
1- राजनीति अर्थव्यवस्था व समाज के ऊपर साम्यवादी पार्टी के नियंत्रण का अंत हो गया।
2- बहुलवादी समाज का उदय हुआ।अब लोगों को अपने हितों की रक्षा करने या उनके संवर्धन करने की अनुमति मिल गयी।
3- आर्थिक प्रतिबंध हटने लगे जिससे बाजार खुला। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को प्रोत्साहित किया गया। राज्य और बाजार परस्पर मित्र समझे जाने लगे।
4- नई संस्थाए स्थापित होने लगी ( जैसे - राजनीतिक दल व दबाव-हित समूह) जिन्होंने राजनीतिक प्रक्रिया में अपनी भागीदारी सुनिश्चित की।
5-  खुले और निष्पक्ष चुनाव का होना संभव हो गया। इसीलिए गैर कम्युनिस्ट संगठन सत्ताधारी हो गए।
6- प्रेस व न्यायपालिका की स्वतंत्रता बहाल हो गई।
7- राज्यों की गृह व विदेश नीतियों में अधिक बदलाव आया।
8- लोगों को विचार एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्राप्त हुई।

  शॉक थेरेपी के नकारात्मक परिणाम

शॉक थेरेपी के नकारात्मक प्रभाव निम्न हैं- 
1-1990 में अपनाई गई शॉक थेरेपी लोगों को उपयोग के उस आनंद लोक तक नहीं ले गई जिसका उनसे वादा किया गया था ।
2- शॉक थेरेपी के कारण साम्यवादी देशों की अर्थव्यवस्था नष्ट हो गई ।
3- रूस में संपूर्ण औद्योगिक ढांचा नष्ट हो गया।
4- लगभग 90% उद्योगों को कंपनियों एवं निजी हाथों में भेज दिया गया इसे इतिहास की सबसे बड़ी गैराज सेल कहा गया।
5- शॉक थेरेपी के कारण रूसी मुद्रा रूबल के मूल्य में नौटकी ढंग से गिरावट आई ।
6-सामूहिक या सहकारी खेती की प्रणाली समाप्त होने से लोगों को दी जाने वाली खाद्य सुरक्षा भी समाप्त हो गई।
7- सरकारी मदद को बंद करने के कारण अधिकांश लोग गरीब हो गए।
 8- माफिया वर्ग ने अधिकांश गतिविधियों को अपने नियंत्रण में ले लिया।
 9- शॉक थेरेपी के कारण धनी एवं निर्धन वर्ग में आर्थिक असमानता बहुत बढ़ गई ।
10- शॉक थेरेपी के कारण इन देशों में राजनीतिक अस्थिरता बढ़ गई और गृह युद्ध जैसी स्थिति विद्यमान हो गई।

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संसद स्वयं को कैसे नियंत्रित करती है?

संसद पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए कुछ पदाधिकारियों की व्यवस्था की गई है। लोकसभा अपने सदस्यों में से एक को अध्यक्ष और एक को उपाध्यक्ष नियुक्त करती है। लोकसभा अध्यक्ष सरकार पक्ष का होता है जबकि उपाध्यक्ष प्रायः विपक्ष का होता है। लोकसभा की बैठकों की अध्यक्षता पहले अध्यक्ष करता है तथा उसकी अनुपस्थिति में उपाध्यक्ष करता है। लोकसभा में शांति व्यवस्था और अनुशासन बनाए रखने की जिम्मेदारी उक्त अधिकारियों को दी गई है और इसके लिए इन्हें कुछ शक्तियां भी दी गईं हैं जैसे लोकसभा अध्यक्ष किसी भी सदस्य को अनुशासन भंग करने के आधार पर सदन से निष्कासित कर सकता है। इसी प्रकार का अधिकार व शक्तियां राज्यसभा में सभापति (उपराष्ट्रपति) और उपसभापति को प्राप्त है।
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क्या राष्ट्रपति को मंत्रिपरिषद की सलाह हर हाल में माननी पड़ती है??

भारत में संसदीय शासन प्रणाली अपनाई गई है। इस शासन प्रणाली में राष्ट्रपति नाम मात्र का या केवल संवैधानिक प्रमुख होता है जबकि वास्तविक शक्तियां प्रधानमंत्री सहित मंत्रिपरिषद में निहित होती है। भारत में भी यही व्यवस्था अपनाई गई है। लेकिन प्रारंभ में संविधान में इसका स्पष्ट उल्लेख नहीं था अतः राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद और प्रधानमंत्री नेहरू जी के बीच राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की शक्तियों को लेकर कुछ खींचातानी जरूर चली थी। लेकिन नेहरू जी अपने करिश्माई व्यक्तित्व के आगे राष्ट्रपति को वास्तविक शक्तियों का स्वामी नहीं बनने दिए। लेकिन नेहरू जी के बाद जब राधाकृष्णन जी राष्ट्रपति बने और इंदिरा जी प्रधानमंत्री तो स्थिति विपरीत हो गई। राधाकृष्णन जी की तुलना में इंदिरा जी कमजोर साबित हो रही थी। अतः इंदिरा जी ने कमजोर राष्ट्रपति चुनने की परम्परा प्रारंभ कर दी और आज तक यही परम्परा चल रही है। इंदिरा जी इतने तक ही शांत नहीं रही उन्होने 42वें संविधान संशोधन कराके स्पष्ट रूप से यह प्रावधान कर दिया कि राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सलाह के अनुसार ही कार्य करेगा। हलाकि बाद में जनता पार्टी सरकार ने राष्ट्रपति की गरिमा का ख्याल रखते हुए उक्त व्यवस्था में थोड़ा संशोधन (44 वां संशोधन) करते हुए यह प्रावधान कर दिया कि राष्ट्रपति एक बार पुनर्विचार करने के लिए मंत्रिपरिषद के पास वापस भेज सकता है लेकिन दुबारा दी गई सलाह के अनुसार ही कार्य करेगा।





न्यायिक सक्रियता

दीपावली के बाद राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में वायु प्रदूषण की समस्या पर सर्वोच्च न्यायालय ने पंजाब सरकार को फटकार लगाते हुए कहा था कि “हम राज्य की हर मशीनरी को इसके लिए ज़िम्मेदार ठहराते हैं। आप इस तरह लोगों को मरने के लिए मजबूर नहीं कर सकते। दिल्ली का दम घुट रहा है, क्योंकि आप इस समस्या से निपटने के उपायों को लागू करने में सक्षम नहीं हैं।"
     

     ध्यातव्य है कि दीपावली के बाद दिल्ली और आस पास के क्षेत्रों में वायु प्रदूषण का स्तर बहुत पढ़ गया था जिसके लिए पंजाब में पराली जलाए जाने की परम्परा को जिम्मेदार माना गया। अतः न्यायालय ने सक्रियता दिखाते हुए ऐसी फटकार लगाई थी। न्यायालय की इस सक्रियता को न्यायिक सक्रियता कहते हैं। आइए जानते हैं कि क्या है न्यायिक सक्रियता? और क्या है इसका महत्व?

सरकार के तीन अंग हैं- विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका। तीनों अंगों के कार्यो को संविधान द्वारा निर्धारित कर दिया गया है। लेकिन जब नागरिकों के हितों के रक्षार्थ न्यायपालिका अपने निर्धारित क्षेत्राधिकार से बाहर जाकर विधायिका या कार्यपालिका के कार्यो में हस्तक्षेप करती है तो इसे न्यायिक सक्रियता कहते हैं। इसका उद्देश्य लोक कल्याण की भावना होती है। 

भारत में न्यायिक सक्रियता का उद्भव 1979 में जनहित याचिका के द्वारा हुआ। इसकी शुरुवात हसैनारा खातून बनाम बिहार सरकार वाद से होती है और इसे विस्तारित करने का कार्य न्यायमूर्ति कृष्णस्वामी अय्यर एवं न्यायमूर्ति पी एन भगवती करते हैं। इस प्रकार 1980 के दशक में भारत की न्यायिक प्रणाली में एक नवीन सकारात्मक परिवर्तन देखने को मिलता है अर्थात अब जिस व्यक्ति के साथ अन्याय हुआ है जरूरी नहीं कि वही न्यायालय की शरण में जाए। उसके स्थान पर कोई अन्य समाजसेवी व्यक्ति या संस्था भी न्यायालय में याचिका दायर कर सकते हैं। यही नहीं कोई व्यक्ति एक पोस्टकार्ड पर अपनी समस्या को लिखकर भी न्यायालय को भेज सकता है या न्यायालय न्यूजपेपर को पढ़कर स्वयं भी एक्शन में आ सकती है। इन याचिकाओं के आधार पर न्यायालय ने जेल कैदियों के अधिकारों की सुरक्षा करने, बाल एवं बंधुआ मजदूरी को रोकने, पर्यावरण व वन्य जीव संरक्षण हेतु आवश्यक कदम उठाने, खाद्य पदार्थों में मिलावट को रोकने, राजनीति में अपराधियों और बाहुबलियों के प्रवेश को रोकने तथा काला धन पर रोक लगाने जैसे मामलों में कार्यपालिका को निर्देशित किया है। 

न्यायिक सक्रियता की आवश्यकता

1- न्यायिक सक्रियता लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना में सहायक है। चूंकि संविधान द्वारा भारत में लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना की गई है और न्यायपालिका को संविधान का संरक्षक बनाया गया है इसलिए न्यायिक सक्रियता को न्यायालय अपना कर्तव्य समझती है।

2- जब विधायिका और कार्यपालिका अपने कर्तव्यों का निर्वाह नहीं करती तो न्यायपालिका को आगे आना पड़ता है।

3- जब जनता का विधायिका और कार्यपालिका पर विश्वास कम हो जाता है तब न्यायपालिका पर विश्वास जताना जनता की मजबूरी हो जाती है और जनता के विश्वास को कायम रखना न्यायपालिका की जिम्मेदारी हो जाती है।

4- चूंकि न्यायपालिका जनता के मौलिक अधिकारों की संरक्षक है अतः जब जनता के अधिकारों का अतिक्रमण होता है तो न्यायपालिका को एक्शन में आना ही पड़ता है।

न्यायिक सक्रियता के पक्ष में तर्क

1- न्यायिक सक्रियता से कार्यपालिका और विधायिका सदैव अपने कार्यो के प्रति सतर्क रहती हैं।
2- न्यायिक सक्रियता से जनहित के कार्यों की अोर सरकार का ध्यान आकृष्ट होता है जिससे इस दिशा में विकास कार्यों को बढ़ावा मिलता है।
3- न्यायिक सक्रियता से लोक कल्याणकारी कार्यों को बढ़ावा मिलता है।
4- न्यायिक सक्रियता से जनता का न्याय और लोकतंत्र पर विश्वास बढ़ता है।
5- जनहित याचिकाओं से सामाजिक न्याय की अवधारणा का विस्तार हुआ है और गरीबो तक न्याय की पहुँच में वृद्धि हुई है।
6- न्यायिक सक्रियता से भ्रस्टाचार पर अंकुश लगाने में सहायता मिली है।

विपक्ष में तर्क

1-जब न्यायपालिका कार्यपालिका के कार्यों में हस्तक्षेप करती है तो कभी कभी कार्यपालिका और न्यायपालिका में टकराव उत्पन्न हो जाता है।
2- कभी कभी न्यायपालिका ऐसे निर्णय देती है जिसे शीघ्रता से अमल में लाना संभव नहीं होता अतः न्यायालय की अवमानना की स्थिति उत्पन्न हो जाती है जो न्यायपालिका की गरिमा को कम करता है।
3- कार्य के विशेषज्ञता के अभाव में न्यायपालिका द्वारा कभी कभी अव्यवहारिक निर्णय हो जाते हैं।
4- कभी कभी जनहित याचिका सस्ती लोकप्रियता का कारण बन जाती है और न्यायालय भी सस्ती लोकप्रियता के चक्कर में कुछ ज्यादा ही सक्रियता दिखा सकती है।
5- न्यायिक सक्रियता भारतीय लोकतंत्र की मूल भावना शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत के विरुद्ध है।

समीक्षा

न्यायिक सक्रियता लोककल्याणकारी राज्य की स्थापना तथा नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा में सहायक सिद्ध हुयी है लेकिन न्यायालय को अपनी सीमा का ध्यान रखते हुए ही सक्रियता दिखानी चाहिए अन्यथा अनावश्यक टकराव की स्थिति उत्पन्न होगी जो की लोकतान्त्रिक व्यवस्था के लिए हानिकारक होगा।

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पाकिस्तान में लोकतंत्र के उतार-चढ़ाव का वर्णन कीजिये।


अगस्त 1947 में भारत की आजादी के साथ भारत का विभाजन भी हो गया और भारत से अलग पाकिस्तान नाम के नए राष्ट्र का निर्माण हुआ।उस समय पाकिस्तान के दो भाग थे,प्रथम पूर्वी पाकिस्तान जिसे आज बांग्लादेश देश कहा जाता है और दूसरा पश्चिमी पाकिस्तान जिसे वर्तमान में पाकिस्तान कहते हैं। चूँकि पाकिस्तान का जन्म 'दो राष्ट्रों के सिद्धांत' पर हुआ था, इसीलिए इसे इस्लामिक गणतंत्र का रूप दिया गया। 1956 में इसका संविधान लागू हुआ, जिसके तहत भारत की ही भांति पाकिस्तान में भी संसदीय शासन प्रणाली स्थापित की गयी। वास्तविक सत्ता प्रधानमंत्री सहित मंत्री परिषद को दी गई जो राष्ट्रीय व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदाई थी। राष्ट्रपति को नाम मात्र का अध्यक्ष बनाया गया। लेकिन यह प्रणाली ज्यादा समय तक नही चल सकी।सन 1958 में फील्ड मार्शल अय्यूब खां के नेतृत्व में यहां सैनिक शासन स्थापित हो गया। जिसने लोगों की मौलिक स्वतंत्रता को कुचल दिया।वास्तव में यह सैनिक तानाशाही थी जिसने लोकतंत्र का गला घोंट दिया था।


 भारत पाकिस्तान युद्ध 1965 में भारत के हाथों पराजय का मुंह देखने से अय्यूब खां का नेतृत्व समाप्त हो गया। जनरल याहिया खां नए  राष्ट्रपति बने। सन 1970 में आम चुनाव कराए गए। चुनाव के परिणामों के अनुसार पूर्वी पाकिस्तान की अवामी मुस्लिम लीग के नेता शेख मुजीबुर्रहमान को प्रधानमंत्री बनाया जाना चाहिए था लेकिन राष्ट्रपति ने इस चुनाव को अमान्य कर दिया।सैनिक शासन ने पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के अध्यक्ष जुल्फिकार अली भुट्टो को प्रधानमंत्री बनाया। बांग्लाबंधु शेख मुजीबुर्रहमान ने 26 मार्च 1971 को पूर्वी पाकिस्तान को स्वतंत्र बांग्लादेश में बदलने की घोषणा कर दी।लेकिन पाकिस्तान की सेना ने शेख को गिरफ्तार कर लिया तथा बड़ी संख्या में उनके समर्थकों की हत्या कर दी गई। जिससे घबराकर लोगों ने भारत के राज्यों पश्चिमी बंगाल, त्रिपुरा व असम में शरण लिए। अतः भारत पर शरणार्थियों के बढ़ते दबाव के कारण भारत को हस्तक्षेप करना पड़ा।दिसंबर 1971में बांग्लादेश के स्वतंत्रता के मुद्दे पर भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध हुआ।युद्ध में पाकिस्तान की पराजय हुई और भारत के सहयोग से पुर्वी पाकिस्तान स्वतंत्र राष्ट्र बांग्लादेश बन गया।


 इस युद्ध में पराजित होने के कारण राष्ट्रपति याहिया खां ने पद से त्यागपत्र दे दिया। अब जुल्फिकार अली भुट्टो ने राष्ट्रपति का पद संभाला। 1972 में नया संविधान आया जिसमें फिर से संसदीय शासन प्रणाली स्थापित की गयी।भुट्टो प्रधानमंत्री बने तथा इलाही को राष्ट्रपति बनाया गया। लेकिन यह व्यवस्था भी ज्यादा दिन नही चल सकी।1977 में भुट्टो पर चुनाव में धांधली का आरोप लगा।अतः सेनाध्यक्ष जिया-उल-हक ने सत्ता छीन ली। भुट्टो को गिरफ्तार कर लिया गया। कुछ समय बाद उन्हें मृत्युदंड दिया गया। एक बार फिर सैनिक अधिनायकवाद स्थापित हुआ जो 1987 में जिया उल हक की हत्या तक चलता रहा।


सैनिक शासन को हटाने के उद्देश्य से पाकिस्तान में लोकतंत्र बहाली आंदोलन चल पड़ा। संविधान में संशोधन हुए जिससे संसदीय शासन प्रणाली को पुनः बहाल किया गया। चुनाव में पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी को सफलता मिली, इसलिए जुल्फिकार अली भुट्टो की विधवा बेगम बेनजीर भुट्टो को प्रधानमंत्री बनने का अवसर मिला। उनके बाद नवाज शरीफ ने प्रधानमंत्री का कार्यभार संभाला। जुलाई 1999 में कारगिल युद्ध में भारत से पराजय ने नवाज शरीफ को अलोकप्रिय बना दिया। तब सेना अध्यक्ष परवेज मुशर्रफ ने सत्ता हथिया ली। शरीफ देश छोड़कर चले गए। कुछ समय बाद लोक निर्णय का आडंबर रचा कर मुशर्रफ राष्ट्रपति बन गए। एक बार फिर लोकतंत्र का गला घोट दिया गया। अपनी व्यवस्था को लोकतांत्रिक जामा पहनाने के उद्देश्य से मुशर्रफ ने 2003 में चुनाव कराए। शौकत अजीज प्रधानमंत्री बने। 2008 के चुनाव के बाद राष्ट्रपति मुशर्रफ को त्यागपत्र देना पड़ा।  लोकप्रिय शासन को स्थापित किया गया। सितंबर 2008 में दिवंगत बेनजीर भुट्टो के पति आसिफ अली जरदारी पाकिस्तान के राष्ट्रपति बने । इन्होंने अपना 5 वर्ष का कार्यकाल पूर्ण किया। तदुपरांत 9 सितंबर 2013 को ममनून हुसैन पाकिस्तान के राष्ट्रपति बने तथा प्रधानमंत्री का पद पुनः नवाज शरीफ ने सम्हाला।किन्तु कार्यकाल समाप्त होने से पूर्व ही नवाज शरीफ को पनामा केस में अयोग्य करार दिया गया, जिसके कारण उन्होंने जुलाई 2017 को त्याग पत्र दे दिया। अगस्त 2017 को शाहिद अब्बासी ने पद संभाला।


 सन 2018 के आम चुनाव के बाद 'पाकिस्तान तहरीक-ए-हिंद' पार्टी के इमरान खान प्रधानमंत्री बने।लेकिन इमरान खान के खिलाफ भी मौलाना फजलुर्रहमान के नेतृत्व में लगातार विरोध प्रदर्शन हो रहा है।मौलाना का आरोप है कि फर्जी चुनाव के चलते ही इमारत खान की सरकार बनी है।इन्हें सत्ता में बने रहने का कोई हक नही है।


    ऐसी घटनाएं दर्शाती है कि पाकिस्तान में लोकतंत्र का उतार-चढ़ाव चलता रहा है। जिसे वहां पर 'राजनीतिक विकास व राजनीतिक पतन' की संज्ञा दी जा सकती है। संविधान बनता है, बदलता है, समाप्त हो जाता है, नया संविधान आता है, वह भी बदलता है।इस प्रकार का शिलशिला चलता रहता है। पाकिस्तान के राजनेतागण संविधानवाद का अर्थ नहीं जानते। धर्मसापेक्ष राष्ट्र होने के नाते उलेमा सरकार पर दबाव बनाते रहते हैं कि प्रत्येक कार्य इस्लाम के तथाकथित सिद्धांतों के अनुरूप होना चाहिए। वे अपनी व्याख्याओं के अनुसार राजकीय कार्यों का मूल्यांकन करते हैं। जनमत बहुत दुर्बल है क्योंकि प्रेस व जनसंचार के साधनों एवं न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर कठोर अंकुश लगे हैं। सरकार और सेना की ओर से आतंकवादी तत्वों को समर्थन मिल रहा है जिससे पड़ोसी राष्ट्रों जैसे- अफगानिस्तान और भारत की सुरक्षा को गंभीर खतरा बना हुआ है।



भारत की भांति पाकिस्तान में लोकतंत्र की जड़ें मजबूत क्यों नहीं हो सकी जबकि दोनों ही देशों का इतिहास एक जैसा है?


  पाकिस्तान में भारत की तरफ लोकतंत्र की जड़ें मजबूत नहीं हो सकी यद्यपि 1947 में पाकिस्तान के निर्माण के समय लोकतांत्रिक पद्धति में विश्वास जताया गया था परंतु शीघ्र ही इस प्रक्रिया में बाधा तब पहुंची जब 1958 में अय्यूब खां ने पाकिस्तान में सैनिक तानाशाही लागू कर दी। तब से लेकर वर्तमान समय तक पाकिस्तान में कभी लोकतंत्र सफलतापूर्वक कायम नहीं रह पाया। अयूब खान के बाद याहिया खान तथा फिर जिया-उल-हक ने पाकिस्तान में सैनिक तानाशाही को बनाए रखा। पाकिस्तान में लोकतंत्र को कुछ हद तक सफलता 1990 के दशक में मिलती है जब पहले बेनजीर भुट्टो इसके बाद नवाज शरीफ ने लोकतांत्रिक ढंग से चुनाव जीतकर अपनी सरकार बनाई। इन दोनों सरकारों के बनने से यह आशा बनने लगी थी कि पाकिस्तान अब लोकतंत्र के मार्ग पर बिना किसी बाधा के चलता रहेगा परंतु यह आशा ज्यादा समय तक कायम नहीं रह सकी क्योंकि अक्टूबर 1999 में पाकिस्तानी सेना के जनरल परवेज मुशर्रफ ने नवाज शरीफ सरकार को हटाकर सत्ता अपने हाथों में ले ली। 2007 में बेनजीर भुट्टो की एक चुनाव रैली में हत्या कर दी गई। इससे पाकिस्तान में लोकतंत्र की बहाली को एक जोरदार झटका लगा। हलाकि 2008 से लेकर आज तक पाकिस्तान में लोकतंत्र को स्थापित करने का प्रयास चल रहा है लेकिन इसकी सफलता पर अभी भी संदेह है। पाकिस्तानी राजनीतिक दलों एवं नेताओं पर यह दायित्व है कि वे अपने यहां लोकतांत्रिक जड़ों को और मजबूत करें। 


पाकिस्तान में लोकतंत्र की असफलता के लिए उत्तरदाई कारक 


पाकिस्तान में लोकतंत्र की असफलता के लिए निम्नलिखित कारण जम्मेदार हैं-


1- सेना का राजनीतिक हस्तक्षेप - पाकिस्तान में लोकतंत्र के मार्ग में सेना ने सदैव बाधा उत्पन्न की है।लेकिन इसके बावजूद भी लोग सैनिक शासन को पसंद करते हैं।उनको लगता है कि इससे देश की सुरक्षा खतरे में नही पड़ेगी।


2- धर्म सापेक्षवाद - लोकतंत्र धर्मनिरपेक्ष देशों में ही चल सकता है।धर्म सापेक्ष देशो में उदारवादी प्रवित्तियां नही उभर सकती। पाकिस्तान में धार्मिक कट्टरता ने लोकतंत्र को सफलतापूर्वक संचालित नही होने दिया।


3- पश्चिमी देशों के समर्थन का अभाव- पश्चिमी देशों ने अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए पाकिस्तान में लोकतंत्र को सफल नहीं होने दिया।आश्चर्य की बात है कि अमेरिका जैसा लोकतांत्रिक देश भी अपने निजी स्वार्थों के कारण सैनिक शासकों का समर्थन किया।


4-धर्मगुरु और भूस्वामी- पाकिस्तानी समाज के अभिजात वर्ग हैं लेकिन सैनिक शासन को अपने लिए अधिक सुविधाजनक मानते हैं।


5- दरिद्रता व अज्ञानता - जनसाधारण गरीबी व अज्ञानता से पीड़ित हैं जो लोगतंत्र के महत्व को नही समझते।


6-आतंकवाद- राजनेताओं की तुलना में आतंकवादियों की लोकप्रियता अधिक होने के कारण सरकार को आम जनता का पर्याप्त सहयोग नहीं मिल पा रहा है जिसके कारण लोकतंत्र की जड़े मजबूत नही हो पा रही।


अर्थात सेना, कट्टरपंथी, आतंकवादी, भूस्वामी,और धर्मगुरु सभी कमजोर शासन ही देखना चाहते हैं जिससे कि उनकी मनमर्जी चल सके और आम जनता इससे अनभिज्ञ है।


पाकिस्तान में लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत करने हेतु सुझाव


1- पाकिस्तान में सेना की भूमिका को कम करना होगा, विशेषकर इसके राजनीतिक हतक्षेप पर नियंत्रण लगाना होगा।


2- पाकिस्तान में लोकतंत्र को सफल बनाने के लिए वहां बढ़ने वाले धार्मिक उन्माद पर नियंत्रण लगाना होगा।


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भारत-पाकिस्तान संबंध


सन् 1947 के पूर्व पाकिस्तान भारत का ही हिस्सा था पर देश की आजादी के साथ भारत का विभाजन भी हो गया तथा विभाजन के कारण उत्पन्न समस्याओं से ही दोनों देशों में शत्रुता भी प्रारम्भ हो गया।अब तक दोनों देशों के मध्य छोटे-बड़े कुल चार युद्ध हो चुके हैं लेकिन लेकिन सभी समस्याएं पूर्वत बनी हुयी हैं।

शत्रुता का उदभव व विकास

15 अगस्त 1947 तक सभी देशी रियासतें भारत या पाकिस्तान में विलय हो चुकी थी लेकिन तीन रियासतें अभी भी स्वतन्त्र थी।इन रियासतों के विलय में सबसे बड़ा अड़पेच कश्मीर को लेकर था क्योंकि कश्मीर के डोगरा राजा हरि सिंह न तो इसे पाकिस्तान में विलय करना चाहते थे और न ही भारत में विलय।भारत इस मामले में चुप था लेकिन पाकिस्तान कश्मीर को हर हाल में पाना चाहता था इसलिए पहले तो उसने कश्मीर पर आर्थिक प्रतिबन्ध लगा दिया क्योंकि उस समय कश्मीर का ज्यादातर व्यापार पाकिस्तान से ही होता था जो की भौगोलिक रूप से सुविधाजनक था लेकिन इस प्रतिबन्ध का राजा हरिसिंह पर कोई प्रभाव नहीं पड़ते देख पाकिस्तान ने कश्मीर पर कबायली (किराये के आदिवासी सैनिक) आक्रमण करा दिया।कबायलियों ने कश्मीर में कत्लेआम शुरू कर दिए ।कश्मीर की सुरक्षा के लिए राजा हरिसिंह ने भारत से सहायता मांगी।भारतीय नेता नेहरू और पटेल सहायता देने के पक्ष में थे लेकिन गवर्नर जनरल माउन्टबेटन अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों का हवाला देकर यह कहा की जब तक कश्मीर का भारत में विलय नहीं हो जाता तब तक हम कश्मीर की सहायता नहीं कर सकते अतः मजबूर होकर कश्मीर के प्रधानमंत्री मेहरचंद महाजन ने इंस्ट्रूमेंट ऑफ अक्सेशन(विलय पत्र)पर हस्ताक्षर कर दिए।अतः शीघ्र ही भारतीय सेना हवाई मार्ग से कश्मीर भेजी गयी।भारतीय सेना को कश्मीर से कबायलियों को पीछे भगाने में सफलता मिल रही थी । कुछ और दिनों में भारतीय सेना कश्मीर को पाकिस्तान के कब्जे से पूर्णतया मुक्त करा पाती लेकिन इसी समय नेहरू जी मामले को यू एन ओ में ले गए । यू एन ओ मामले में हस्तक्षेप करके युद्ध विराम समझौता करा दिया।उस समय जितना भूभाग पाकिस्तान के कब्जे में था आजतक पाकिस्तान के कब्जे में बना हुआ है जिसे पाकिस्तान आजाद कश्मीर कहता है तथा भारत पाक अधिकृत कश्मीर।
हलाकि इस मामले को सुलझाने के लिए UNO ने एक आयोग का गठन किया था जिसकी रिपोर्ट में यह प्रस्ताव था की पाकिस्तान कश्मीर से अपनी सेना को वापस ले तो वहाँ जनमत संग्रह कराया जायेगा लेकिन पाकिस्तान ने पाक अधिकृत कश्मीर से सेना वापस लेने से इनकार कर दिया क्योंकि उसको इस बात का भय था की शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में बहुसंख्यक मुस्लिम भारत के पक्ष में मत व्यक्त करेंगे जिससे उसकी पराजय निश्चित थी।
अतः पाकिस्तान की हठधर्मिता के कारण कश्मीर समस्या आज तक बनी हुयी है जो भारत-पाक संबंधों में खटास का प्रमुख कारण है।

कश्मीर के सम्बन्ध में पाकिस्तान के तर्क

1- चूँकि भारत का विभाजन द्वि-राष्ट्र सिद्धांत के आधार पर हुआ था अतः मुस्लिम बहुल कश्मीर पर पाकिस्तान का हक़ है।इसी आधार पर भारत ने जूनागढ़ व हैदराबाद का बल पूर्वक विलय किया था।


2- भौगोलिक रूप से कश्मीर पाकिस्तान के ज्यादा करीब है।स्वतंत्रता से पूर्व कश्मीर का ज्यादातर व्यापार पाकिस्तान वाले क्षेत्र से ही होता था।


3- बिना जनमत संग्रह के कश्मीर का भारत में विलय अवैध है।


4- कश्मीरी जनता आज भी भारत से आजाद होना चाहती है।वह भारतीय झंडे के नीचे नहीं रहना चाहती है।

भारत के तर्क

1- कश्मीर का भारत में विलय पूर्णतया वैधानिक है ।भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 में यह प्रावधान था कि किस रियासत को किसके साथ सामिल होना है यह रियासत के शासक को निर्णय लेना था और जब राजा हरीसिंह ने कश्मीर का भारत में विलय कर दिया है तो अब पाकिस्तान का कोई भी तर्क बेबुनियाद है।


2-द्वि-राष्ट्र का सिद्धांत पाकिस्तान की अपनी बुद्धि की उपज है जिसे शासक मानने के लिए बाध्य नहीं होते।


3- जनमत संग्रह की पूर्व शर्त थी की पाकिस्तान कश्मीर से अपनी सेना वापस ले।जब उसने पहली शर्त मानने से इंकार कर दिया तो अब जनमत संग्रह का राग अलापने का कोई औचित्य नहीं है।


4- जम्मू कश्मीर की निर्वाचित संविधान सभा ने विधिवत प्रस्ताव पारित करके कश्मीर के भारत में विलय को स्वीकार कर लिया है तथा कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग घोषित किया है।

कश्मीर समस्या के सन्दर्भ में भारत द्वारा की गयी गलतियाँ

1- नेहरू द्वारा जनमत संग्रह की बात स्वीकार करना एक बड़ी भूल थी क्योंकि न तो राजा हरिसिंह ऐसी कोई शर्त रखी थी और न ही जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन लोकप्रिय नेता शेख अब्दुल्ला ने ही ऐसी कोई माँग की थी।


2- मामले को UNO में भारत को नहीं ले जाना चाहिए था क्योंकि भारतीय सेना उस समय आगे बढ़ रही थी तथा पाक सेना बैक फुट पर थी।कुछ दिनों में पुरे कश्मीर में मेरा कब्ज़ा हो जाता।


3- भारत ने इस मामले को UN सुरक्षा परिषद में  चार्टर के गलत अनुच्छेद के तहत उठाया।मामले को चार्टर के अध्याय 7 के अनु. 39 के तहत उठाना चाहिए था जो शांति के उल्लंघन और आक्रमण की कारवाही से सम्बंधित है।यदि ऐसा होता तो पाकिस्तान को आक्रमणकारी घोषित किया जाता परन्तु भारत ने मामले को अध्याय 6 के अनु.35 के तहत उठाया जो विवादों के शांति पूर्ण निपटारे से सम्बंधित है।ऐसा करके भारत स्वयं विश्व को यह सन्देश दिया की मामला विवादित है।


4- भारत को युद्ध विराम समझौता तभी करना चाहिए था जब पुरे कश्मीर पर भारतीय सेना का कब्जा हो जाता क्योंकि उस समय भारतीय सेना जीत के करीब थी।

भारत और पाकिस्तान के मध्य विवाद के महत्वपूर्ण बिंदु


1- पाक समर्थित आतंकवाद- भारत-पाक युद्ध 1965 तथा 1971 द्वारा यह साबित हो गया की आमने-सामने के युद्ध में भारत को पराजित नहीं किया जा सकता तो पाकिस्तान ने छदम् युद्ध(proxy war) का सहारा लिया, जिसका एक रूप आतंकवाद है।दोनों देशों के रिश्ते सामान्य नहीं हो पा रहे हैं इसका मुख्य कारण अतंकवाद है।अभी हाल ही में जब वार्ता का दौर प्रारम्भ हो ही रहा था की पठानकोट आतंकी हमला हो गया जिससे वार्ता को कुछ दिन के लिए टाल दिया गया है।

2- नदी जल विवाद- पाकिस्तान में प्रवाहित नदियां सिंधु झेलम चनाव रावी सतलज व्यास उदगम् के बाद पहले भारत में प्रवाहित होती हैं फिर पाकिस्तान में अतः पानी के बटवारे को लेकर विवाद प्रारम्भ से ही था लेकिन विश्व बैंक की मध्यस्थता से1960 में सिंधु और उसकी सहायक नदियों के जल बटवारे से सम्बंधित समझौता हुआ।जिसके तहत सिंधु झेलम चेनाव के जल का आधे से अधिक भाग पर पाकिस्तान का घोषित किया गया जबकि रावी सतलज व्यास पर इसीप्रकार भारत के अधिकार को स्वीकार किया गया।लेकिन भारत जब भी सिंधु झेलम चेनाव पर कोई परियोजना स्थापित करने लगता है तो पाकिस्तान हाय तोबा मचाता है।ऐसी ही परियोजनाओं में किशनगंगा परियोजना,बगलिहार परियोजना,तुलबुल परियोजना तथा बुंजी परियोजना हैं।


3- सियाचिन विवाद- सियाचिन उत्तरी कश्मीर में स्थित ग्लेशियर है जिसे कश्मीर अपना बतलाता है तथा बीच-बीच में अपने पर्वतारोही और सैनिक भेजता रहता है जिससे बीच-बीच में झड़पें होती रहती हैं इससे निपटने के लिए भारतीय सेना यहाँ ऑपरेशन मेघदूत चला रही है।यह विश्व का सबसे ऊँचा युद्ध स्थल माना जाता है।

4- सर क्रिक विवाद- भारत के पश्चिमी गुजरात और पाकिस्तान के सिंध प्रान्त का तटवर्ती दलदली उथला समुद्री क्षेत्र के बटवारे को लेकर विवाद है।चूँकि इस क्षेत्र का बटवारा सर क्रिक नामक अंग्रेज अधिकारी के नेतृत्व में हुआ था इस लिए इसे सर क्रिक विवाद कहा जाता है।चूँकि इस क्षेत्र में प्राकृतिक गैस और पेट्रोलियम के भण्डार होने की संभावना है इस लिए दोनों ही देश इस पर अपना दावा प्रस्तुत करते रहते हैं।सन् 1965 में इस मुद्दे को लेकर युद्ध भी हो चूका है लेकिन आजतक कोई समाधान नहीं निकाला जा सका है।

5- पाकिस्तान-चीन की नजदीकियां- पाकिस्तान पाक अधिकृत कश्मीर का लगभग 5000 वर्ग कि मी भाग चीन को दे रखा है जिसे अक्साई चिन कहा जाता है।यह क्षेत्र सामरिक महत्त्व का है जो भारत के सुरक्षा हितों के प्रतिकूल है।चीन इस क्षेत्र से कराकोरम राजमार्ग बना लिया है जिसके माध्यम से पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह को जोड़ने वाला गलियारा बना कर अरब सागर में अपनी उपस्थिति दर्ज करना चाहता है जोकि भारत के सामरिक हितों के प्रतिकूल है।

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भारत पाकिस्तान संबंध


सन् 1947 के पूर्व पाकिस्तान भारत का ही हिस्सा था पर देश की आजादी के साथ भारत का विभाजन भी हो गया तथा विभाजन के कारण उत्पन्न समस्याओं से ही दोनों देशों में शत्रुता भी प्रारम्भ हो गया।अब तक दोनों देशों के मध्य छोटे-बड़े कुल चार युद्ध हो चुके हैं लेकिन लेकिन सभी समस्याएं पूर्वत बनी हुयी हैं।

शत्रुता का उदभव व विकास

15 अगस्त 1947 तक सभी देशी रियासतें भारत या पाकिस्तान में विलय हो चुकी थी लेकिन तीन रियासतें अभी भी स्वतन्त्र थी।इन रियासतों के विलय में सबसे बड़ा अड़पेच कश्मीर को लेकर था क्योंकि कश्मीर के डोगरा राजा हरि सिंह न तो इसे पाकिस्तान में विलय करना चाहते थे और न ही भारत में विलय।भारत इस मामले में चुप था लेकिन पाकिस्तान कश्मीर को हर हाल में पाना चाहता था इसलिए पहले तो उसने कश्मीर पर आर्थिक प्रतिबन्ध लगा दिया क्योंकि उस समय कश्मीर का ज्यादातर व्यापार पाकिस्तान से ही होता था जो की भौगोलिक रूप से सुविधाजनक था लेकिन इस प्रतिबन्ध का राजा हरिसिंह पर कोई प्रभाव नहीं पड़ते देख पाकिस्तान ने कश्मीर पर कबायली (किराये के आदिवासी सैनिक) आक्रमण करा दिया।कबायलियों ने कश्मीर में कत्लेआम शुरू कर दिए ।कश्मीर की सुरक्षा के लिए राजा हरिसिंह ने भारत से सहायता मांगी।भारतीय नेता नेहरू और पटेल सहायता देने के पक्ष में थे लेकिन गवर्नर जनरल माउन्टबेटन अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों का हवाला देकर यह कहा की जब तक कश्मीर का भारत में विलय नहीं हो जाता तब तक हम कश्मीर की सहायता नहीं कर सकते अतः मजबूर होकर कश्मीर के प्रधानमंत्री मेहरचंद महाजन ने इंस्ट्रूमेंट ऑफ अक्सेशन(विलय पत्र)पर हस्ताक्षर कर दिए।अतः शीघ्र ही भारतीय सेना हवाई मार्ग से कश्मीर भेजी गयी।भारतीय सेना को कश्मीर से कबायलियों को पीछे भगाने में सफलता मिल रही थी । कुछ और दिनों में भारतीय सेना कश्मीर को पाकिस्तान के कब्जे से पूर्णतया मुक्त करा पाती लेकिन इसी समय नेहरू जी मामले को यू एन ओ में ले गए । यू एन ओ मामले में हस्तक्षेप करके युद्ध विराम समझौता करा दिया।उस समय जितना भूभाग पाकिस्तान के कब्जे में था आजतक पाकिस्तान के कब्जे में बना हुआ है जिसे पाकिस्तान आजाद कश्मीर कहता है तथा भारत पाक अधिकृत कश्मीर।
हलाकि इस मामले को सुलझाने के लिए UNO ने एक आयोग का गठन किया था जिसकी रिपोर्ट में यह प्रस्ताव था की पाकिस्तान कश्मीर से अपनी सेना को वापस ले तो वहाँ जनमत संग्रह कराया जायेगा लेकिन पाकिस्तान ने पाक अधिकृत कश्मीर से सेना वापस लेने से इनकार कर दिया क्योंकि उसको इस बात का भय था की शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में बहुसंख्यक मुस्लिम भारत के पक्ष में मत व्यक्त करेंगे जिससे उसकी पराजय निश्चित थी।
अतः पाकिस्तान की हठधर्मिता के कारण कश्मीर समस्या आज तक बनी हुयी है जो भारत-पाक संबंधों में खटास का प्रमुख कारण है।

कश्मीर के सम्बन्ध में पाकिस्तान के तर्क

1- चूँकि भारत का विभाजन द्वि-राष्ट्र सिद्धांत के आधार पर हुआ था अतः मुस्लिम बहुल कश्मीर पर पाकिस्तान का हक़ है।इसी आधार पर भारत ने जूनागढ़ व हैदराबाद का बल पूर्वक विलय किया था।


2- भौगोलिक रूप से कश्मीर पाकिस्तान के ज्यादा करीब है।स्वतंत्रता से पूर्व कश्मीर का ज्यादातर व्यापार पाकिस्तान वाले क्षेत्र से ही होता था।


3- बिना जनमत संग्रह के कश्मीर का भारत में विलय अवैध है।


4- कश्मीरी जनता आज भी भारत से आजाद होना चाहती है।वह भारतीय झंडे के नीचे नहीं रहना चाहती है।

भारत के तर्क

1- कश्मीर का भारत में विलय पूर्णतया वैधानिक है ।भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 में यह प्रावधान था कि किस रियासत को किसके साथ सामिल होना है यह रियासत के शासक को निर्णय लेना था और जब राजा हरीसिंह ने कश्मीर का भारत में विलय कर दिया है तो अब पाकिस्तान का कोई भी तर्क बेबुनियाद है।


2-द्वि-राष्ट्र का सिद्धांत पाकिस्तान की अपनी बुद्धि की उपज है जिसे शासक मानने के लिए बाध्य नहीं होते।


3- जनमत संग्रह की पूर्व शर्त थी की पाकिस्तान कश्मीर से अपनी सेना वापस ले।जब उसने पहली शर्त मानने से इंकार कर दिया तो अब जनमत संग्रह का राग अलापने का कोई औचित्य नहीं है।


4- जम्मू कश्मीर की निर्वाचित संविधान सभा ने विधिवत प्रस्ताव पारित करके कश्मीर के भारत में विलय को स्वीकार कर लिया है तथा कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग घोषित किया है।

कश्मीर समस्या के सन्दर्भ में भारत द्वारा की गयी गलतियाँ

1- नेहरू द्वारा जनमत संग्रह की बात स्वीकार करना एक बड़ी भूल थी क्योंकि न तो राजा हरिसिंह ऐसी कोई शर्त रखी थी और न ही जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन लोकप्रिय नेता शेख अब्दुल्ला ने ही ऐसी कोई माँग की थी।


2- मामले को UNO में भारत को नहीं ले जाना चाहिए था क्योंकि भारतीय सेना उस समय आगे बढ़ रही थी तथा पाक सेना बैक फुट पर थी।कुछ दिनों में पुरे कश्मीर में मेरा कब्ज़ा हो जाता।


3- भारत ने इस मामले को UN सुरक्षा परिषद में  चार्टर के गलत अनुच्छेद के तहत उठाया।मामले को चार्टर के अध्याय 7 के अनु. 39 के तहत उठाना चाहिए था जो शांति के उल्लंघन और आक्रमण की कारवाही से सम्बंधित है।यदि ऐसा होता तो पाकिस्तान को आक्रमणकारी घोषित किया जाता परन्तु भारत ने मामले को अध्याय 6 के अनु.35 के तहत उठाया जो विवादों के शांति पूर्ण निपटारे से सम्बंधित है।ऐसा करके भारत स्वयं विश्व को यह सन्देश दिया की मामला विवादित है।


4- भारत को युद्ध विराम समझौता तभी करना चाहिए था जब पुरे कश्मीर पर भारतीय सेना का कब्जा हो जाता क्योंकि उस समय भारतीय सेना जीत के करीब थी।

भारत और पाकिस्तान के मध्य विवाद के महत्वपूर्ण बिंदु


1- पाक समर्थित आतंकवाद- भारत-पाक युद्ध 1965 तथा 1971 द्वारा यह साबित हो गया की आमने-सामने के युद्ध में भारत को पराजित नहीं किया जा सकता तो पाकिस्तान ने छदम् युद्ध(proxy war) का सहारा लिया, जिसका एक रूप आतंकवाद है।दोनों देशों के रिश्ते सामान्य नहीं हो पा रहे हैं इसका मुख्य कारण अतंकवाद है।अभी हाल ही में जब वार्ता का दौर प्रारम्भ हो ही रहा था की पठानकोट आतंकी हमला हो गया जिससे वार्ता को कुछ दिन के लिए टाल दिया गया है।

2- नदी जल विवाद- पाकिस्तान में प्रवाहित नदियां सिंधु झेलम चनाव रावी सतलज व्यास उदगम् के बाद पहले भारत में प्रवाहित होती हैं फिर पाकिस्तान में अतः पानी के बटवारे को लेकर विवाद प्रारम्भ से ही था लेकिन विश्व बैंक की मध्यस्थता से1960 में सिंधु और उसकी सहायक नदियों के जल बटवारे से सम्बंधित समझौता हुआ।जिसके तहत सिंधु झेलम चेनाव के जल का आधे से अधिक भाग पर पाकिस्तान का घोषित किया गया जबकि रावी सतलज व्यास पर इसीप्रकार भारत के अधिकार को स्वीकार किया गया।लेकिन भारत जब भी सिंधु झेलम चेनाव पर कोई परियोजना स्थापित करने लगता है तो पाकिस्तान हाय तोबा मचाता है।ऐसी ही परियोजनाओं में किशनगंगा परियोजना,बगलिहार परियोजना,तुलबुल परियोजना तथा बुंजी परियोजना हैं।

3- सियाचिन विवाद- सियाचिन उत्तरी कश्मीर में स्थित ग्लेशियर है जिसे कश्मीर अपना बतलाता है तथा बीच-बीच में अपने पर्वतारोही और सैनिक भेजता रहता है जिससे बीच-बीच में झड़पें होती रहती हैं इससे निपटने के लिए भारतीय सेना यहाँ ऑपरेशन मेघदूत चला रही है।यह विश्व का सबसे ऊँचा युद्ध स्थल माना जाता है।

4- सर क्रिक विवाद- भारत के पश्चिमी गुजरात और पाकिस्तान के सिंध प्रान्त का तटवर्ती दलदली उथला समुद्री क्षेत्र के बटवारे को लेकर विवाद है।चूँकि इस क्षेत्र का बटवारा सर क्रिक नामक अंग्रेज अधिकारी के नेतृत्व में हुआ था इस लिए इसे सर क्रिक विवाद कहा जाता है।चूँकि इस क्षेत्र में प्राकृतिक गैस और पेट्रोलियम के भण्डार होने की संभावना है इस लिए दोनों ही देश इस पर अपना दावा प्रस्तुत करते रहते हैं।सन् 1965 में इस मुद्दे को लेकर युद्ध भी हो चूका है लेकिन आजतक कोई समाधान नहीं निकाला जा सका है।

5- पाकिस्तान-चीन की नजदीकियां- पाकिस्तान पाक अधिकृत कश्मीर का लगभग 5000 वर्ग कि मी भाग चीन को दे रखा है जिसे अक्साई चिन कहा जाता है।यह क्षेत्र सामरिक महत्त्व का है जो भारत के सुरक्षा हितों के प्रतिकूल है।चीन इस क्षेत्र से कराकोरम राजमार्ग बना लिया है जिसके माध्यम से पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह को जोड़ने वाला गलियारा बना कर अरब सागर में अपनी उपस्थिति दर्ज करना चाहता है जोकि भारत के सामरिक हितों के प्रतिकूल है।

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हमारा संंविधान : गीता कुरान बाइबल जितना पवित्र 

26 नवंबर 1949 को हमारे देश का आइन अर्थात हमारा संविधान अंगीकृत किया गया था। इस दिन को संविधान दिवस के रूप में याद किया जाता है। पहले इस दिन को संविधान दिवस के रूप में याद नहीं किया जाता था। 26 नवम्बर को संविधान दिवस के रूप में मनाए जाने की परम्परा वर्तमान प्रधानमंत्री मोदीजी ने 2015 से शुरू की है। प्रधानमंत्री मोदी जी का मानना है कि 26 नवम्बर का महत्व 26 जनवरी से कहीं ज्यादा है क्योंकि 26 जनवरी को मनाए जाने का अवसर 26 नवम्बर ने उपलब्ध कराया है लेकिन अब तक इस दिवस को महत्वहीन समझ कर अनदेखा किया गया है। 

कुछ लोग सवाल करते हैं कि जब भारत का संविधान 26 नवम्बर 1949 को बन कर तैयार हो गया था, तो उसे लागू करने में दो महीने की देरी क्यों की गई? तो इसका जवाब है कि 26 जनवरी का ऐतिहासिक महत्व है। सन् 1929 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को युवा अध्यक्ष के रूप में पंडित जवाहर लाल नेहरु मिले। इन्होंने 31 दिसंबर 1929 को लाहौर में रावी नदी के किनारे आजाद भारत के प्रतीक तिरंगा झंडा फहरा कर यह संकल्प लिया कि पूर्ण आजादी से कम हम कुछ भी नहीं स्वीकार करेंगे और अपने इस संकल्प को तरोताजा रखने के लिए यह भी प्रस्ताव पास किया गया कि अगले 26 जनवरी को सांकेतिक रूप से स्वतंत्रता दिवस मनाएंगे। इस प्रकार 1930 से हम 26 जनवरी को स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाते चले आरहे थे लेकिन देश की आजादी के बाद 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस मनाने लगे। तब यह निर्णय हुआ कि 26 जनवरी को हम संविधान को लागू करके गणतंत्र दिवस के रूप में मनाएंगे। अर्थात हमारा देश न केवल संप्रभु संपन्न है अपितु गणतंत्र भी है अर्थात हमारा राष्ट्राध्यक्ष वंशानुगत न होकर जनता का चुना हुआ प्रतिनिधि होगा और यह सब संविधान के द्वारा किया गया। 

हमारा संविधान गीता कुरान बाइबल की तरह पवित्र और महत्वपूर्ण है क्योंकि इसी के द्वारा हमें गरिमामय जीवन जीने का अधिकार मिला है। संविधान लागू होने के बाद ही हम नागरिक बने हैं क्योंकि अधिकार विहीन जनता प्रजा कहलाती है, जबकि अधिकार युक्त जनता नागरिक। इससे पूर्व हम भारत की प्रजा थे क्योंकि इससे पूर्व हमारे केवल कर्तव्य थे अधिकार नहीं थे और ये कर्तव्य निरंकुश शासन द्वारा हमारे ऊपर थोपे गए थे। यदि हम इन कर्तव्यों पालन नहीं करते थे तो हमें कठोर दंड मिलता था।

समानता के अधिकार हमें संविधान द्वारा ही मिले हैं। आज कानून का शासन है और कानून की नजर में राजा और रंक एक समान हैं। सबको कानून का समान रूप से संरक्षण प्राप्त है। सार्वजनिक स्थलों पर नस्ल, जाति, धर्म, लिंग या अन्य किसी भी आधार पर विभेद निषेध किया गया है। सरकारी सेवाओं में सबको समान अवसर उपलब्ध कराया गया है। इतना ही नहीं समाज के कमजोर और गरीब वर्ग के लोगों को विशेष सुविधाएं भी दी गई हैं। संविधान लागू होने से पहले समाज का एक वर्ग अछूत माना जाता था, उनका तिरस्कार किया जाता था अतः संविधान के द्वारा अस्पृश्यता निषेध किया गया। ऐसे वर्ग के लोगो को समाज में बराबरी का दर्जा दिया गया।

पहले राजनीतिक पदों को पाने का अधिकार समाज के अगड़े वर्ग के लोगों तक ही सीमित था लेकिन आज कोई भी व्यक्ति चाहे जिस जाति धर्म लिंग का हो, नीचे से ऊपर तक के सभी पदों के लिए पात्र समझा जाता है। इतना ही नहीं अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों को शासन व्यवस्था में पर्याप्त भागीदारी प्रदान करने के लिए उनकी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण भी दिया गया है। पहले महिलाओं का कार्यक्षेत्र घर की चारदीवारी तक सीमित था, आज उन्हें मताधिकार प्राप्त है, उन्होंने अपनी योग्यता और क्षमता से प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के पदों को भी शुशोभित किया है। यह सब हमारे संविधान की देन है।

आजादी के पूर्व ब्रिटिश शासन के अधीन भारत की दुर्दशा से सभी परिचित हैं लेकिन इसके पहले भी भारत की सामाजिक व राजनीतिक व्यवस्था संतोष जनक नहीं थी। सामंतवादी व्यवस्था में गरीबों, किसानों और मजदूरों के खून पसीने की कमाई सामंत व राजपरिवार के लोग अपनी महत्वाकांक्षा को पूरी करने के लिए बर्बाद करते थे। उत्पादन के साधनों पर समाज के एक वर्ग का एकाधिकार था। अमीर वर्ग द्वारा गरीबों का विभिन्न प्रकार से शोषण होता था। अतः संविधान द्वारा बलातश्रम, बेगारश्रम, बंधुआ मजदूरी, बाल मजदूरी, दास प्रथा, देवदासी प्रथा का निषेध किया गया।

मध्यकाल में बलात धर्म परिवर्तन कराया जाता था अतः संविधान द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को अपने पसंद के धर्म को मानने और उसके अनुसार आचरण करने का अधिकार दिया गया है, बलात धर्म परिवर्तन निषेध किया गया है। देश के सभी नागरिकों को वाक् अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी गई है।

संपत्ति को अर्जित करने, उसका संग्रहण करने, उसका उपभोग करने तथा उसका विक्रय करने का प्रत्येक नागरिक को विधिक अधिकार दिया गया। इतना ही नहीं इन अधिकारों के संरक्षण का भी अधिकार दिया गया।
इसके अतिरिक्त आने वाली सरकारों को यह भी निर्देश दिया गया है वे सामाजिक व आर्थिक न्याय की स्थापना की दिशा में आवश्यक कदम उठाएगी। अमीरों और गरीबों के बीच की दूरी को कम करने का प्रयास करेंगी। कार्य के न्यायोचित दशाओं की बात की गई है। समाज के कमजोर और गरीब वर्ग के लोगों को शिक्षा एवं रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने हेतु विशेष प्रावधान किए जाने की बात कही गई है। बेगार बीमार वृद्ध निःशक्त लोगो को विशेष सहायता हेतु निर्देशित किया गया है। इतना ही नहीं विश्व शांति की बात भी हमारे संविधान में की गई है। संविधान में हमारे कर्तव्यों की भी बात की गई है। अब हमारा कर्तव्य है कि हम संविधान का अनुसरण करें, अपने कर्तव्यों का पालन करें। कुछ लोग अपने कर्तव्यों की बात नहीं करते केवल अधिकारों की बात करते हैं, उनको यह पता नहीं कि आपके कर्तव्य ही दूसरों के अधिकार है। ऐसे लोग फिर संविधान को दोष देने लगते हैं। इस संदर्भ में मै संविधान सभा में डॉक्टर अंबेडकर द्वारा दिए गए अंतिम उद्बोधन (25 नवम्बर 1949 को) का उल्लेख करना चाहता हूँ कि " संविधान चाहे जितना अच्छा हो यदि उसे संचालित करने वाले लोग बुरे हैं तो वह निश्चित ही बुरा साबित होगा। "

यदि ईश्वर का भी पृथ्वी पर अवतरण होता है तो वे भी लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना चाहेंगे। ऐसी दशा में वे वहीं कुछ करेंगे जैसा की हमारा संविधान कहता है। अतः यह कहा जा सकता है कि हमारा संविधान ईश्वर की इच्छा की अभिव्यक्ति है। यह हमारे लिए उतना ही पूज्य और अनुकरणीय है जितना कि गीता कुरान बाइबल। मेरे समझ से संविधान दिवस नहीं बल्कि संविधान सप्ताह मनाया जाना चाहिए। इस सप्ताह में संविधान के प्रावधानों विशेषकर प्रस्तावना, मौलिक अधिकार, नीति निदेशक तत्व, मौलिक कर्तव्य और पंचायती राज व्यवस्था पर कार्यशालाओं का आयोजन किया जाना चाहिए। जन जागरूकता फैलाने के लिए विभिन्न प्रकार के कार्यक्रम जैसे निबंध लेखन प्रश्नमंच आदि का भी आयोजन होना चाहिए।



 एक समान सिविल संहिता

अब जब धारा 370 और अयोध्या विवाद का मामला सुलझ गया है तो कुछ अति उत्साही तथाकथित राष्ट्रवादी लोग एक समान सिविल संहिता का राग अलापना शुरू कर दिए हैं। इन दिनों सोशल मीडिया में इस मुद्दे पर काफी चर्चा है। अतः यह लाजमी हो जाता है कि इस मुद्दे के सभी पहलुओं पर चर्चा हो, न कि एक पक्षीय।

एक समान सिविल संहिता की व्यवस्था मूल संविधान में ही किया जाना चाहिए था लेकिन पंडित नेहरू का मानना था कि अभी अभी साम्प्रदायिक आधार पर देश का विभाजन हुआ है और भारत के मुस्लिम भाई असहज महसूस कर रहे हैं, ऐसी स्थिति में यदि उनके व्यक्तिगत मामलों में कानूनी हस्तक्षेप किया जाएगा तो वे भारत में अपने भविष्य को लेकर सशंकित हो जाएंगे। लेकिन इसके बावजूद भी एक समान सिविल संहिता के प्रावधान को संविधान के भाग-4 में नीति निदेशक तत्वों के अंतर्गत अनुच्छेद-44 में जगह दिया गया। इसमें यह कहा गया कि राज्य देश के समस्त भाग में रहने वाले नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता के निर्माण का प्रयास करेगा अर्थात आने वाली सरकारों का यह कर्तव्य होगा कि वे एक समान सिविल संहिता को लागू करने की दिशा में आवश्यक कदम उठाएंगी। परन्तु नीति निदेशक प्रावधान न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय नहीं है, यह सरकार की इच्छा पर निर्भर है कि उसे लागू करें या नहीं करे इसीलिए आज तक यह मामला पेंडिंग है।

संविधान निर्माण काल में ही डॉक्टर अंबेडकर एक समान सिविल संहिता को लागू करने की दिशा में कानून बनाने के पक्षधर थे लेकिन नेहरू जी चाहते थे कि पहले हिंदू समाज से जुड़े नियमों कानूनों में संशोधन किया जाए। महिलाओं को संपत्ति का अधिकार दिया जाए। एकल विवाह की व्यवस्था की जाए। महिलाओं को तलाक लेने का अधिकार दिया जाए। बच्चे को गोद लेने के लिए जातीय बंधन समाप्त किए जाए। लेकिन डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद का मानना था कि इतनी शीघ्रता से हजारों वर्ष पुरानी हिंदू परम्परा से छेड़छाड़ करना उचित नहीं और वैसे भी हम प्रत्यक्ष रूप से जनता के चुने हुए प्रतिनिधि नहीं हैं। इस विषय में आम चुनाव के बाद विचार होना चाहिए। उन्होंने इतना तक कहा कि यदि सरकार ऐसा कोई विधेयक पास करके मेरे पास अनुमति के लिए भेजती है तो मै सदन के पास पुनर्विचार के लिए वापस लौटा दूंगा। अतः ऐसा कोई बिल सदन में नहीं प्रस्तुत किया जा सका।

लेकिन संविधान लागू हो जाने के बाद प्रथम विधि मंत्री अम्बेडकर जी पुनः हिंदू कोड बिल तैयार किए। इस बिल को नेहरू जी का समर्थन प्राप्त था। लेकिन बाकी सदस्यों का प्रश्न था कि ऐसा सुधार केवल हिन्दू समाज में ही क्यों? यदि सुधार करना है तो सभी धर्मो के लिए एक समान सिविल संहिता का निर्माण किया जाए। क्या महिलाओं से जुड़ी हुई समस्याएं केवल हिन्दू समाज में ही हैं? इस पर नेहरू जी फिर वही राग दुहराए कि हमारा समाज एक समान सिविल संहिता के लिए तैयार नहीं है पहले हिंदू रिफॉर्म किया जाए जो शेष के लिए जमीन तैयार करने का काम करेगा अतः मुस्लिम समाज को इससे अलग रखा गया। इसीलिए इस विधेयक को हिन्दू कोड बिल का नाम दिया गया। हालांकि स्वामी करपात्री जी महाराज के नेतृत्व में हिन्दू समुदाय का भी व्यापक विरोध देखने को मिला। करपात्री जी महराज की खुली चुनौती नेहरू जी और अम्बेडकर जी को थी कि यदि हिन्दू कोड बिल का कोई भी प्रावधान शास्त्र मम्मत सिद्ध कर दें तो मै इस बिल को स्वीकार कर लूंगा।

नेहरू जी इलाहाबाद के फूलपुर संसदीय क्षेत्र से प्रथम आम चुनाव लड़ रहे थे जहाँ उनका मुकाबला एक सन्यासी प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी से था। ब्रह्मचारी जी केवल हिन्दू कोड बिल के मुद्दे पर ही मतों का ध्रुवीकरण करके चुनाव जीतना चाहते थे। मतदाताओं की हवा का रूख देखते हुए नेहरू जी बैकफुट पर हो गए और हिन्दू कोड बिल को वापस ले लिए और जनता में यह संदेश प्रसारित किए कि हिंदू कोड बिल में जन भावनाओं का सम्मान करते हुए संशोधन किया जाएगा उसके बाद ही सदन में प्रस्तुत किया जाएगा। नेहरू जी के इस वक्तव्य से अम्बेडकर ही इतने नाराज हो गए कि कैबिनेट से इस्तीफा दे दिए और निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव में उतरे। शायद जनता अम्बेडकर जी से नाराज थी जिसके कारण अम्बेडकर जी चुनाव हार गए लेकिन नेहरू जी और उनकी पार्टी की जीत हुई।

अब हिंदू कोड बिल को सदन में पास कराना नेहरू जी की अकेले की जिम्मेदारी थी। अतः उन्होंने हिन्दू कोड बिल को कई हिस्सो में तोड़कर अलग अलग बिल के रूप में पास करवाकर कानून का रूप दिए। इसके बाद महिलाओं को संपत्ति का उत्तराधिकार प्राप्त हुआ। तलाक का अधिकार मिला। एकल विवाह की व्यवस्था की गई। किसी बच्चे को गोद लेने में जातीय बंधन समाप्त कर दिया गया। लेकिन हिंदू कोड बिल के व्यापक जन विरोध के अनुभव और उससे उपजे भय के कारण आगे की सरकारें एक समान सिविल संहिता को लागू करने की इच्छा शक्ति नहीं दिखा पा रही हैं। उनको पता है कि हिन्दू समाज से कहीं ज्यादा मुस्लिम समाज कंजरवेटिव हैं। वे अपने व्यक्तिगत कानूनों को धर्म सम्मत और अल्लाह की आवाज मानते हैं। यदि उनके व्यक्तिगत मामलों में बल पूर्वक हस्तक्षेप की कोशिश की गई तो परिणाम हिन्दू कोड बिल से भी ज्यादा भयानक हो सकते हैं। रही बात भाजपा कि तो अयोध्या फैसले के बाद कुछ लोग भारत में ऐसा माहौल बनाने का प्रयास कर रहे हैं कि भाजपा हिंदुत्व और संघ का एजेंडा आगे बढ़ा रही है अतः यह उचित समय नहीं कहा जा सकता। नेहरू जी की चिंता आज भी हमारे शीर्ष नेताओं में विद्यमान है। हाँ धीरे धीरे आम सहमति से इस दिशा में आगे अवश्य बढ़ा जा सकता है।

नई अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था (New International Economic Order)


नई अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था से आप क्या समझते हैं?

 विश्व के विभिन्न देशों के बीच भारी आर्थिक विषमता हैं। एक तरफ जहां आर्थिक दृष्टि से बहुत अधिक संपन्न विकसित देश हैं तो वहीं दूसरी तरफ गरीबी,भुखमरी और बीमारी से ग्रसित अल्पविकसित देश। इसी आर्थिक विषमता को दूर करने के लिए अल्पविकसित देशों द्वारा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर 1960 के बाद एक अभियान चलाया गया,जिसमें यह मांग की गई कि अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था और अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संस्थाओं का पुनर्गठन इस प्रकार किया जाए कि जिससे अल्पविकसित देश अपनी गरीबी भुखमरी को दूर कर आत्मनिर्भर बनने की दिशा में विकास कर सकें।इस व्यवस्था में विकसित देशों को अल्पविकसित व विकासशील देशों को आर्थिक व तकनीकी सहायता प्रदान करना था। इसे ही नवीन अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था का नाम दिया गया।

उत्तर-दक्षिण संवाद का क्या हैं?

 अधिकतर विश्व के धनी देश उत्तर में हैं जबकि पिछड़े हुए या विकासशील देश बड़ी संख्या में दक्षिण में है। 1960 के बाद विकासशील देशों ने यह अभियान चलाया की विकसित देशों का यह दायित्व है कि वे अविकसित व विकासशील देशों को वित्तीय सहायता व नई प्रौद्योगिकी देकर सहयोग करें। 1973 में अल्जीयर्स (अल्जीरिया) में गुटनिरपेक्ष देशों का सम्मेलन हुआ जहां नई अंतरराष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था लाने का प्रस्ताव पास किया गया। संयुक्त राष्ट्र संघ ने इस संदर्भ में ब्रांडट आयोग(पश्चिमी जर्मनी के पूर्व चांसलर विल्ली ब्रांडट की अध्यक्षता में) गठित किया गया। जिसकी सिफारिशों पर विस्तृत चर्चा हुई। इसी चर्चा को उत्तर दक्षिण संवाद करते हैं। खेद की बात यह है कि विकसित देशों के असहयोग के कारण इस अभियान को सफलता नहीं मिली।

सामूहिक आत्मनिर्भरता व दक्षिण-दक्षिण सहयोग का क्या अर्थ है?

नई अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था के संदर्भ में 1960 के बाद जो उत्तर-दक्षिण संवाद चला उसे उत्तर के विकसित देशों के असहयोग के कारण सफलता नही मिल सकी ।अतः सन1980 के बाद विकासशील देशों ने यह अभियान चलाया कि वे परस्पर सहयोग से अपना विकास करें। इनके लिए 15 विकासशील देशों का गुट G-15 बना। भारत ने इस दिशा में अग्रणी भूमिका निभाई।

   


गुट निरपेक्ष आंदोलन   

द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात पूरे विश्व में साम्राज्यवाद एवं उपनिवेशवाद के विरोध में जन्मे आंदोलन से कई देश नवस्वतंत्र हुए। इन देशो के समक्ष अपने पुनर्निर्माण एवं विकास की चुनौती थी। अतः ये नव स्वतंत्र देश शांति पूर्वक अपना विकास करना चाहते थे। चूंकि उस समय पूरा विश्व गुटबंदी एवं शीत युद्ध के दौर से गुजर रहा था अतः अपनी स्वतंत्रता को अक्षुण्ण रखने के लिए इन देशों ने गुटनिरपेक्षता की नीति अर्थात न तो अमेरिकी गुट में और न ही सोवियत संघ के गुट में सम्मिलित होने की नीति अपनाई। धीरे-धीरे तृतीय विश्व के देशों में इस नीति का इतना प्रचार-प्रसार हुआ कि इस नीति को अपनाने वाले देशों की संख्या लगातार बढ़ती चली गई। इस प्रकार गुटनिरपेक्षता की नीति ने एक आंदोलन का रूप ले लिया। इसीलिए इसे गुटनिरपेक्ष आंदोलन(NAM) कहा जाता है। इस आंदोलन के संस्थापक सदस्यों में भारतीय प्रधानमंत्री नेहरुजी, मिस्र के राष्ट्रपति नासिर, युगोस्लाविया के राष्ट्रपति टीटो एवं इंडोनेशिया के राष्ट्रपति सुकर्णो का विशेष योगदान है।
        गुटनिरपेक्षता का अर्थ महाशक्तियों के गुटों में शामिल न होना है।इसका अर्थ पृथकतावाद नही है।पृथकतावाद का अर्थ है अपने आपको अंतर्राष्ट्रीय मामलों से अलग रखना है जबकि गुटनिरपेक्षता की नीति पूरे विश्व मे शांति एवं स्थिरता बनाये रखने के लिए दोनों ही गुटों के बीच मध्यस्थता की सक्रिय भूमिका अदा करना है।गुटनिरपेक्षता तटस्थता भी नही है। क्योंकि तटस्थता किसी भी पक्ष से युद्ध मे शामिल न होने की नीति है। ये देश न तो युद्ध को समाप्त करने के लिए प्रयासरत रहते हैं और न ही सही-गलत पर अपना कोई पक्ष रखते हैं अर्थात ये पूरी तरह से तटस्थ रहते हैं।जबकि गुटनिरपेक्ष देश सही-गलत पर अपने तर्क भी रखते हैं और युद्ध को समाप्त करने के लिए प्रयास भी करते हैं।इसके अतिरिक्त तटस्थता केवल युद्ध काल की नीति है जबकि गुटनिरपेक्षता की नीति युद्धकाल एवं शांतिकाल दोनों में जीवित रहती हैं।

 गुटनिरपेक्ष आंदोलन के विकास में प्रेरक तत्व-

 गुटनिरपेक्ष आंदोलन के विकास में निम्नलिखित प्रेरक तत्वों का विशेष योगदान है-

 1-शीत युद्ध का भय 

सभी नवस्वतंत्र देश वर्षों तक गुलामी और शोषण का शिकार रहे। अतः स्वतंत्रता के पश्चात वे शांतिपूर्ण विकास करना चाहते थे ।यदि वे गुटबंदी का समर्थन करते तो ऐसी स्थिति में शीत युद्ध का प्रभाव इन देशों तक पहुंच सकता था। अतः इससे बचने के लिए गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाई।

 2-आर्थिक एवं तकनीकी सहायता की आवश्यकता

 नवस्वतंत्र देशों को अपने पुनर्निर्माण एवं विकास के लिए आर्थिक एवं तकनीकी सहायता की आवश्यकता थी। यदि वे किसी एक गुट में सम्मिलित हो जाते तो दूसरे गुट द्वारा प्राप्त होने वाली इसी प्रकार की सहायता से वंचित हो जाते। अतः दोनों ही गुटों से सहायता प्राप्त करने के विकल्पों को खुला रखने के लिए उन्होंने गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाई ।

3-स्वतंत्र विदेश नीति की आकांक्षा 

नवोदित स्वतंत्र राष्ट्र वर्षो की गुलामी से स्वतंत्र होने के पश्चात पुनः इसी प्रकार की किसी और गुलामी को स्वीकार नहीं कर सकते थे। अतः उन्होंने यह निर्णय लिया कि किसी भी गुट में शामिल ना हो कर स्वतंत्रता पूर्वक अपनी विदेश नीति का निर्माण करें।

 4-शक्ति राजनीति से पृथक रखकर स्वतंत्र अस्तित्व की आकांक्षा

 नवस्वतंत्र देश इतने शक्तिशाली नहीं थे कि वे शक्ति राजनीति से पृथक रहते हुए भी विश्व को अपनी ओर आकर्षित कर सकें। अतः गुटनिरपेक्ष आंदोलन उनके लिए एक ऐसा मंच था जिसके माध्यम से वे अंतरराष्ट्रीय राजनीति में अपनी सक्रिय भागीदारी को प्रस्तुत कर सकते थे। 

5-साम्राज्यवाद एवं उपनिवेशवाद के प्रति आक्रोश 

क्योंकि सभी गुटनिरपेक्ष देश साम्राज्यवादी उपनिवेशवादी ताकतों के शोषण का शिकार रहे थे अतः स्वतंत्रता के पश्चात एकजुट होकर उन राष्ट्रों को स्वतंत्र कराने के लिए प्रयास करने लगे जो अभी भी इसी प्रकार के शोषण के शिकार थे।अतः इनके माध्यम से स्वतंत्रता प्राप्त करने वाले देशों का गुटनिरपेक्ष आंदोलन में शामिल होना स्वाभाविक था। इस प्रकार गुटनिरपेक्ष देशों की संख्या बढ़ती चली गई।

6-शांति की प्रबल इच्छा

 नवस्वतंत्र देश शांति पूर्वक विकास करना चाहते थे अतः इनके लिए जरूरी था कि वे सैनिक गुटबंदी में न पढ़कर एकजुट होकर शीत युद्ध को समाप्त करने हेतु प्रयास करें।अतः इन्होंने गुटनिरपेक्षता की नीति को अपनायी।

गुटनिरपेक्ष देशों के विशेषताएं

 1- ये देश किसी भी सैनिक गुटबंदी में अपने आप को संलिप्त नहीं करते।

 2- ऐसे देशों की विदेश नीति स्वतंत्र होती है अर्थात इन पर गुटबंदी के शिकार देशों का कोई प्रभाव नहीं होता।

 3- ये देश विश्व शांति के समर्थक होते हैं तथा इसके लिए आवश्यक सभी जरूरी उपायों के लिए प्रयास करते हैं।

 4 - इनकी विदेश नीति साम्राज्यवाद एवं उपनिवेशवाद विरोधी होती है अर्थात जिन देशों में साम्राज्यवाद एवं उपनिवेशवाद के विरोध में आंदोलन चलाया जा रहा है उन आंदोलनों का ये देश समर्थन करते हैं।

 5 - यह देश नस्लवाद या प्रजातिवाद का विरोध करते हैं तथा जिन देशों में नस्लवाद विरोधी आंदोलन चल रहे हैं उनका समर्थन करते हैं जैसे दक्षिण अफ्रीका में इसी प्रकार का आंदोलन हो रहा था।

6- ये देश अपने भूभाग को सैनिक अड्डा बनाने हेतु किसी भी गुटबंदी में शामिल देश को नहीं देते हैं।

7- ये देश शस्त्र नियंत्रण एवं निःशस्त्रीकरण का समर्थन करते हैं।

गुटनिरपेक्ष आंदोलन में भारत की भूमिका

गुटनिरपेक्ष आंदोलन में भारत की केंद्रीय भूमिका रही है। यदि भारत को इस आंदोलन का जन्मदाता कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। क्योंकि 1947 में नई दिल्ली में आयोजित किए गए एशियाई सम्मेलन में सर्वप्रथम नेहरु जी ने यह कहा था कि-  'हम किसी देश के उपग्रह बनकर नहीं रहेंगे, हमारी विदेश नीति स्वतंत्र होगी ।' नेहरू जी के इस विचार से अन्य देश भी प्रभावित हुए जिससे इस विचार को बल मिला और 1955 में आयोजित बांडुंग सम्मेलन में नेहरू जी युगोस्लाविया के राष्ट्रपति टीटो, मिस्र के राष्ट्रपति नासिर के साथ मिलकर संयुक्त वक्तव्य जारी किया। इसे ही गुटनिरपेक्ष आंदोलन का आधार स्तंभ माना गया। इस प्रकार भारत गुटनिरपेक्ष आंदोलन का संस्थापक देश है।

 गुटनिरपेक्ष आंदोलन की वर्तमान में भारत के लिए प्रासंगिकता

जब गुटनिरपेक्ष देशों का 18 वां शिखर सम्मेलन अक्टूबर 2019 में अजरबेजान की राजधानी बाकू में चल रहा था तो बुद्धिजीवियों की उस पर नजर लाजमी था। बुद्धिजीवियों में इस बात पर चर्चा होती रहती है कि अब जब गुटबंदी का दौर समाप्त हो गया तो फिर आज के परिपेक्ष में इसकी क्या आवश्यकता है? आइए जानते हैं क्या है भारत की गुटनिरपेक्षता की नीति और वर्तमान में इसकी क्या प्रासंगिकता है?

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जब पूरा विश्व शीत युद्ध और गुटबंदी के दौर से गुजर रहा था तब नव स्वतंत्र भारत के सम्मुख अपनी स्वतंत्र विदेश स्थापित करने की चुनौती थी। चूंकि भारत शांति पूर्वक अपना नवनिर्माण व विकास करना चाहता था तथा इसके लिए दोनों ही गुटों से आर्थिक व तकनीकी सहायता की आवश्यकता थी इसलिए भारत ने गुटनिरपेक्षता की नीति का अनुसरण किया। यदि हम किसी एक गुट में शामिल होते तो हमारी विदेश नीति स्वतंत्र नहीं रह पाती (जैसा कि नेहरू जी का कहना था कि हम किसी देश के उपग्रह नहीं बनना चाहते) तथा भारत की 

शांतिपूर्ण विकास की इच्छा शीत युद्ध की भेट चढ़ जाती और आधी दुनिया से शत्रुता मोल लेकर उनसे आर्थिक व तकनीकी सहायता प्राप्त करने से वंचित रह जाते।
लेकिन शीत युद्ध की समाप्ति के बाद अब ये सवाल प्रायः पूछा जाता है कि क्या भारत को गुटनिरपेक्षता की नीति का त्याग करके अमेरिका की ओर रुख करना चाहिए? शायद मोदी सरकार भी इसी बात पर विचार कर रही है इसीलिए पिछले दो शिखर सम्मेलन में माननीय प्रधानमंत्री जी भाग लेने नहीं जा रहे हैं। भारत का प्रतिनिधित्व माननीय उपराष्ट्रपति कर रहे हैं। शायद मोदी सरकार यह भी विश्लेषण कर रही है कि भारत के सबसे बड़े प्रतिद्वंदी चीन का काउंटर पोल अमेरिका है अतः चीन को साधने के लिए अमेरिका से रिश्ते मजबूत करना भारत के लिए ज्यादा उपयुक्त होगा। एक समय था जब अमेरिका भारत के विरूद्ध पाकिस्तान की मदद कर रहा था उस समय भी चीन के मुद्दे पर अमेरिका भारत का साथ दिया था। डोकलाम विवाद के समय भी अमेरिका भारत के साथ था। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि गुट निरपेक्ष आंदोलन गुटबंदी के विरोध में कम अमेरिका के विरोध में ज्यादा प्रखर था। अब जब अमेरिका से हमारे रिश्ते सुधार के दौर में हैं तो ऐसे में NAM का राग अलापना बेमानी होगी।

लेकिन कुछ विशेषज्ञों की राय है कि आज के बदले वैश्विक परिदृश्य में भी NAM की प्रासंगिकता बनी हुई है। इसके पक्ष में कई बिंदु हैं लेकिन तीन महत्वपूर्ण बिंदु निम्न हैं

1- पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद को समाप्त करने तथा टेरर फंडिंग पर लगाम लगाने के लिए यह मंच महत्वपूर्ण साबित हो सकता है।

2- जब संयुक्त राष्ट्र संघ का गठन हुआ था उस समय इसमें केवल 51 सदस्य थे, लेकिन आज सदस्यों की संख्या बढ़कर 193 हो गई। 


अतः इस वैश्विक संस्था का लोकतांत्रिक तरीके से पुनर्गठन होना चाहिए। सुरक्षा परिषद में भारत को स्थाई सदस्यता मिलनी चाहिए। अतः भारत की इस दावेदारी को मजबूत बनाने के लिए भारत की पहचान तीसरी दुनिया के नेतृत्वकर्ता के तौर पर बनी रहनी चाहिए।

3- भारत के लिए NAM इस लिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि विकसित देश विश्व व्यापार संगठन के माध्यम से अपनी नव उपनिवेशवादी नीतियों को विकासशील देशों पर थोपते रहते हैं इसलिए विकसित देशों पर दबाव बनाने के लिए तृतीय विश्व के देशों को एकजुट रहना होगा।
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भारत चीन संबंध

धारा 370 तथा कश्मीर के मुद्दे पर चीन लगातार पाकिस्तान के साथ खड़ा दिखाई दिया लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत को मिल रहे व्यापक समर्थन के कारण आखिरकार चीन को बैकफुट होना पड़ा और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की 2 दिवसीय भारत यात्रा के पूर्व चीन ने यह बयान जारी किया कि कश्मीर मामले को दोनों देश आपसी बातचीत से सुलझाएं।लेकिन अगले ही दिन पाकिस्तानी पीएम इमरान खान को यह भी आश्वासन दिये कि वह चीन के मामले पर नजर रखे हुए हैं, पाकिस्तान को चिंता की आवश्यकता नहीं है। चीन के इस बयान का क्या यह मतलब लगाया जाए कि चीन भारत पर दबाव बनाने की राजनीति कर रहा है? अतः हमें सतर्क रहना होगा। हालाकि शी जिनपिंग की पीएम मोदी से वार्ता के दौरान कश्मीर का जिक्र नहीं हुआ जो एक अच्छा संकेत माना जा सकता है।

आइये इतिहास के आईने में भारत चीन के रिश्तों को समझने का प्रयास करते हैं। 

भारत चीन संबंधों की ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक परंपरा रही है किन्तु बदलते परिदृश्य में आज भारत-चीन संबंधों में एक खास प्रकृति नजर आती है। आज भारत-चीन प्रतिद्वंदी एवं सहयोगी दोनों हैं। जहाँ एक तरफ राजनीतिक एवं सामरिक प्रतिद्वंदिता है वहीँ दूसरी ओर सामाजिक एवं आर्थिक सहयोग भी है। राजनीतिक एवं सामरिक संबंधों के तहत चीन एशिया में भारत को घेरने की कोशिश कर रहा है, जिसे उसकी ‘मोतियों की माला की निति’ कहा जा रहा है। इसके साथ ही साथ वह भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार भी है।

भारत चीन संबंधो में उतार-चढाव

सन् 1949 में जब साम्यवादी चीन का उदय होता है तो गैर साम्यवादी देशों में सबसे पहले भारत ने उसे मान्यता दी जिससे भारत चीन संबंधों के प्रारंभिक चरण में मित्रता के दौर दिखाई दिये। जब चीन ने तिब्बत पर कब्ज़ा कर लिया तब भारत ने उसका विरोध नहीं किया बल्कि 1954 में भारत चीन के मध्य पंचशील समझौता हुआ तथा तिब्बत पर चीन के अधिकार को स्वीकार कर लिया गया। लेकिन 1959 में जब चीन ने तिब्बतवाशियो पर दमन चक्र प्रारम्भ किया तो दलाईलामा के नेतृत्व में कुछ शरणार्थी भारत में शरण ली। जससे चीन नाराज हो गया और भारत तथा चीन के मध्य आरोप-प्रत्यारोप का दौर प्रारम्भ हो गया। इसी समय चीन भारतीय सीमाओ का अतिक्रमण करने लगा तथा 20 अगस्त 1962 को भारत पर आक्रमण कर दिया। चुकी भारतीय सेना इस अप्रत्याशित घटना से निपटने के लिये तैयार नहीं थी इसलिये पराजय का मुह देखना पड़ा। इस आक्रमण के समय चीन ने भारत की लगभग 38000 वर्ग कि.मी जमींन पर कब्ज़ा कर लिया जो आज भी उसके कब्जे में है। इस घटना के बाद से ही हमारे रिश्तों में तनाव के दौर प्रारम्भ हो गए जो आज तक बरकरार है।

सन् 1962 के बाद भारत-चीन राजनयिक सम्बन्ध समाप्त हो गए थे। इसी समय 1964 में चीन अपना पहला परमाणु परीक्षण किया, जिसके बाद भारत ने अपनी परमाणु निति पर पुनर्विचार करके परमाणु परीक्षण करने की तैयारी शुरू कर दी। ध्यातव्य है कि भारत की परमाणु निति नेहरू काल में शांतिपूर्ण कार्यो तक ही सिमित थी। सन् 1974 में श्रीमती गांधी के कार्यकाल में भारत ने अपना प्रथम परमाणु परिक्षण पोखरण-1 किया। जिससे दोनों देशों के बीच प्रतिद्वंदिता और बढ़ गयी।

अब चीन भारत के परम् प्रतिद्वंदी पाकिस्तान की सैन्य साज-सामानों से मदद करने लगा जिससे दोनों देशों के रिश्ते सुधर नहीं सकते थे। लेकिन श्रीमती गाँधी के प्रयासों से सन्1976 में पुनः राजनयिक संबंधो की बहाली होती हैं। जब भारत में जनतापार्टी की सरकार बनती है तो विदेश मंत्री श्री वाजपेयी की चीन यात्रा होती है। रिश्तों के सुधार की दिशा में कुछ सकारात्मक बात होती लेकिन इसी समय चीन द्वारा वियतनाम पर आक्रमण किये जाने के कारण वाजपेयी जी राजनयिक यात्रा पूर्ण होने के पहले ही लौट आये। लेकिन जब भारत में श्री राजीव गाँधी प्रधानमंत्री बनते हैं तो रिश्तो में थोड़ा सुधार होता है तथा सन् 1988 की श्री राजीव गांधी की चीन यात्रा इस दिशा में ऐतिहासिक माना जाता है। सन् 1993 में भारतीय प्रधानमंत्री श्री नरसिम्हा राव की चीन यात्रा होती है। इस समय एक ऐतिहासिक समझौता होता है जिसके तहत राजनीतिक एवं सामरिक मुद्दों को अलग रख कर आर्थिक एवं सामाजिक क्षेत्रों में रिश्तों को सुधारने की बात की जाती है। जिससे दोनों देशों के बीच व्यापारिक सम्बन्ध सकारात्मक दिशा में आगे बढ़ते हैं।

अब धीरे-धीरे पाकिस्तान की तरफ से चीन का मोह थोडा कम होने लगा इसीलिए जब 1999 में कारगिल पर पाकिस्तान अधिकार कर लिया था तो चीन ने पाकिस्तान पर कारगिल को खाली करने का दबाव डाला जिसे भारत की कूटनीतिक विजय माना गया। इसीलिए भारतीय प्रधानमंत्री श्री वाजपेयी जी ने 2003 में चीन की यात्रा की। इसी समय सर्वप्रथम चीन ने शिक्किम को भारत का अभिन्न हिस्सा स्वीकार किया तथा शिक्किम के नाथुला दर्रा को खोलने से सम्बंधित समझौता हुआ हलाकि यह दर्रा 2006 में खोला गया। 
भारत एवं चीन के सुधरते रिश्तों के कारण सन् 2007 से भारत और चीन के मध्य संयुक्त सैन्याभ्यास ‘हैण्ड इन हैण्ड’ आयोजित किया जाने लगा लेकिन सन् 2009 में जब चीन ने जम्मू-कश्मीर के लोगों
को स्टेपल वीजा (विवादित क्षेत्र के निवासी मानकर) जारी किया तो यह युद्धाभ्यास रोक दिया गया। परन्तु 2013 से इस प्रकार का सैन्याभ्यास पुनः प्रारम्भ किया गया।

दोनों देशों के मध्य सम्बन्ध सुधारने हेतु सन् 2013 में भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की चीन यात्रा होती है जिस दौरान 9 महत्वपूर्ण बिन्दुओ पर सहयोग समझौता हुआ। लेकिन रिश्तों के सुधार की दिशा में महत्व पूर्ण कदम चीनी राष्ट्रपति शी जिन पिंग की भारत यात्रा 2014 तथा भारतीय प्रधानमंत्री मोदीजी की चीन यात्रा 2015 को माना जा सकता है। दोनों ही नेता अपने गृह शहर में एक दूसरे का प्रोटोकॉल तोड़कर स्वागत करते हैं। मोदीजी की यात्रा शियान प्रान्त से प्रारम्भ होती है। जिसका ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक महत्व है। इस यात्रा के दौरान दोनों देशों के बीच आर्थिक व्यापार विज्ञानं टेक्नोलॉजी तथा संस्कृति के क्षेत्र में कुल 24 समझौते हुए। रेलवे खान खनिज अंतरिक्ष पर्यटन व्यापार व्यवशायिक शिक्षा तथा कौशल विकास के क्षेत्र में सहयोग की बात कही गयी। भारत और चीन के बीच रक्षा सहयोग बढ़ाने हेतु दोनों देशों के सैन्य प्रमुखों के मध्य हॉट लाइन शुरू करने पर सहमति बनी। अतः आशा की जा सकती है की दोनों देशों के बीच निकट भविष्य में विश्वास वहाली होगी।

विवाद के प्रमुख बिंदु

1- सीमा विवाद

जिन कारणों से भारत चीन सम्बन्ध सबसे ज्यादा प्रभावित है उनमे सीमा विवाद सबसे महत्वपूर्ण है। भारत-चीन युद्ध 1962 के दौरान चीन भारत के लगभग 38 हजार वर्ग कि.मी भू-भाग पर कब्जा कर लिया था जो आज भी उसी के कब्जे में है। पाक अधिकृत कश्मीर का लगभग 5 हजार वर्ग कि.मी भू-भाग पाकिस्तान चीन को दे रखा है जिस पर चीन एक राजमार्ग बना लिया है जो भारत के सामरिक हितों के प्रतिकूल है।

2- जल विवाद

ब्रह्मपुत्र नदी उदगम के पश्चात् पहले चीन में प्रवाहित होती है उसके पश्चात अरुणांचल प्रदेश से भारत में प्रवेश करती है। चीन ब्रह्मपुत्र नदी पर बाँध बनाकर उसके मार्ग में परिवर्तन करना चाहता है जिस पर भारत लगातार अपनी आपत्ति जताता रहा है।

3-चीन द्वारा पाकिस्तान की मदद

चीन लगातार सैन्य साज-सामानों से भारत के परम प्रतिद्वंदी पाकिस्तान की मदद करता रहा है जो भारत -चीन संबंधो में खटास का प्रमुख कारण रहा है। चीन पाकिस्तान में न्यूक्लियर रिएक्टर स्थापित कर रहा है इसके साथ ही साथ अरब सागर मे पाकिस्तान के बंदरगाह ग्वादर को विकसित कर रहा है तथा ग्वादर को चीन के उरुमची से जोड़ने वाला 46 अरब डॉलर का गलियारा बना रहा है। जो भारत के सामरिक हितों के प्रतिकूल है। हालाकि चीन की यह नीति पाकिस्तान से दोस्ती बढ़ाना नहीं है बल्कि भारत के ऊपर दबाव बनाने की नीति है।

4-चीन की बढ़ती महत्वाकांक्षा

एशिया में प्रभुत्व स्थापित करने की महत्वाकांक्षा के कारण चीन भारत को अपना प्रतिद्वंदी मानता है। अतः वह नहीं चाहता की भारत को क्षेत्रीय शक्ति का दर्जा प्राप्त हो इसी लिये वह भारत की सयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिसद में स्थायी सदस्यता का समर्थन नहीं करता।

5 – चीन की मोतियो की माला की निति

चीन की यह लगातार नीति रही है की वह हिन्द महासागर में भारत के प्रसार को सिमित कर दे तथा अपने आर्थिक हितों की सुरक्षा कर सके। इसलिए उसने भारत को घेरने के लिए ‘मोतियो की माला की निति’ अपनायी है। जिसके तहत वह भारत के पड़ोसी देशों में नौ सैनिक बेस बना रहा है। अपनी इसी महत्वकांक्षी योजना के तहत म्यांमार के सितवे बन्दरगाह, बांग्लादेश के चटगांव बंदरगाह, श्रीलंका के हम्बनटोटा बंदरगाह, मालदीव के मराओ द्वीपीय बंदरगाह एवं पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह पर को अपने सामरिक हितों के अनुकूल विकसित कर रहा है। 

6- अमेरिका फैक्टर

चूंकी चीन अमेरिका को अपना सबसे बड़ा प्रतिद्वंदी मानता है और अमेरिका भी चीन पर नियंत्रण रखने में भारत की महत्वपूर्ण भूमिका को देखते हुए लगातार भारत से अपने संबंधों को सुधार रहा है अतः भारत को लेकर चीन चिंतित है।

सहयोग के प्रमुख बिंदु

1- चीन हमारा सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार है। आज हमारे देश का लगभग 84 अरब डालर का व्यापार चीन के साथ है। हलाकि भुगतान संतुलन चीन के पक्ष में है जिसकी कुछ विशेषज्ञ आलोचना करते हैं। फिर भी दोनों देशों के बीच सहयोग का यह प्रमुख बिंदु है। 
2 – ब्रिक्स दोनों देशों का साझा मंच है जिसके माध्यम से दोनों देशों के बीच सहयोग को बढ़ावा दिया जा रहा है। 
3-चीनी छात्र इंग्लिश एवं कम्प्यूटर की शिक्षा प्राप्त करने के लिये भारत आते हैं। 
4- भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की चीन यात्रा 2013 के समय सिस्टर सिटी समझौता हुआ। जिसके तहत कलकत्ता-कुंसिंग, बेंगलुरु-चेंगदू तथा दिल्ली-बीजिंग को सिस्टर सिटी घोषित किया गया तथा इनके विकास हेतु परस्पर सहयोग का आस्वासन दिया गया। इसी प्रकार का समझौता प्रधानमंत्री मोदीजी की यात्रा के समय भी हुआ।

संबंधों में सुधार हेतु सुझाव

1-चीन को भारत का वह भूभाग वापस कर देना चाहिए जो 1962 के युद्ध में हड़पा था तथा नियंत्रण रेखा का सम्मान करना चाहिए। 
2-भारत के बिरुद्ध पाकिस्तान की मदद करने से चीन को बाज आना चाहिए। 
3- सयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिसद में भारत की स्थाई सदस्यता का चीन को समर्थन करना चाहिए। 
4- चीन को इसलिए भी भारत की मदद करनी चाहिये क्योंकि भारत के शक्तिशाली होने पर बाहरी शक्तियो का एशिया में प्रवेश रुक जायेगा जो भारत की तुलना में चीन के लिये ज्यादा लाभप्रद होगा


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प्लेटो का न्याय सिद्धांत क्या है?

प्लेटो का न्याय सिद्धांत इस धारणा पर आधारित है कि प्रत्येक मनुष्य का स्वभाव अलग अलग होता है।प्लेटो के अनुसार मनुष्य की आत्मा के तीन गुण होते हैं- विवेक, साहस और तृष्णा।जिस मनुष्य में साहस और तृष्णा की तुलना में विवेक की प्रधानता होती है, वे विवेकी होते हैं तथा शासक बनने के योग्य होते हैं।जिन मनुष्यों में विवेक और तृष्णा की तुलना में साहस की प्रधानता होती है ऐसे लोग साहसी होते हैं तथा  सैनिक बनने के योग्य होते हैं।इसके अतिरिक्त जिन मनुष्यों में विवेक और साहस की तुलना में तृष्णा की प्रधानता होती है, ऐसे लोग लोभी होते हैं और उत्पादन कार्यो व व्यवसाय करने के लिए उपयुक्त होते हैं।प्लेटो के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति द्वारा अपने गुण और स्वभाव के अनुसार कार्य करना ही न्याय है।अतः प्लेटो के अनुसार न्याय का मौलिक सिद्धांत यह है की प्रत्येक व्यक्ति को अपनी प्रकृति के अनुसार सर्वथा उपयुक्त कार्य करना चाहिए।अर्थात प्लेटो का न्याय सिद्धान्त कार्य विशेषीकरण का सिद्धान्त है।व्यक्ति को वही कार्य करना चाहिए जिसके लिए वो सर्वथा उपयुक्त हो।

प्लेटो के न्याय सिद्धान्त की आलोचना।

1-प्लेटो का न्याय सिद्धांत अप्रजातंत्रिक तथा अमनोवैज्ञानिक है।

2-प्लेटो एक व्यक्ति को केवल एक कार्य तक सीमित कर देता है।

3-प्लेटो का न्याय सिद्धान्त वर्तमान राज्यों पर लागू नहीं किया जा सकता।

4-कार्ल पापर के अनुसार प्लेटो के न्याय सिद्धांत में सर्वाधिकारवाद के बीज छुपे हैं।

5-कुछ आलोचकों के अनुसार प्लेटो का न्याय सिद्धान्त फ़ासीवाद का पोषण करता है।

जैरीमैंडरिंग क्या है??

जब सत्तारूढ़ राजनीतिक दल निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन इस प्रकार कराए कि अगले चुनाव में उसको अधिक सीटें प्राप्त हो तो राजनीति की इस बुराई को जैरीमैंडरिंग कहते हैं। कभी कभी परिसीमन आयोग अपने पसंदीदा उममीदवारों को जिताने के लिए स्वयं ही निर्वाचन क्षेत्रों का इस प्रकार से परिसीमन कर देते हैं, जरूरी नहीं है की सत्तारूढ़ दल उन्हें ऐसा करने के लिए कहती है। 

इस बुराई का प्रारंभ अमेरिका में प्रतिनिधि सभा के चुनाव में अधिक सीटें पाने के लिए राजनीतिक दलों द्वारा किया गया लेकिन यह बुराई अब सभी देशों में फैल गई है। 

उदाहरण के तौर पर यदि विपक्षी पार्टी के समर्थक मतदाताओं का संकेन्द्रण किसी क्षेत्र विशेष में बड़े पैमाने पर है जिससे उस क्षेत्र में सत्तारूढ़ पार्टी की हार निश्चित होने की दशा में सत्तारूढ़ दल द्वारा परिसीमन इस प्रकार कराया जाए कि उक्त विपक्षी पार्टी के समर्थक मतदाता दो या तीन निर्वाचन क्षेत्रों में वितरित हो जाये जिससे उनकी ताकत काम हो जाये और अगले चुनाव में सत्तारूढ़ पार्टी को सभी निर्वाचन क्षेत्रों में जीत प्राप्त हो जाये।

जनमत क्या है? इसका क्या महत्व है?

राजनीतिक दृष्टि से आधुनिक युग लोकतंत्र का युग है। लोकतंत्र का आधार लोकमत या जनमत या जनता की इच्छा है। सच्चा लोकतांत्रिक शासन वहीं है जहाँ सरकार की नीति और नेतृत्व जनमत के अनुरूप बनता और बिगड़ता है। इसीलिए लोकमत को लोकतांत्रिक व्यवस्था की नाड़ी कहा जाता है। प्रत्येक सरकार इस बात का ध्यान रखती है कि उसके नीतियों और कार्यो के संदर्भ में जनता के विचार किस तरह के हैं। इतिहास साक्षी है कि जब जब शासकों ने लोकमत को टक्कर देने की कोशिश की है तब तब क्रान्तियों का अध्याय लिखा गया है। इसीलिए तो ह्यूम ने लिखा है कि "सभी सरकारें चाहे वो कितनी भी दूषित क्यों न हो अपनी शक्ति के लिए जनमत पर निर्भर रहती हैं। "
टामस बेली ने लोकमत की तुलना एक ऐसे राक्षस से की है, जो सोया रहता है, किन्तु जब जागता है तो अच्छे से अच्छे शासन को भी उखाड़ फेकता है। 
लोकमत जनता और सरकार के मध्य विचारों में सामंजस्य स्थापित करने की कड़ी है। लोकमत वह कसौटी है जिससे आधार पर सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों का परीक्षण होना चाहिए और इसी के आधार पर उन्हें स्वीकार या अस्वीकार करना चाहिए। 
डॉ. आशीर्वादम ने कहा है "जागरूक और सचेत लोकमत स्वस्थ लोकतंत्र की प्रथम आवश्यकता है। "

स्वस्थ लोकमत के निर्माण के लिए जनता को जागरूक बनना होगा अन्यथा चालाक नेता लोग जनमत को अपने पक्ष में करने के लिए भ्रामक खबरे सोशल मीडिया पर फैलाते रहते हैं अतः हम सब को सावधान रहना होगा। 

 पहले मुर्गी या पहले अंडा??


 यदि आपसे पूछा जाए कि पहले आप बूढ़े होंगे या जवान?

तो आप आसानी से उत्तर दे लेंगे। 
इसी प्रकार आपसे पूछा जाए कि पहले आपका बचपन आएगा या जवानी?
इसका भी उत्तर आसानी से दे लेंगे। 
अब आप समझिए कि अंडा जीवन की शुरुआत है अतः वह पहले आएगा। अंडा प्रारंभिक काल में एक कोशिक होता है और मुर्गी बहु कोशिक होती है। चूंकि विज्ञान यह प्रमाणित करता है कि बहुकोशिक जीवों का विकाश एक कोशिक जीवों से हुआ हैं। अतः अंडा पहले आएगा। 
मै समझता हूँ कि आप समझ गए होंगे। लेकिन आपके मन में ये विचार अभी भी होगा कि वो अंडा कहां से आया होगा जिससे पहली मुर्गी जन्मी होगी तो इसका उत्तर होगा कि वो मुर्गी से मिलती जुलती किसी दूसरे पक्षी का रहा होगा। जैव विकास की थ्योरी यह प्रमाणित कर दिया है कि एक प्रजाति के जीवों से दूसरे प्रजाति के जीवों का विकास हुआ है और इस विकास में वातावरण का प्रभाव सबसे ज्यादा है। इसके अलावा कभी कभी दो प्रजातियों के संकरण से भी नई प्रजाति का जन्म हो जाता है जैसे घोड़े और गधे से खच्चर। 
जैव विकास की थ्योरी यह भी मानती है कि पक्षी वर्ग का विकास सरीसृप वर्ग से हुआ है और सरीसृप अंडे देते हैं इस लिए वह अंडा जिससे पहले पक्षी का जन्म हुआ होगा वो सरीसृप का अंडा रहा होगा।

 Q-1 I am graduate with economics,political science, psychology and B.Ed. Can I become a social science teacher?

Ans- yes.


K P Sharma - तनाव शैथिल्य का दौर कब शुरू हुआ? Sir ye question ncert se h kya)?

Ans- क्यूबा मिसाइल संकट1962 के बाद तनाव शैथिल्य का दौर प्रारंभ हुआ।हिडेन रूप से यह प्रश्न NCERT में है इसलिए एनपीटी LTBT साल्ट स्टार्ट संधियों की चर्चा है।

आप भी यहाँ👇 कमेंट सेक्शन में कोई प्रश्न पूछ सकते हैं।

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